ज़मीनी हकीकत: न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीतियों में बदलाव हो

Devinder SharmaDevinder Sharma   23 Jun 2017 8:03 PM GMT

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ज़मीनी हकीकत: न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीतियों में बदलाव होन्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ सिर्फ छह फीसदी किसान ही उठा पाते हैं

मध्य प्रदेश में पुलिस द्वारा फायरिंग से पांच किसानों की मौत और गुस्साए किसानों के आंदोलन के बाद देशभर के किसान यूनियन की मांग केवल बकाया कृषि ऋणों की माफ़ी और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुरूप न्यूनतम समर्थन मूल्य में 50 प्रतिशत लाभ शामिल करने तक सिमट गई है।

वैसे इस संकटकाल की स्थिति में विभिन्न किसान यूनियन का एकजुट हो जाना अत्यंत संतोषजनक है लेकिन कभी-कभी मैं सोच में पड़ जाता हूं कि क्या सभी विरोध और आंदोलन मात्र छह प्रतिशत कृषि समुदाय की ओर ही केंद्रित होते हैं। मैं इतने नगण्य प्रतिशत का इसलिए उल्लेख कर रहा हूं क्योंकि शांता कुमार समिति के अनुसार केवल छह प्रतिशत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ प्राप्त होता है। यदि यह सच है तो शेष 94 प्रतिशत किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग और स्वामीनाथन समिति द्वारा अनुशंसित 50 प्रतिशत लाभ का कोई अर्थ नहीं है।

समय आ गया है कि जब किसान, और विशेषकर कि किसान नेताओं की मौजूदा पीढ़ी न्यूनतम समर्थन मूल्य के आगे सोचने का प्रयास करें। आज, जबकि विश्व व्यापार संगठन भारत में न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने के सख्त खिलाफ है और कह रहा है कि ये उस प्रावधान का हनन है कि कोई भी विकासशील देश न्यूनतम समर्थन मूल्य को मुनासिब सीमा से बढ़ा नहीं सकता।

मुझे याद है कि जब उच्च स्तरीय शांता कुमार समिति भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के पुनर्गठन के बारे में विचार विमर्श कर रही थी उस वक़्त मुझे भी अन्य कई विशेषज्ञों/संस्थाओं के साथ इस विषय पर विचार व्यक्त करने के लिए आमंत्रित किया गया था। अपने प्रेजेंटेशन में मैंने समिति को बताया कि चूंकि देश में उत्पादित गेहूं और चावल की मात्र 30 प्रतिशत मात्रा सरकार द्वारा खरीदी जाती है तो हम ये मान सकते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मात्र 30 प्रतिशत किसान ही उठा रहे हैं।

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ये बात सुनकर शांता कुमार आश्चर्यचकित रह गए और बोले कि सामान्यतः यही माना जाता है कि सभी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त हो जाता है।

उन्होंने मुझसे मेरी इस गणना का आधार पूछा। मैंने उनसे कहा कि वास्तविक आंकड़ों के अभाव में ये मात्र मेरा अनुमान है। वास्तव में, चूंकि देश में खरीदी का कार्य एफसीआई की ओर से किया जाता है इसलिए वह संस्था ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ उठा रहे किसानों की सही संख्या बता पाएगी और आखिर में शांता कुमार समिति की गणना के अनुसार केवल छह प्रतिशत किसान ही अपने उत्पाद को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच पाते हैं और इतने कम प्रतिशत में किसानों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्राप्ति भी मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों और शिक्षाविदों को हजम नहीं हो रही है।

कई वर्षों से नीति निर्धारक इतने वर्षों की मेहनत से तैयार की गई खरीदी की व्यवस्था को समाप्त करने के लिए आतुर हैं। उनका तर्क है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य ने राज्य को एकाधिकार प्रदान कर दिया है जिसके कारण किसान बेहतर मूल्य नहीं जुटा पाते हैं। कृषि लागत और मूल्य आयोग जो खरीद की दरों की गणना करती है वही न्यूनतम समर्थन मूल्य की संकल्पना को समाप्त करने के अभियान का नेतृत्व कर रहा है और इस तरह बाज़ारों को कृषि के बिक्री मूल्यों को तय करने की शक्ति दे रहा है।

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अगर बाजार इतने ही सक्षम होते तो किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य और लाभ के 50 प्रतिशत की मांग ही क्यों करता। किसी भी मामले में, बेहतर मूल्य दिलवाने के लिए किसी भी उत्पाद का न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की गारंटी देना ही प्राथमिक आवश्यकता बन जाती है। समझने के लिए, हम पंजाब और बिहार के बीच तुलना करते हैं। पंजाब में मंडियों और गांव की सड़कों का बेहतरीन ताना बाना है।

परिणामस्वरूप, इस वर्ष किसानों के लिए गेहूं के लिए 1625 रुपए प्रति क्विंटल का खरीद मूल्य पाना संभव हो पाया लेकिन बिहार में 2007 से एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी) द्वारा विनियमित मंडियां मौजूद नहीं है। बिहार के किसानों ने भी गेहूं की भरपूर फसल उगाने के लिए कड़ी मेहनत की थी लेकिन एपीएमसी की मंडियां न होने के कारण वे न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त नहीं कर पाए इसलिए अधिकांश किसानों को औने-पौने भाव अपना माल बेचना पड़ा। यहां तक की यूपी में भी जहां मात्र तीन प्रतिशत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल पाता है, अधिकांश बिक्री 1200 से 1500 रुपए प्रति क्विंटल के औने-पौने भाव पर ही की जाती है।

इसलिए सवाल या उठता है की जब किसान 50 प्रतिशत लाभ सहित न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करते हैं तो इतका लाभ भी उन्हीं छह प्रतिशत किसानों को जाता है जो जिनको एपीएमसी की मंडियों की सुविधा प्राप्त है। बचे हुए 94 प्रतिशत किसानों का क्या? क्या वे गरीबी में जीवन बसर करते रहें? क्या वे आत्महत्या के लिए मजबूर होते रहें ?

समय आ गया है कि जब किसान, और विशेषकर कि किसान नेताओं की मौजूदा पीढ़ी न्यूनतम समर्थन मूल्य के आगे सोचने का प्रयास करें। आज, जबकि विश्व व्यापार संगठन भारत में न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने के सख्त खिलाफ है और कह रहा है कि ये उस प्रावधान का हनन है कि कोई भी विकासशील देश न्यूनतम समर्थन मूल्य को मुनासिब सीमा से बढ़ा नहीं सकता। ऐसे में कृषि नेताओं को समझने की ज़रूरत है कि फसलों के लिए मूल्य आधारित सहायता में इजाफा करने में नीतिगत कठिनाइयां हैं और चूंकि सरकार महंगाई कम करने के लिए किसानों को प्रथम पंक्ति के प्यादों के रूप में इस्तेमाल कर रही है तो स्वामीनाथन समिति के प्रतिवेदन के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाए जाने की सम्भावना क्षीण है। यह सरकार सर्वोच्च न्यायालय को बता चुकी है कि वो किसानों को 50 प्रतिशत लाभ नहीं दिलवा सकती है क्योंकि इससे बाजार मूल्यों में विकृति आएगी।

दूसरे शब्दों में कहें तो किसानों को खेती करने का दंड दिया जा रहा है। इस बात को समझने के लिए खरीफ फसलों के लिए घोषित ताज़ा खरीद मूल्यों को देखते हैं। देशभर में हो रहे किसान आंदोलन के बीच खरीद मूल्यों की घोषणा की गई है। न्यूनतम समर्थन मूल्य में 50 प्रतिशत लाभ राशि जोड़ने की बढ़ती मांग को ताक पर रखते हुए खरीफ फसलों के लिए घोषित खरीद मूल्य से बमुश्किल फसलों की लागत भी पूरी हो पाएगी। धान के लिए नया खरीद मूल्य 1550 रुपए प्रति क्विंटल है जो पिछली बार से 80 रुपए प्रति क्विंटल अधिक है। ये पिछले साल के मूल्य से 5.4 प्रतिशत अधिक है। इसी तरह, कपास, मक्का और सूरजमुखी के बीज के लिए मूल्यों की बढ़त 4.4 प्रतिशत से अधिक नहीं है। तुअर , उरद और मूंग जैसी खरीफ फसलों के लिए ये बढ़त 6.7 से 7.8 प्रतिशत है।

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मिंट अखबार द्वारा किए गए एक विश्लेषण अनुसार उत्पादन लागत पर प्रतिशत बढ़त बहुत कम है। अब समस्या ये है कि सरकार अपने बफर स्टॉक के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर दालें खरीदेंगी और बाकी किसानों को बाजार के उतार-चढ़ाव के भरोसे छोड़ देगी। मुझे पिछले वर्ष के समान ही इस वर्ष भी खुली बाजार की कीमतों में भारी गिरावट आने और संकट की स्थिति उत्पन्न हो जाने की आशंका है।

ऐसी स्थिति में जहां महंगाई पर नियंत्रण रखने के लिए इतने वर्षों से न्यूनतम समर्थन मूल्य को जानबूझकर कम रखा गया है और ये देखते हुए कि 94 प्रतिशत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलता है समय आ गया है की कृषि समुदाय को 'कीमत नीति' को छोड़कर आय नीति की ओर बढ़ना चाहिए। ऋण माफ़ी के बाद ऐसी नीतियां शुरू करने की आवश्यकता है जिससे ये सुनिश्चित हो कि किसान दोबारा ऋण के बोझ तले न दब जाए। छोटे-छोटे उपायों से कृषि को संकट से उबारा नहीं जा सकेगा। इसके लिए समग्र दृष्टिकोण, और आर्थिक सोच के परिप्रेक्ष्य में बदलाव लाना होगा। पहले तो खेती को ही आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनाना होगा।

1) कृषि लागत और मूल्य आयोग जो फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है उससे किसानों को दिए जा रहे न्यूनतम समर्थन मूल्य में चार भत्तों का इंतज़ाम करने के लिए कहा जाना चाहिए - गृह भत्ता, चिकित्सीय भत्ता , शिक्षा भत्ता और यात्रा भत्ता। अब तक न्यूनतम समर्थन मूल्य में केवल उत्पादन लागत को ही रखा जाता है। इसकी तुलना सरकारी कर्मचारियों से कीजिए जिन्हें 108 भत्ते मिलते हैं।

2) चूंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य से केवल छह प्रतिशत किसानों का फायदा होता है इसलिए ये समझने की ज़रूरत है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर 50 प्रतिशत लाभ का फायदा भी केवल उन्हीं छह प्रतिशत किसानों को मिलेगा। शेष 94 प्रतिशत किसान जो शोषणकारी बाज़ार पर निर्भर है, उनके लिए राष्ट्रीय किसान आय आयोग गठित करने की आवश्यकता है जिसे एक किसान परिवार को 8000 रुपए प्रति माह न्यूनतम आय सुनिश्चित करने का आदेश हो।

3) एपीएमसी मंडियों और भण्डारण गोदामों के निर्माण के लिए तत्काल रूप से सरकारी निवेश किया जाना चाहिए। इस समय देश में मात्र 7700 एपीएमसी मंडियां हैं। भारत में प्रति पांच किलोमीटर में मंडी उपलब्ध कराने के लिए 42000 मंडियों की आवश्यकता है। ब्राज़ील में बाजार मंडी के लिए किसान द्वारा लाया सारा माल खरीदना आवश्यक है। एपीएमसी मंडियों को भी इसी के लिए तैयार किया जाना चाहिए।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। ट्विटर हैंडल @Devinder_Sharma )

       

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