जिस देश में किसानों की लागत ही निकल रही, वो कैसे अपने आप को किसानों का देश बोल सकता है

गाँव कनेक्शन | Oct 24, 2017, 17:30 IST

रमनदीप सिंह मान

आज, कृषि और किसान पर जो संकट आन पड़ा है उसके सीधे सीधे 2 कारण हैं, पहले किसान को लागत के हिसाब से दाम नहीं मिल रहे और दूसरा किसान की जोत दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। जिस गति से जोत कम हो रही है उस गति से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में नौकरियों का इंतज़ाम भी नहीं हो पा रहा है और इस के चलते आज किसान अपना घर बार छोड़ कर शहर में "देहाड़ी" मज़दूर बनने की राह पर अग्रसर हैं।

कृषि संकट दिन प्रति दिन गहराता जा रहा है। हमारे देश में प्रति दिन 2035 किसान 'मुख्य कृषक' वाली स्थिति खो रहे हैं, यानी प्रतिदिन 2035 किसान कम हो रहे हैं। NSSO के 70 वें दौर के आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर खेती करने वाले घर की औसत मासिक आय सिर्फ 6426 रु है। इस औसत मासिक आय के अंदर, खेती से केवल 47.9% यानी 3078 रुपए प्रति माह आता है, (शेष पशुधन से आता है: 11.9%, वेतन से: 32.2% गैर-कृषि व्यवसाय से: 8%)।

यदि यह राशि प्रति परिवार के दो वयस्कों में विभाजित कर दी जाए है, तो दैनिक मजदूरी 107 रुपए है जो कि भारत के किसी भी राज्य में तय न्यूनतम मजदूरी से काफी कम है। अब आप किसानों की औसत मासिक आमदनी की तुलना चपरासी के मौजूदा वेतन से करें, सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार अब चपरासी का मौजूदा वेतन 18,000 रुपए कर दिया गया है। पिछले 47 वर्षों में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 21 गुना बढ़ा है, जबकि सरकारी कर्मचारियों का मूल वेतन और डीए औसत 120 से 150 गुना बढ़ा है।

बढ़ती इनपुट लागत के कारण किसानों के लाभ मार्जिन में लगातार गिरावट आई है। 2015 में पंजाब राज्य कृषि विभाग ने इनपुट लागत में वृद्धि का अनुमान लगाया था और फिर ये सिफारिश की, कि गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 1950 रुपए प्रति क्विंटल होना चाहिए। पंजाब के मुख्यमंत्री ने कृषि लागत और मूल्य आयोग और केंद्र से अनुरोध भी किया, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ, 2015 में रबी मौसम के लिए गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1525 रुपए ही रखा गया। इस वर्ष भी, राज्य कृषि विभाग ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (सीएसीपी) को 2016-17 में 1,625 रुपए प्रति क्विंटल से 2017-18 में 2,180 रुपए तक बढ़ाने के लिए विस्तृत प्रस्ताव भेजा है। पिछले अनुभव बताते हैं कि यह मांग भी हर बार कि तरह अनसुनी कर दी जाएगी। न्यूनतम समर्थन मूल्य से मतलब उस रेट से है, जो सरकार किसी खाद्यान्न (गेहूं-धान आदि) के बदले किसी किसान को भुगतान की गारंटी देती है।

महिला किसान दिवस 15 अक्टूबर चलिए इस महीने "मूंग" का उदाहरण लेते हैं; कृषि लागत और मूल्य निर्धारण आयोग ने मूंग के उत्पादन की लागत 5700 रुपए/क्विंटल होने की गणना की है, और सरकार ने इस साल 5575/क्विंटल के लिए "मूंग" के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की है। इसका मतलब यह है कि यदि किसान भाग्यशाली रहा और न्यूनतम समर्थन मूल्य से 5575 रूपए/क्विंटल में बेचने का प्रबंध कर पाया , तब भी वह 125 रुपए/क्विंटल के घाटे में रहेगा।

16 अक्टूबर को राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के किसानों ने अपने "मूंग" की फसल को औसत 4,160 रुपए प्रति क्विंटल में बेच दिया। इसी प्रकार किसानों को मजबूर किया जा रहा है कि वो अपनी "मूंग" की फसल को 1415 रुपए प्रति क्विंटल की हानि में बेचें जो कि घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से बहुत कम है। इन किसानों को जो 1415 रुपए प्रति क्विंटल की जो हानि हो रही है उसका भुगतान कौन करेगा। यही हाल उरद का है। "उरद" का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5400 रुपए/क्विंटल है और इसी महीने मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले के किसानों ने "उरद" को 2466 रुपए/क्विंटल में बेच दिया। इसका मतलब यह है कि उरद में किसान 2934 रुपए प्रति क्विंटल खो रहा है। यही हाल गुजरात के पोरबंदर जिले में हैं। किसान सोयाबीन 2710 रुपए/क्विंटल पर बेचने पर मजबूर है जबकि सरकार द्वारा घोषित सोयाबीन का न्यूनतम समर्थन मूल्य है 4450/क्विंटल। यानी की किसान को हर क्विंटल पर 1740 रुपए का शुद्ध घाटा हुआ। फिर वही सवाल खड़ा होता है, की इस घाटे की भरपाई कौन करेगा ?

2016 में लोकसभा के कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह बताया था कि सरकार ने 10,114 रुपए प्रति क्विंटल से तूअर दाल का आयात किया जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,050 रुपए प्रति क्विंटल था। अब एक तरफ, घरेलू किसानों को 5050 रुपए/क्विंटल का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाया, उन्हें 3500-4200 रुपए/क्विंटल में बेचने के लिए मजबूर किया गया और दूसरी तरफ सरकार ने 10,114 रुपए प्रति क्विंटल के दोगुने रेट पर विदेश से दाल आयात कर ली। यह बात समझ में नहीं आई और यह स्पष्ट रूप से नीति निर्माताओं का किसानों के प्रति लापरवाह रवैये को दर्शाता है। विश्लेषकों का मानना है कि पिछले साल 6.6 मिलियन टन दालों को बड़े पैमाने पर आयात किए जाने की कोशिश की गई थी और जबकि हमने 23 मिलियन टन का भरपूर उत्पादन किया था। हमारी घरेलू खपत प्रति वर्ष 22-24 मिलियन टन है।

धान की बेड़ लगाते किसान। किसानों की सामान्य शिकायत यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य उत्पादन लागत की तुलना में कम है और यह विडम्बना है कि किसानों को यह न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है। यह उल्लेखनीय है कि कृषि लागत और मूल्य आयोग के एक पूर्व अध्यक्ष ने कृषि पर एक संसदीय समिति की ओर इशारा करते हुए कहा था कि "फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण करते समय डेटा संग्रह की पद्धतियां सवालों के घेरे में हैं"। एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा यह भी है कि वर्तमान सीजन की फसल के एमएसपी का निर्धारण करते समय कृषि लागत और मूल्य आयोग को प्रदान किए गए आंकड़ें दो से तीन वर्ष पुराने हैं। यानी की इस साल के न्यूनतम समर्थन मूल्य को तीन साल पुरानी लागत पर ही निर्धारित किया जा रहा है, इससे साफ़ है की किसान यहाँ पर भी नुक्सान में है।

खेती को छोड़कर, भारत में कोई अन्य ऐसा व्यवसाय नहीं है, जहां मालिक उन कीमतों पर माल बेचता हो जो कि उसकी विनिर्माण लागत से कम है। अब किसान, जो कृषि के प्राथमिक हिस्सेदार हैं, उनको मूल्य श्रृंखला में बोलने का कोई अधिकार नहीं होता है, इनपुट मूल्यों का निर्णय कॉर्पोरेट्स द्वारा तय किया जाता है और उत्पादन मूल्य सरकार द्वारा तय किया जाता है। जैसा कि जॉन एफ कैनेडी ने एक बार टिप्पणी की थी: "किसान हमारी अर्थव्यवस्था में एकमात्र आदमी है जो खुदरा क्षेत्र में सबकुछ खरीदता है, सब कुछ थोक में बेचता है, और दोनों तरीकों से माल ढुलाई के पैसे खुद भरता है।"

ध्यान देने योग्य बात यह है कि किसानों को फसल की लागत के अनुसार दाम नहीं मिल रहे और इस के चलते वो साल दर साल कर्ज़े में डूबते जा रहे हैं । एक तरफ तो किसान की लागत भी नहीं निकल रही और दूसरी तरफ ये सवाल किया जा रहा है की आखिर किसान कर्ज़ा क्यों लेता है ? अब लाख रुपए का प्रश्न यह है कि किसानों के लिए क्या विकल्प बचता है ? जवाब ये है की जब किसान की लागत ही नहीं निकलेगी तो उसके पास और क्या रास्ता बचता है, सिवाए कर्ज़ा लेने के। इस कुचक्र से बाहर निकलने के दो रास्ते ही हैं, एक तो किसान को फसल की लागत के अनुसार दाम दिलवाए जाएं और दुसरे किसानों की भी मासिक आमदनी सुनिश्चित कराई जाए।

शांता कुमार कमिटी के अनुसार मात्र 6% किसानों की ही फसल खरीद नुय्नतम समर्थन मूल्य पर होती है । यानी की स्वामीनाथन कमिटी लागू होने से सिर्फ 6% किसानों का फायदा होता, पर किसानों के मन में उम्मीद की किरण जगी थी कि वर्तमान सरकार स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करेगी, जो कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने एक चुनावी वादा था। लेकिन अफसोस, मोदी सरकार ने फेरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दे कर साफ़ कर दिया की सरकार स्वामीनाथन रिपोर्ट में प्रस्तावित "किसान को लागत का डेढ़ गुना दाम" नहीं देगी।

indian farmer अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल मनिंदर सिंह ने केंद्र के हलफनामे जमा करते हुए कहा था कि "किसान को लागत पर कम से कम 50% का मुनाफा देने पर बाज़ार में विकृति आ सकती है। इसका मतलब साफ़ है की 14 करोड़ किसानों को उनकी लागत के अनुसार दाम नहीं दिए जाएंगे, क्या ये तर्क न्याय संगत है ? क्या एक भी मंत्री या बाबू 30 दिन काम कर के 20 दिन की तन लेगा ? अगर नहीं, तो फिर किसान को ही क्यों बलि का बकरा बनाया जा रहा है?

सरकार का एजेंडा बहुत स्पष्ट है; वे "मुद्रास्फीति" को नियंत्रित करने के लिए किसान को फसल के कम दाम देना चाहते हैं और वे ऐसा ही करना जारी रखेंगे। इस दावे को हाल ही में एक CRISIL की रिपोर्ट ने पुख्ता किया है, इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि देश में कृषि संकट के पीछे प्रमुख कारण सही आय न देना ही है। "रिपोर्ट में कहा गया है कि 2009 और 2013 के बीच न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में औसत वार्षिक वृद्धि 19.3 प्रतिशत थी, जो कि 2014 से 2017 के बीच केवल 3.6 प्रतिशत थी।

यह बड़े दुख की बात है कि सरकार दोषपूर्ण नीतिगत पहलुओं पर केवल तभी संज्ञान लेती है, जब एक राष्ट्रीय हंगामा होता है। नीति बनाने वालों और जमीनी वास्तविकताओं के बीच का फासला तभी भरा जा सकता है, जब किसान अपने मतों को "एक मुश्त" कर नीति निर्माण और नीति क्रियान्वन का हिस्सा बने।

(लेखक कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं)



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