यहां का हर बुजुर्ग वैज्ञानिक और हर युवा शोधार्थी होता है

डॉ दीपक आचार्य | Jul 22, 2017, 10:09 IST
जंगल
जंगल एक प्रयोगशाला यानि लेबोरेटरी है, मुझ जैसे नौसिखिये वैज्ञानिक के लिए और सदियों से वनों में रह रहे जानकार और बेहद ज्ञानी वनवासियों के लिए। मेरा मानना है कि विज्ञान और ज्ञान के बीच एक बड़ा अंतर है। विज्ञान एक सीमित दायरे में खेलता है और ज्ञान की कोई सीमा नहीं, ये असीमित है और बहस का अच्छा खासा विषय भी। जब बात जंगल लेबोरेटरी की है तो ये बात सबसे पहले जानना जरूरी है कि वनों की संपदा ही वनवासियों के लिए जीवन का सबसे अहम हिस्सा होती है।

सूर्योदय से लेकर देर रात तक, जन्म से लेकर मृत्यु तक, इनके जीवन के हर हिस्से और पड़ाव में वनों का सीधा-सीधा जुड़ाव होता है। अपनी छोटी से छोटी और मूलभूत आवश्यकताओं से लेकर सबसे अहम जरूरतों को पूरा करने के लिए ये लोग वनों पर आश्रित हैं। जंगल में तेज रफ्तार से भागने के लिए हवाई जहाज या मेट्रो नहीं, फटाफट जानकारी टटोल निकालने के लिए गूगल या कोई डेटाबेस नहीं, त्वरित वार्तालाप और सूचनाओं की जानकारी के लिए इंटरनेट, मोबाइल फोन, रेडियो और टी.वी भी नहीं, विटामिन ई से भरपूर शैम्पू नहीं, और तो और नमक वाला टूथपेस्ट भी नहीं। यहां कुछ भी बाहर का नहीं, जो होता है वो स्थानीय और मूलभूत आवश्यताओं पर आधारित होता है। वनों में अपनी आवश्यकताओं के अनुसार वनवासी अपनी जीवनशैली, खान-पान और रहन-सहन में समय-समय पर परिवर्तन भी करते रहते हैं ताकि इनका और इनके परिवार का जीवन सामान्य और खुशहाल तरीकों से निर्वाहित होता रहे, बगैर वनों को नुकसान पहुंचाए।

‘जंगल’ वनवासियों के लिए एक सुसज्जित प्रयोगशाला की तरह है, वन और प्राकृतिक संसाधन किसी प्रयोगशाला के उपकरण की तरह तथा बुजुर्ग वनवासी जानकार किसी वैज्ञानिक की तरह और उनकी नई पीढ़ी शोधार्थियों (रिसर्च स्कॉलर्स) की तरह होती है। वनवासी बुजुर्ग अपने अनुभवों के आधार पर युवाओं को जीना सिखाते हैं, पारंपरिक ज्ञान को साझा करते हैं और “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः” के भाव के आधार पर एक बेहतर समाज सेवक की तरह अपने पूरे समाज को अपनी पारंगतता का लाभ देकर स्वस्थ रहने का हुनर देते हैं।

वनों का जीवन हमारे शहरी जीवन से बिल्कुल अलग है। शहर की आपाधापी और दौड़-भाग से भरी जिन्दगी में हम अपने और अपने परिवार के बुजुर्गों और अन्य सदस्यों के लिए वक्त ही नहीं निकाल पाते। हम कुछ अलग, कुछ नया करने का साहस नहीं जुटा पाते लेकिन वनवासी और ग्रामीण अंचलों में रहने वाले लोग आज भी संयुक्त परिवार में रहते हुए बुजुर्गों की बताई सीख को असल जिंदगी में अमल करते हैं, नवसृजन करने के लिए तत्पर भी रहते हैं, आखिर शहरों की तरह समय और बेवजह भागदौड़ की बंदिशें जंगल में नहीं होती हैं।

जंगलों में ज्यादातर प्रयोग या नवसृजन वनवासियों की वर्तमान आवश्यकताओं पर आधारित होते हैं। अपने शोधकाल के दौर से लेकर आज तक मैंने हिन्दुस्तान के तीन सुदूर वनवासी अंचलों में इन्हीं प्रयोगों, नवसृजनों और जड़ी बूटियों संबंधित ज्ञान को परखा, महसूस किया और लिपिबद्ध करने का प्रयास किया है। पारंपरिक ज्ञान का संकलन कार्य निरंतर जारी भी है ताकि आने वाली पीढ़ी भी इन वनवासियों के ज्ञान को समझ पाए, जंगल लेबोरेटरी को समझ पाए और वो दिन भी आए जब गाँवों और वनों के बाशिंदों को शहरीकरण और आधुनिकता के नाम पर हो रहे अतिक्रमण से बचाने के लिए और भी लोग आगे आएं।

विज्ञान की शुरुआत ही वनांचलों में रहने वाले लोगों के परंपरागत ज्ञान से होती है और सही मायनों में वनवासियों का परंपरागत ज्ञान, आधुनिक विज्ञान से कोसो आगे है। विज्ञान की समझ हमको सिखाती है कि टमाटर एक फल है जबकि परंपरागत ज्ञान बताता है कि टमाटर के फलों को सलाद के तौर पर इस्तेमाल ना किया जाए।

ज्ञान परंपरागत होता है, पुराना होता है जबकि विज्ञान विकास की तरह हर समय नया और अनोखा, फिर भी पिछड़ा हुआ सा, वनवासियों के बीच रहते हुए कम से कम इतना तो सीख पाया हूं। वनवासियों का ज्ञान शब्दों के जरिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक तैरता हुआ आगे बढ़ा चला आ रहा है। जंगल लेबोरेटरी हर दिन एक नयी सीख देती है बशर्ते इस लेबोरेटरी की समझ हो जाए और इसे संजोया जाए..ना कि पर्यटन और विकास के नाम पर इसका शोषण हो जाए।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)

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