‘मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है, क्या मिरे हक़ में फ़ैसला देगा’

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‘मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है, क्या मिरे हक़ में फ़ैसला देगा’ग्राफिक: कार्तिकेय उपाध्याय

  • कश्मीर में एक 8 साल की लड़की का गैंगरेप हुआ, मंदिर में हुआ, हिन्दू ने किया, लड़की के साथ तब तक रेप हुआ, जब तक की वो मर नहीं गयी।
  • बिहार में एक 6 साल की लड़की के साथ रेप हुआ। घरवालों को वो खून से सनी घर से कुछ दूरी पर मिली। रेप एक मुस्लिम लड़के ने किया, लड़की सासाराम सदर अस्पताल में मौत से जूझ रही है।

पढ़िए इन दोनों वाक्यों को और समझिये यहां हर किसी को धर्म से मतलब है, जाति से मतलब है। किसी को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है। हम कौन से गटर में गिर रहे हैं। यहां बच्चियों का बलात्कार हो रहा है, वो मार दी जा रही है और फोकस धर्म पर हो रहा है। हिंदू अपने जाति वाले बलात्कारी को बचाने में जुटे हैं, मुस्लिम अपने वाले को।

मीडिया से लेकर सोशल मीडिया दो वर्गों में बंट चुका है। एक वर्ग कहता है, "अल्पसंख्यकों के लिए अब देश सुरक्षित नहीं रहा।" दूसरा वर्ग कहता है, "हिन्दू अगर अब भी अपने अधिकारों को लेकर सचेत नहीं हुए तो कल को खदेड़ दिए जाएंगे" और इस नफ़रत की आग में देश झुलस रहा है, देश की बच्चियां झुलस रही हैं।

किस से उम्मीद करें कि वो हमें सुरक्षा देगा। कौन सा ऐसा कानून बनाया जाए, जिसके आने के बाद इन मासूमों से लेकर 90 साल की बूढ़ी महिला भी बेफिक्री से जी सके। ऐसा भी नहीं है कि कानून नहीं है मगर कानून के रखवाले ही जब कानून को तोड़ अपनी मनमर्ज़ियां चलाने लगे तो हम कहां जाएं? किससे गुहार लगाएं?

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हर पार्टी दूसरे पार्टी को ब्लेम कर रही है। हर नेता अपने कार्यकाल को स्वर्णिम समय बता रहा है, तो फिर ये ऐसा कौन सा स्वर्णिम दौर है, जहां बेटियां ही सुरक्षित नहीं है। क्यों दिनों-दिन ये बलात्कार के मामले बढ़ ही रहे हैं ?

जब निर्भया कांड हुआ था तो सारा देश एकजुट हो सड़कों पर उतर आया था बलात्कार के खिलाफ। लगा था कि अब सब बदलने वाला है मगर जो आप आंकड़ों पर नज़र डालेंगे तो चौंक जाएंगे।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की 2014 की आंकड़ों की मानें तो देश में हर एक घंटे में 4 रेप की वारदात होती है। यानी हर 14 मिनट में रेप की एक वारदात सामने आती है। यही नहीं 2014 में रेप के कुल 36 हज़ार 975 मामले दर्ज हुए। NCRB के आंकड़ों के मुताबिक, औसतन हर 2 दिन में पुलिस कस्टडी में कम से कम एक रेप की वारदात होती है और हर वर्ष पुलिस कस्टडी में करीब 197 रेप होते हैं।

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हर दो घंटे में कोई न कोई महिला मोलेस्टेशन का शिकार होती है। इतना ही नहीं 6 साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ भी हर 17 घंटे में एक रेप की वारदात को अंजाम दिया जाता है। ये आंकड़े 2014 के हैं, तब से लेकर अब तक इन मामलों में बढ़ोतरी ही हुई है, कमी नहीं।

जबकि निर्भया केस के बाद कानून में काफ़ी बदलाव भी किये गए हैं। देश में 275 फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए गए हैं, जहां जल्द से जल्द पीड़िता को इंसाफ मिल सके, मगर अब भी देश की सिर्फ निचली अदालतों में लगभग 95 हज़ार से ज्यादा महिलाओं को न्याय का इंतज़ार है। हाई-कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की तो रहने ही देते हैं।

तो ऐसे में हम इंसाफ की उम्मीद किससे करें? कौन नेता हमारा मसीहा बनेगा? जब सबको सिर्फ अपनी ही पड़ी है तो हमारी कौन सुनेगा? शायद भारत में बेटियों की यही नियति है। यहां माटी की मूर्तियों को तो प्राण-प्रतिष्ठा देकर पूजा जाता है और ज़िंदा लड़कियों को बलात्कार करने के बाद मौत के घाट उतार दिया जाता है। फिर अपराध को देश-भक्ति, झंडा, भारत माता की जय और बाकि के रंगों से रंग कर राजनीति की जाती है।

अभी सुदर्शन फ़ाकिर साहेब का कहा एक शेर याद आ रहा है कि,

"मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है

क्या मिरे हक़ में फ़ैसला देगा."

शायद ही इस रात की कोई सुबह होगी, उम्मीद के बादल धुंधले पड़ने लगे हैं अब।

(अनु रॉय, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और वह महिला बाल अधिकारों के लिए काम करती हैं)

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