मध्य प्रदेश : स्कीम किसानों के लिए, फायदा व्यापारियों को

Narendra Kumar Singh | Feb 21, 2018, 14:29 IST
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मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पिछले सप्ताह किसानों के लिए सौगातों की झड़ी लगा दी। सरकार गेहूं और धान की खरीद पर 200 रुपया बोनस देगी, न केवल इस साल बल्कि पिछले साल की गई खरीदी पर भी।

बाजार में अनाज की कम कीमत मिलने पर किसानों के घाटे की भरपाई के लिए राज्य में भावान्तर योजना बनी है। उसे और फायदेमंद बनाते हुए सरकार अब किसानों को चार महीने का गोदाम किराया भी देगी। प्रदेश के 17.50 लाख डिफाल्टर किसानों के बकाया ब्याज का 2600 करोड़ रुपया भी सरकार चुकाएगी। शिवराज की 23 घोषणाओं से सरकारी खजाने पर लगभग 10,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ आएगा। यह राज्य के कृषि-बजट का लगभग एक-तिहाई।

सरकार के आलोचक इसे मध्य प्रदेश में इस साल के अंत में होने वाले चुनावों से जोड़कर देख रहे हैं। बेहतर कीमत के लिए आन्दोलन कर रहे किसानों पर पिछले साल मंदसौर में पुलिस फायरिंग के बाद से ही के राजनीतिक माहौल सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ है। अपने-आप को किसानों के नेता के रूप में देखने वाले चौहान ने उन्हें अपने पाले में बनाये रखने के लिए खजाने का मुंह खोल दिया है। पर दस हज़ार करोड़ की ये घोषणाएं मध्य प्रदेश सरकार की नाकामयाबी की कहानी भी कहते हैं।

अपने-आप को किसानों के नेता के रूप में देखने वाले चौहान ने उन्हें अपने पाले में बनाये रखने के लिए खजाने का मुंह खोल दिया है। पर दस हज़ार करोड़ की ये घोषणाएं मध्य प्रदेश सरकार की नाकामयाबी की कहानी भी कहते हैं।


ओलावृष्टि से प्रभावित किसानों के साथ शिवराज सिंह चौहान। फोटो- साभार सीएम ट्विटर बारह सालों से लगातार सत्ता पर काबिज शिवराज ने खेती को लाभ का धंधा बनाने का और किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वायदा किया था। भाजपा उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर किसान नेता के रूप में प्रोजेक्ट करती है। नरेन्द्र मोदी की सरकार खेती-किसानी की जो भी पालिसी बनाती है, उसमें उनकी प्रमुख भागीदारी रहती है। किसानों की हालत सुधारने में अपनी कामयाबी के लिए चौहान अक्सर अपनी पीठ खुद थपथपाते रहते हैं। इसके बावजूद सरकार को किसानों की हालत ठीक करने के लिए ऐसी भारी-भरकम योजना लानी पड़ी। यह इस बात की स्वीकरोक्ति है कि 12 सालों की किसान-हितैषी नीतियों के बाद भी प्रदेश की खेती गंभीर संकट से जूझ रही है।

कर्जमाफी की मांग को लेकर कई किसान संगठन कर रहे हैं आंदोलन। इसमें कोई शक नहीं कि शिवराज सिंह के राज में खेती पर काफी ध्यान दिया गया है और उसके अच्छे नतीजे भी देखने को मिल रहे हैं। उनके राज में मध्य प्रदेश में कृषि विकास दर 9.7 प्रतिशत रही है, राष्ट्रीय औसत का लगभग तीन गुना। बेहतरीन उत्पादन के लिए राज्य को लगातार पांच साल कृषि कर्मण अवार्ड मिला है। खासकर पिछले चार सालों में खेती की 18 प्रतिशत औसत विकास दर दांतों तले ऊँगली दबाने पर विवश करती है। प्रतिष्ठित आर्थिक पत्रकार टीएन नैनन लिखते हैं, “मौजूदा आर्थिक आंकड़ों में सबसे ज्यादा विस्मयकारी है मध्य प्रदेश की कृषि विकास दर, जिसे देखकर किसी का भी मुंह खुला का खुला रह जायेगा।”

विडम्बना यह है कि उत्पादन बढ़ने से फायदा होने की बजाय किसान नुकसान में आ गए हैं। ज्यादा आवक का फायदा उठाकर व्यापारी जींस की कीमत मंडी में कृत्रिम रूप से गिरा देते हैं। मंडी पर व्यापारियों का कब्ज़ा है। दूसरी तरफ परंपरागत खेती की लागत बढ़ते जा रही है। आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश में हर पांचवे घंटे एक किसान ख़ुदकुशी करता है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के मुताबिक मध्य प्रदेश के आधे किसान कर्जे में डूबे हैं।

अभी तक की गई सरकारी कोशिशों का फायदा न तो किसान उठा पा रहे हैं न ही उपभोक्ता। सरकारी मदद और सब्सिडी का फायदा व्यापारी ले जा रहे हैं। उनकी मुनाफाखोरी रोकने की राजनीतिक इच्छा-शक्ति की कमी है। इसका एक उदाहरण मध्य प्रदेश की बहु प्रचारित भावान्तर भुगतान योजना है। इसके तहत अगर किसी फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत बाज़ार में मिले तो किसानों को उस घाटे की भरपाई सरकार करती है।

देखने में स्कीम अच्छी लगती है, पर इसमें एक बड़ा पेंच है। पर औसत बाज़ार मूल्य क्या है, इसका निर्धारण सरकार करती है। यह “औसत मूल्य” एक रहस्यमय फार्मूला पर आधारित है, जिसे समझने के लिए चार्टर्ड अकाउंटेंट की फौज चाहिए। इसका फायदा व्यापारी उठाते हैं। जैसे ही किसान मंडी में माल लाने लगते है, व्यापारी कार्टेल बनाकर कीमत गिरा देते हैं। अमूनन किसानों को सरकारी “औसत बाज़ार मूल्य” से भी कम कीमत मिलती है और भावान्तर में भुगतान मिलने के बावजूद उन्हें घाटा सहना पड़ता है।

कृषि लागत और मूल्य आयोग के पूर्व अध्यक्ष अशोक गुलाटी देश के जाने-माने कृषि अर्थशास्त्री हैं। भावान्तर योजना के बारे में हाल में उनका एक अध्ययन छपा है। उनके मुताबिक “इस योजना का फायदा किसानों से ज्यादा व्यापारियों को हुआ है।


कृषि लागत और मूल्य आयोग के पूर्व अध्यक्ष अशोक गुलाटी देश के जाने-माने कृषि अर्थशास्त्री हैं। भावान्तर योजना के बारे में हाल में उनका एक अध्ययन छपा है। उनके मुताबिक “इस योजना का फायदा किसानों से ज्यादा व्यापारियों को हुआ है।” वे लिखते हैं, “मध्य प्रदेश का प्रयोग दिखाता है कि व्यापारी बाज़ार में उतार-चढाव करवाते हैं।” इस अध्ययन के मुताबिक पिछले साल अक्टूबर-दिसम्बर के दौरान 68 प्रतिशत उड़द बिना भावान्तर के फायदे के बिकी जबकि उसके न्यूनतम समर्थन मूल्य से बाज़ार मूल्य 42 प्रतिशत तक कम था। सोयाबीन मध्य प्रदेश की प्रमुख फसल है। पर प्रदेश का 82 प्रतिशत।

व्यापारियों ने यह माल सस्ते में खरीद कर इकठ्ठा किया और भावान्तर खरीदी के ख़त्म होते ही झटपट उसका दाम बढ़ा दिया। पिछले दिसंबर तक जो सोयाबीन 2380 से 2580 प्रति क्विंटल के भाव बिक रहा था, एक महीने बाद उसकी कीमत एक हज़ार रूपये क्विंटल तक बढ़ गयी। महीने भर में 40 प्रतिशत मुनाफा। भावान्तर योजना के तहत दूसरे अनाजों के साथ भी यही हुआ। स्कीम ख़त्म होने के एक सप्ताह बाद ही भावों में रहस्यमय तरीके से 150 से 500 रूपये प्रति क्विंटल का उछाल आ गया। अध्ययन के मुताबिक जो किसान भावान्तर में रजिस्टर नहीं हैं, उन्हें तो और भी ज्यादा घाटा हुआ क्योंकि बाज़ार में उन्हें जो वास्तविक कीमत मिली वह सरकारी “औसत बाज़ार मूल्य” से कम है। नतीजा: “अक्टूबर-दिसम्बर 2017 के सीजन में भावान्तर योजना के तहत 5 जिंसो की खरीदी में किसानों को कुल 6534 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।”

सरकारें लगता है कभी सीखती नहीं हैं। 2016 में प्याज़ खरीदी के दौरान सरकार ने किसानों से 8 रुपये किलो की कीमत से प्याज ख़रीदा, फिर उसे 2.50 रुपये की दर से व्यापारियों को बेचा। बाज़ार में वही प्याज उपभोक्ताओं को 13 रुपये किलो की दर से मिल रहा था। बिचौलियों को 500 प्रतिशत मुनाफा हुआ। अभी पिछले सप्ताह ही राज्य कैबिनेट ने इस खरीद में हुए 100 करोड़ रुपये का घाटा उठाने की स्वीकृति दी।

इस वर्ष शिवराज सिंह चौहान की अग्नि परीक्षा। अगर सरकार को किसानों को सब्सिडी देनी ही है, तो क्या उन्हें डायरेक्ट पैसा देना ज्यादा मुनासिब नहीं होगा? गुलाटी के मुताबिक इस मामले में तेलंगाना में हाल में लागू की गयी योजना ज्यादा बेहतर है। उसके तहत हर किसान को चार हज़ार रूपये प्रति एकड़ की दर से पैसा दिया जा रहा है जो वे खरीफ और रबी की बुवाई पर खर्च कर सकते हैं। भावान्तर के विपरीत इसमें खेत या फसल रजिस्टर कराने की जरूरत नहीं। किसान जो चाहे उगाएं और जहाँ चाहे बेचें, खरीद की कोई स्कीम नहीं और बाज़ार बिगड़ने का कोई खतरा नहीं। सबसे बड़ी बात तो यह कि व्यापारी के स्टॉक की सीमा तय कर उनकी मुनाफाखोरी पर लगाम कसी जा सकती है और आम उपभोक्ता के हितों का संरक्षण किया जा सकता है।

लेखक- इंडियन एक्सप्रेस और हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट एडिटर रह चुके हैं और मध्यप्रदेश की राजनीतिक नब्ज पहचानते हैं। ये उनके अपने निजी विचार है। @nksexpress

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