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क्या कानून बना देने भर से रुक जाएंगी ये गुड्डे-गुड़ियों सरीख़ी, नाबालिगों की शादियां

गाँव कनेक्शन | Apr 18, 2018, 15:21 IST
child marriage
"माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः

न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा॥"

ऊपर लिखे श्लोक को हम में कई लोगों ने पढ़ा और सुना होगा। इसमें कहा गया है कि वो मां-बाप अपने ही बच्चों के लिए दुश्मन सरीख़े हो जाते हैं, जो अपने बच्चों को पढ़ाते-लिखाते नहीं हैं। कहीं भी यह नहीं लिखा गया है कि, "जो मां-बाप अपने बच्चों की शादियां नहीं करवाते, वो उनके शत्रु हैं।"

लेकिन अभी भी बहुत से ऐसे मां-बाप हैं, जिनको यही लगता कि अगर उन्होंने अपने बच्चों की जल्द से जल्द शादी नहीं करवाई तो शायद वो अपने ही बच्चों के दुश्मन बन बैठेंगे। नहीं, ये कोई अतिश्योक्ति वाली बात नहीं है। आज भी भारत विश्व का दूसरा ऐसा देश है, जहां 'बाल-विवाह' धड़ल्ले से हो रहा है। यूनिसेफ के द्वारा जारी किए गए आंकड़ों की मानें तो भारत में 49% लड़कियों की शादी 18 साल से पहले कर दी जाती है और भारत में भी बिहार में सबसे अधिक 68% बाल विवाह होते हैं। इसके बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश आते हैं।

वैसे तो बाल-विवाह की जड़ में कई समस्याएं हैं, जैसे गरीबी, अशिक्षा, धार्मिक मान्यताएं, रीति-रिवाज़ मगर जो सबसे बड़ी समस्या है, वो सोच की समस्या है। अभी भी हमारे यहां शादियों को ज़िंदगी का सबसे बड़ा काम माना जाता है। मतलब कि शादी न हुई तो पैदा होना और बच्चे पैदा करना दोनों व्यर्थ हो गया। शादी हो जाना निर्वाण को प्राप्त कर लेने जैसा है।

मानती हूं कि गरीब मां-बाप के लिए मुश्किल है बच्चों को पढ़ाना, खासकर बेटियों को, क्योंकि एक तो उनके पढ़ाई-लिखाई पर ख़र्च करो, फिर दहेज़ देकर शादी भी करो। इतना पैसा बेचारे गरीब मां-बाप लाएं तो कहां से लाएं। इस चक्कर में पढ़ाई को हाशिये पर रख शादी को मां-बाप वरीयता दे देते हैं।

कहीं और की बात नहीं, बिहार की बात करते हैं। वहां नीतीश सरकार ने बाल विवाह रोकने के लिए कई नए कानून लाएं… जैसे, बाल विवाह के दोषियों को थाने से जमानत नहीं मिल पाएगी। सजा की अवधि वर्तमान के दो साल से बढ़ाकर सात साल किया जा रहा है। इसके अलावा मैरिज-हॉल की बुकिंग से लेकर, हलवाई, केटरर, पंडित, समाज के मुखिया, बैंड वाला यहां तक घोड़े वाले को भी आयु-प्रमाण पत्र दिखाना पड़ेगा और जिन्होंने आयु प्रमाण-पत्र देखे बिना सुविधाएं दी, उनको दो साल तक जेल की हवा खानी पड़ेगी।

अब सोचने वाली बात यह है कि क्या बाल-विवाह रोकने के लिए पहले से कानून नहीं थे? तो बताते चलें कि बाल विवाह पर रोक संबंधी कानून सबसे पहले वर्ष 1929 में पारित किया गया था। बाद में वर्ष 1949, 1978 और 2006 में इसमें संशोधन किये गये। 1929 के बाल विवाह निषेध अधिनियम को निरस्त करके केंद्र सरकार 2006 में अधिक प्रगतिशील बाल विवाह निषेध को पारित किया। मगर क्या उससे बाल-विवाह रुक गया?

रुका तो नहीं… हां, थोड़ी कमी जरूर आई, मगर वहां कानून से ज़्यादा शिक्षा और जागरुकता ने अपना असर दिखाया है। शिक्षा से ही सोच बदली जा सकती है। एक ऐसे समाज का निर्माण हो सकता है, जहां बच्चों को उनका पूरा बचपन जीने को मिलेगा।

आज भी बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान के कई गांव में तो हाई स्कूल हैं ही नहीं। ऐसे में बेटियों को दूसरे गांव में भेजना मां-बाप को मुश्किल काम लगता है। उन्हें इस बात का डर रहता है कि कहीं दूसरे गांव में जाते हुए कुछ ऊंच-नीच हो गया, तो उनकी बेटियों की शादी नहीं हो पाएगी और इस बात कर डर इतना बड़ा होता है कि वो प्राथमिक-स्कूल के बाद अपनी बेटियों को स्कूल भेजना बंद कर देते हैं।

उनको लगता है जितना पढ़ना था, पढ़ लिया है, अब शादी करवा दो। अपने घर जाकर रहेंगी, हमारी जिम्मेदारी भी पूरी हो जाएगी और ये भी जल्दी ही घर संभालना सीख जाएंगी। यहाँ भी समस्या सोच की है।

इसके बाद कुछ ऐसे भी मां-बाप हैं, जो दहेज़ के लिए अपनी जमीन बेच कर बच्चियों की शादी तो करवा सकते हैं, मगर उन्हीं पैसों से उनको ऊंची शिक्षा दिलवाने का नहीं सोच सकते। उन्हें लगता है कि लड़की जितना पढ़ लेगी, उससे कहीं ज्यादा पढ़ा-लिखा वर ढ़ूंढना होगा। ज्यादा पढ़ा-लिखा वर यानि ज्यादा दहेज़। अब बेटियों को पढ़ाने पर भी खर्च करो और फिर दहेज़ के लिए भी पैसे जुटाओ, ये उनके लिए दुश्वार सा लगता है।

वो ये नहीं सोच पाते कि अगर बेटियां पढ़ लेंगी, अपने पैरों पर खड़ी हो जाएंगी, आत्मनिर्भर रहेंगी तो उन्हें दहेज़ नहीं देना पड़ेगा। लड़कियां खुद नकार देंगी ऐसे रिश्तों को, जो दहेज़ की बेदी पर बंधेगा। अब आप इसे सोच की समस्या ही कहेंगे न? तो ऐसे में ये नए क़ानून कितने कारगर साबित होंगे ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा। वैसे क़दम स्वागत-योग्य है, मगर हकीकत की जमीन कुछ और ही है।

आज भी शादियां वैसी बच्चियों की हो रही हैं, जिनकी उम्र सिर्फ 16-17 साल है। उनके मां-बाप से कहा कि मत कीजिये इनकी शादी, इनको और पढ़ाइये तो उनका जवाब आया… "कोई एक बेटी थोड़े है बउआ है और तीन है न, कहां से सबको पढ़ाएंगे-लिखाएंगे, इतना महंगाई है, एगो का शादी करेंगे तब न बाकि सब का होगा, जितना जल्दी निम्ह (निर्वाह) जाएगी उतना ही अच्छा होगा, दिन-जमाना बहुत ख़राब है।"

ये भी एक सच्चाई है हमारे उभरते भारत की। हां, ये और बात है कि हम उन सच्चाई से खुद को रूबरू ही नहीं करवाना चाहते जो इतनी कड़वी हो।

(अनु रॉय, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और वह महिला बाल अधिकारों के लिए काम करती हैं)

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