खेत-खलिहान : क्या जीएम फसलों से होगी हमारी खाद्य सुरक्षा ?

Arvind Kumar SinghArvind Kumar Singh   8 Aug 2017 1:12 PM GMT

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खेत-खलिहान : क्या जीएम फसलों से होगी हमारी खाद्य सुरक्षा ?जीएम सरसों पर मची रार 

जीएम खाद्य फसलों को लेकर हाल के वर्षों में चले भारी विरोध और समर्थन के बीच फिर से एक नयी हलचल आरंभ हो गई है। भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में सूचित किया कि वह डेढ़ महीने के भीतर जीएम सरसों के व्यावसायिक खेती के लिए अनुमति देने के बारे में फैसला लेगा।

फैसला जीएम सरसों के पक्ष में होगा तो सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई करेगा। बीते साल जीएम सरसों के व्यावसायिक उपयोग पर अगले आदेश तक सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी। सरसों की बुआई अक्टूबर महीने में आरंभ होती है लिहाजा सरकार इस मसले के पक्ष में भी फैसला लेती है तो इस साल इसे जमीन पर उतार पाना आसान नहीं होगा। इसके भारी विरोध की भी आशंका है।

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हालांकि जीएम सरसों को लेकर बीते कई वर्षों से भारत के तमाम दिग्गज कृषि वैज्ञानिक पैरोकारी कर रहे हैं। दावा है कि जीएम सरसों की पैदावार 20 से 25 फीसदी अधिक बढ़ जाएगी और तेल की गुणवत्ता बेहतर होगी। सालाना हमारे 60 हज़ार करोड़ रुपए के खाद्य तेल के आयात में इससे कमी आएगी लेकिन यह बात ध्यान रखने की है कि सरसों से हमारा तिलहन संकट नहीं समाप्त होगा। भारत विश्व के तिलहन उत्पादन में करीब 10 फीसदी का योगदान देता है।

हमारे यहां एक जनवरी, 2013 से आयात के साथ ही घरेलू कंपनियों द्वारा पैक या फिर तैयार किए गए सभी तरह के जीएम फूड के पैकेटों खाद्य पदार्थ की पूरी जानकारी देना अनिवार्य हो गया है। फिर भी विदेशों से आयातित कई जीएम खाद्य पदार्थ बिक रहे हैं।

हमारा अधिकतर तिलहन उत्पादन वर्षा सिंचित इलाकों में होता है। वाजिब दाम न मिलना और कीट व्याधियों जैसे तमाम कारणों से सिंचित इलाकों में तिलहनी फसलों के प्रति किसानों में खास उत्साह नहीं रहता है। देश की प्रमुख तिलहनी फसलों में सरसों, मूंगफली, तिल, सोयाबीन, सूरजमुखी, कुसुम, रामतिल, अरंड और अलसी आती हैं।

सरसों कुल खाद्य तेलों में 28.6 फीसदी का योगदान करता है। हमारी खाद्य तेलों की घरेलू खपत 190 लाख टन के करीब है जिसका 50 से 60 फीसदी हिस्सा आयात से पूरा होता है लेकिन आयातित खाद्य तेलों में पाम ऑयल सबसे प्रमुख है, सरसों नहीं। यह सही है कि उत्तर भारत में तिलहनी फसलों में सरसों खास है जिसकी विश्व उत्पादकता 1950 किग्रा प्रति हेक्टेयर है, जबकि भारत में 1185 किग्रा है। 2014-15 से सरकार ने देश में तिलहन उत्पादकता बढ़ाने को राष्ट्रीय तिलहन और ऑयल पाम मिशन भी आरंभ किया है और कई दूसरे कदम भी उठाए हैं।

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2010 में जयराम नरेश ने लगाई थी जीएम फसलों पर रोक

जीएम खाद्य फसलों को लेकर गंभीर विवाद यूपीए-2 शासन के आखिरी दौर में आरंभ हुआ। तब तमाम विवादों के बावजूद उन 10 खाद्य फसलों गेहूं, धान, कपास, ज्वार, बाजरा और मक्का आदि के परीक्षण की मंजूरी दे दी गई जिस पर 2010 में तत्कालीन पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश ने रोक लगाई थी। बाद में वीरप्पा मोइली ने अलग लाइन ले ली लेकिन विरोध के नाते आगे रफ्तार धीमी रही। हालांकि 2013 के आरंभ में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भारतीय विज्ञान कांग्रेस को संबोधित करते हुए इसकी वकालत की और कहा था कि जीएम फसलों पर अवैज्ञानिक पूर्वाग्रहों के सामने सरकार अब और झुक नहीं सकती।

हालांकि इस मसले पर 2010 में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने बीटी बैंगन की पैरवी करते हुए ठोस नीति की वकालत की थी। परिषद ने बीटी फसलों और इसके पर्यावरण और खाद्य सुरक्षा से जुड़े मसले को लेकर एक नियामक ढांचा बनाने की बात कही थी ताकि परिणामों को कम से कम समय में सार्वजनिक किया जा सके।

भारत में जीएम फसलों का नियमन केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय के हाथ है लेकिन 2011 में जीएम फसलों की प्रायोगिक खेती के बारे में राज्य सरकारों की अनुमति लेना अनिवार्य होने के बाद तस्वीर बदल चुकी है। भारत में एकमात्र जीएम फसल बीटी कपास है, जिसे 2002 में अनुमति दी गई। इसकी खेती 10 राज्यों में हो रही है। इस समय देश में 1462 कपास संकर के बीजों के वितरण का काम 61 बीज कंपनियां कर रही हैं।

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कपास की उत्पादकता 2002-03 में 191 किग्रा प्रति हेक्टेयर से बढ़ कर 2016-17 में 513 किग्रा प्रति हेक्टेयर हो गई है। कपास उत्पादन भी इसी अवधि में 82.21 लाख गांठ से बढ़ कर 325.76 लाख गांठ तक पहुंच गई है। आज 80 फीसदी से अधिक कपास क्षेत्र में बीटी कपास उगाया जा रहा है लेकिन इसका सबसे अधिक फायदा बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियां उठा रही हैं।

अकेले मोनसेंटो ने 2008 तक केवल रायल्टी से 10,000 करोड़ रु की कमाई की। मोनसेंटो और महिको यहां 1996 से बीटी कपास के विकास में लगी थी। कपास में ऐसा जीन प्रतिरोपित किया गया जिसमें कीट प्रकोप को रोकने की क्षमता थी। 2002 में 450 ग्राम के 1.05 लाख पैकेट बीटी कपास से एक नयी क्रांति की शुरुआत हुई।

भले ही बीटी कपास अखाद्य फसल थी लेकिन इसे लेकर भी कई आशंकाएं थीं। विरोधियों का तर्क था कि यह भारत जैसी उष्ण कटिबंधीय जलवायु लायक नहीं है लेकिन पैरोकारों का दावा था कि इससे बालवार्म से निजात मिलेगी और यह सफेद सोना साबित होगी। बीटी बीज सामान्य बीजों से 200 गुना तक महंगे थे। महिको-मोनसेंटो ने 450 ग्राम के बीज का एक पैकेट 1800 रुपए में बेचना आरंभ किया तो मसला एमआरटीपी तक पहुंचा। बाद में दाम 750 से 925 रुपए के बीच आया। अभी भी तमाम इलाकों में मनमाने दरों पर बीज बिक रहे हैं।

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फिर भी बीटी कपास को सफलता की बड़ी कहानी माना जाता है जिसके नाते भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपास निर्यातक बना। हम दुनिया की 22 फीसदी कपास पैदा कर रहे हैं। बीटी कपास ने एकाधिकार जमाते हुए हमारी कपास की सैकड़ों परंपरागत देशी प्रजातियां समाप्त कर दी।

बीटी कपास के आने के पहले हमारे कृषि वैज्ञानिकों ने 250 किस्में विकसित की थीं वो भी लापता हो गईं। बीटी कपास के नकली बीजों ने भी कई जगहों पर किसानों को बर्बाद किया। कपास इलाकों में किसानों की आत्महत्याएं और कर्ज के दलदल में फंसने की कहानियां अलग हैं। इसी नाते बीटी जींस के परीक्षण का काम केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान नागपुर को सौंपा गया।

वास्तव में बीटी कपास की लोकप्रियता की बड़ी वजह कीटनाशकों पर नियंत्रण था। कपास को 166 से ज्यादा कीट व्याधियां नुकसान पहुंचाती थीं, जिसमें अमेरिकी बालवार्म ने तबाही मचा रखी थी। इनसे सालाना 30 से 60 फीसदी तक फसल हानि होती थी। उस पर रोक तो लगी लेकिन आज कपास क्षेत्र में मिट्टी के पोषक तत्वों में भारी कमी आ रही है। कीटों की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ी है। बीटी कपास भले गैर खाद्य फसल है लेकिन उसके कुप्रभाव हमारी खाद्य श्रृंखला तक में पड़ते दिख रहे हैं। जैसे इसकी खली दुधारू पशु को खिलाने पर दूध पीने वालों पर असर होता ही है, वहीं कपास के बीजों के तेल का खाने के बुरे असर की बातें भी आई हैं। कपास इलाकों में किसानों की आत्महत्याएं और कर्ज के दलदल में फंसने की कहानियां अलग हैं।

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इन सारे पहलुओं के आलोक में कई आशंकाएं खड़ा होना स्वाभाविक हैं। हालांकि जीएम फसलों के विरोधियों और पैरोकारों दोनों के पास बहुत से तथ्यों के पुख्ता प्रमाण नहीं है। फिर भी पहली बार 1996 में जब जीएम फसल के लिए भारत में दरवाजे खुले उसके पहले 25 देशों में इनका इस्तेमाल हो रहा था। अब देश में चावल, आलू, टमाटर, मक्का, मूंगफली, गोभी के साथ 56 जीएम फसलों के लिए राह तलाशने की कोशिशें जारी हैं जिसमें से 41 खाद्य फसलें हैं।

जब जीएम के दावे पूरी तरह गलत साबित हो चुके हैं तो सरकार क्यों दे रही है इसे बढ़ावा ?

कपास की उत्पादकता 2002-03 में 191 किग्रा प्रति हेक्टेयर से बढ़ कर 2016-17 में 513 किग्रा प्रति हेक्टेयर हो गई है। कपास उत्पादन भी इसी अवधि में 82.21 लाख गांठ से बढ़ कर 325.76 लाख गांठ तक पहुंच गई है।

मल्टीनेशनल कंपनियां उठा रहीं फायदा

जीएम फसलों में गुणसूत्र या डीएनए में उपस्थित जींस में परिवर्तन किया जाता है। डीएनए टेक्नोलॉजी परमाणु ऊर्जा या सुपरकंप्यूटर की कड़ी का ही हिस्सा है। प्राकृतिक तौर पर विभिन्न जीन के काम अलग-अलग बंटे हैं। बीटी बैक्टीरिया में एक जीन खास किस्म के लार्वा के खिलाफ काम करता है और कीटाणु इन फसलों को खाने पर मर जाते हैं। जीन अंतरण बहुत महंगी प्रक्रिया है। दुनिया में उपलब्ध 35 बीटी जीन में 18 का उपयोग किया जा सकता है। सबसे पहले मोनसेंटों ने बोलगार्ड में इसका उपयोग किया था।

बाद में काफी विकास हुआ है और कई खाद्य फसलों पर काम चल रहा है। खुद भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और कृषि विश्वविद्यालय देश में अनाज, तिलहन, दलहन, और कपास की 22 जीएम फसलों पर अनुसंधान कर रहे हैं। 1985 में पूसा में जैव प्रौद्योगिकी केंद्र स्थापित होने के बाद चावल की सीक्वेंसिंग, टमाटर और आलू तथा अरहर जीनोम के साथ कई दिशाओं में काम हुआ है।

डॉ.एम.एस. स्वामिनाथन की अध्यक्षता में 2004 में जैव प्रौद्योगिकी के प्रयोग संबंधी कार्यदल ने स्वीकारा था कि इसके प्रयोग से खाद्य उत्पादन दोगुना हो सकता है और पर्याप्त पौष्टिकता सुनिश्चित करते हुए छोटे किसानों की गरीबी मिटायी जा सकती है लेकिन कार्यदल ने बासमती चावल, दार्जिलिंग चाय और सोयाबीन जैसी फसलों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करने की वकालत की थी।

वैसे तो दुनिया भर में 1996 के बाद से जीएम फसलों की खेती में सौ गुना इजाफा हुआ है। उस समय जहां 17 लाख हेक्टेयर में इनकी खेती होती थी वह आज 27 देशों में 17.5 करोड़ हेक्टेयर में पहुंच गयी है। अमेरिका इसमें अग्रणी है और मक्का, सोयाबीन और कपास से लेकर पपीता जैसी कई फसलों में जीएम का बोलबाला है।

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चीन ने भी इस दिशा में काफी काम किया है लेकिन जीएम तकनीक में वह निजी क्षेत्र पर आश्रित होने की जगह सार्वजनिक क्षेत्र को आगे रख कर चल रहा है। वही भारत में उलटा हो रहा है। हालांकि हमारे यहां एक जनवरी, 2013 से आयात के साथ ही घरेलू कंपनियों द्वारा पैक या फिर तैयार किए गए सभी तरह के जीएम फूड के पैकेटों खाद्य पदार्थ की पूरी जानकारी देना अनिवार्य हो गया है। फिर भी विदेशों से आयातित कई जीएम खाद्य पदार्थ बिक रहे हैं। भारत में जीएम फूड्स से मानव स्वास्थ्य को होने वाली हानि के आंकलन और नियमन के लिए कोई कानूनी ढांचा नहीं है।

इस मामले को लेकर संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति ने 2013-14 में गहन जांच पड़ताल की थी। करीब 61 घंटे मंथन के साथ समिति ने 27 बैठकें की और इस क्षेत्र के तमाम दिग्गजों को तलब किया। इसमें यह बात उभर कर सामने आयी कि जीएम खाद्य फसलों से मानव और पशु स्वास्थ्य के प्रभावित होने के साथ दूसरी फसलों पर भी असर पड़ सकता है। लेकिन भारत में वैज्ञानिकों में दो धाराएं काम कर रही हैं। एक धारा का मानना है कि कुछ लोगों ने बेजा डर बिठा दिया है जिस कारण खेती-बाड़ी को भारी नुकसान हो रहा है। नेशनल एकेडमी आफ एग्रीकल्चरल साइंसेज की राय है कि चंद आशंकाओं की आड़ में हमारे अनुसंधान का गला नहीं घोंटा जा सकता है। यह सही है कि खेती में बायोटेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से उपज बढ़ी है लेकिन कई वैज्ञानिक इसका हल साधारण प्लांट ब्रीडिंग है लेकिन हमारा जोर हाइब्रिड बीटी पर अधिक है।

हालांकि सरकार का दावा है कि इस मामले में सभी जरूरी कदम उठाए जा रहे हैं। ऐसे मामलों में जैव सुरक्षा समितियां पूरी पड़ताल करती हैं। रिव्यू कमेटी आन जेनेटिक मैन्युपलेशन यानि आरसीजीएम और जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रैजल कमेटी या जीईएसी काफी कड़े मूल्यांकन के बाद अनुमति देती है। दोनों समितियां पर्यावरण और वन मंत्रालय के अधीनहैं। 31 जुलाई 2017 को राज्य सभा में केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री वाई एस चौधरी ने कहा कि अगर मनुष्यों और पशुओं के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए कोई खतरा लगता है तो उस जीएम फसल की खेती की अनुमति नहीं दी जाती है।

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लेकिन इस पूरे मामले में भारतीय किसानों के बीज पर हक की तरफ भी देखना चाहिए। हमारे अधिकतर किसान बीज के लिए पिछली फसल का कुछ हिस्सा बचाकर काम चलाते हैं। लेकिन जीएम फसलों के विशेष बीज महंगे होने के नाते ये आम किसानों की पहुंच से दूर हैं। दोबारा इनका उपयोग करना संभव नहीं है। वैसे भी भारतीय बीज कारोबार का 75 फीसदी हिस्सा निजी क्षेत्र के कब्जे में आ गया है और सार्वजनिक बीज कारोबार डगमगा रहा है। पिछले दो दशकों में बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों की पकड़ बहुत मजबूत हुई है। भारतीय वैज्ञानिकों की दशकों की मेहनत के बाद जो व्यवस्थित बीज तंत्र खड़ा हुआ था वह लड़खड़ा रहा है। पौध किस्मों के संरक्षण के कानून के तहत 2001 में राष्ट्रीय जीन बैंक जरूर बना है लेकिन तमाम खतरे सामने हैं। देश में इस समय प्रमाणित और गुणवत्ता वाले बीजों की जरूरत 316 लाख कुंतल है जबकि उत्पादन 329 लाख कुंतल हो रहा है। बीज की कमी नहीं है। लेकिन नकली बीजों का संकट बढ़ा है।

यह छिपी बात नहीं है कि हमारी हरित क्रांति प्रजनक बीजों, रासायनिक खादों और कीटनाशकों की बदौलत आयी। गेहूं और धान की किस्में मैक्सिको और फिलीपींस से आयी थीं। ऐसे में भारत में बढ़ती आबादी को खाद्य सुरक्षा देने के लिए परंपरागत खेती के भरोसे नहीं रहा जा सकता। लेकिन क्या भविष्य की खाद्य जरूरतों को जीएम खाद्य फसलो के बदौलत ही पूरा किया जा सकेगा। या फिर बीच का ऐसा कोई रास्ता है जिसमें हमारे बीज भी बचे रहें और हमें दूसरों की तकनीक पर न निर्भर रहना पड़े। वह रास्ता असंभव नहीं है। इस नाते देश को खतरे में डालने की जगह किसानों को प्रोत्साहन देते हुए नए रास्तों की तलाश कहीं बेहतर होगी।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्यसभा टीवी से जुड़े हैं। गांव और किसान के मुद्दे पर लगातार लिखते रहते हैं। खेत-खलिहान आपका गांव कनेक्शन में साप्ताहिक कॉलम है।

           

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