''अटल हमारा अटल रहेगा इसीलिए तो जीतेगा"

Dr SB Misra | Aug 16, 2018, 14:53 IST
पिछले कई वर्षों से सारा देश उनकी आवाज सुनने की आस लगाए था, शायद एक दिन फिर सुनने को मिले लेकिन वह आस भी टूट गई। अब उनके लेख, कविताएं, रिकार्डेड भाषण ही समाज का मार्ग दर्शन करेंगे। अटल जी कालजयी हैं, अमर हैं उनकी यादें और विचार हमारे बीच में सदैव रहेंगे।
#अटल बिहारी वाजपेयी
बात 1957 की है जब अटल जी लखनऊ से भारतीय जनसंघ के टिकट पर कांग्रेस के पुलिन बिहारी बनर्जी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे। मैं कक्षा 9 में पढ़ता था और राजा बाजार में रहता था जहां हर आदमी की जुबान पर यही नारा था, ''अटल हमारा अटल रहेगा इसीलिए तो जीतेगा"। अटल जी उस बार जीते तो नहीं लेकिन बाद के वर्षों में सब का दिल जीत लिया और जब तक लड़े कभी हारे नही। यहां का मुस्लिम समाज भी चाहे भाजपा का प्रशंसक न हो लेकिन अटल जी को उतना ही सम्मान और प्यार करता है जितना कोई हिन्दू या अन्य व्यक्ति ।

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मैं बचपन से ही अटल जी की ओजस्वी वाणी से मुग्ध रहता था और सड़क चलते यदि उनकी आवाज सुनाई पड़ जाती थी तो एक मिनट रुक कर सुनता था क्या कह रहे हैं। पिछले कई वर्षों से मेरी तरह ही सारा देश उनकी आवाज सुनने की आस लगाए था, शायद एक दिन फिर सुनने को मिले लेकिन वह आस भी टूट गई। अब उनके लेख, कविताएं, रिकार्डेड भाषण ही समाज का मार्ग दर्शन करेंगे। अटल जी कालजयी हैं, अमर हैं उनकी यादें और विचार हमारे बीच में सदैव रहेंगे।

अटल जी का जन्म 25 दिसम्बर को हुआ था जिस दिन ईसा मसीह धरती पर आए थे। ईसामसीह का जन्मदिन जिसे हम बड़ा दिन के नाम से मनाते है, सचमुच यह बड़ा दिन हैं। इसे संयोग ही कहेंगे कि ईसा मसीह को सूली पर चढ़ना पड़ा था और अटल जी शरशय्या पर वर्षों तक लेटे रहे। इन दोनों की तुलना न करें फिर भी अटल जी में कुछ तो था जिसके कारण वह सर्वमान्य नेता थे और सारा देश उन्हें निर्विवाद रूप से सम्मान की नज़रों से देखता था। उनकी विशेषता थी सीधी सपाट बात और वाणी का ओज परन्तु उससे भी विशेष रहा निश्च्छल स्वभाव और निर्भीक अभिव्यक्ति।

मुझे याद है जब पहली बार जसवंत सिंह लोकसभा का चुनाव जीते थे और अटल जी उनको लेकर लखनऊ के गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल में पहुंचे थे तो लोग बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे, क्या बोलेंगे। जसवंत सिंह का परिचय कराया और चीन का युद्ध समाप्त हो चुका था इसलिए उस विषय पर बोलते हुए कहा था ''कितनी माताओं की गोद खाली हो गई, कितनी ही बहनों की कलाइयां सूनी हो गईं'' और उन्होंने आगे कहा था ''चीन के साथ उसी भाषा में बात करनी होगी जो भाषा वह समझता है"।

एक लम्बे समय के बाद जब मैंने कनाडा से लौटकर अपने सपनों का स्कूल आरम्भ किया था तो अटल जी मेरे खेत की मेंड़ पर आए थे 90 के दशक में, हमारे भारतीय ग्रामीण विद्यालय के ठीक बगल में, तब वह सांसद थे। पीडब्लूडी और भाजपा के लोगों ने उनके हाथों एक सड़क का उद्घाटन कराया और शिलापट भी लगवाया था। मुझे सूचना देर से मिली इसलिए उपस्थित नहीं था लेकिन किसी ने फोन करके पूछा था कि भारतीय ग्रामीण विद्यालय के बच्चों को स्वागत में खड़ा कर दें? मैंने सहर्ष हां कहा था और स्कूल के सभी बच्चे और अध्यापक खड़े हुए थे। मैं नहीं समझता अटल जी को नकली भीड़ की दरकार थी परन्तु मुझे आज तक मलाल है इस बात का कि आयोजकों ने गांव जवार को सूचित करने का शिष्टाचार भी नहीं निभाया था।

अटल जी ने भारतीय राजनेताओं को मिलकर काम करने की कला सिखाई चाहे उत्तर प्रदेश की संविद यानी संयुक्त विधायक दल की सरकार हो, जनता पार्टी की सरकार अथवा स्वयं उनकी सरकार हो। उनके साथ कम्युनिस्टों ने भी काम किया और जनसंघ ने भी। वह सही अर्थों में राष्ट्रपुरुष थे। संघ के प्रचारक जरूर रहे थे लेकिन अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व हमेशा बनाए रक्खा। एक बार जयपुर में जनसंघ के अधिवेशन में उन्होंने राजनीति से सन्यास लेने की इच्छा जाहिर की थी, शायद खिन्न रहे होंगे। सब ने मिलकर मना लिया। जब एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि आप असहज हैं तो पार्टी छोड़ क्यों नहीं देते तो उनका उत्तर था ''कम्बल नहीं छोड़ता" यानि विचारधारा का कम्बल।

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बहुत सी यादें हैं जो कभी नहीं भूलेंगी। जब 1977 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जनता पार्टी जीती तो मैंने आदिवासी इलाके बस्तर में रेडियो पर सुना था अटल जी बोल रहे थे ''एक सपना संजोया था-----'' लेकिन जब समाजवादियों ने दोहरी सदस्यता के नाम पर जनता पार्टी विभाजित कर दी तो अटल जी ने बिना संकोच कहा था ''अपना दीप बुझाकर मशाल जलाई थी जिसमें रोशनी कम, धुआं ज्यादा है"।

जब उनकी ही पार्टी के वरिश्ठ नेता बलराज मधोक ने 1970 के दशक में अपनी पुस्तक 'इंडियनाइजेशन ऑफ मुस्लिम्स' यानी मुसलमानों का भारतीयकरण लिखा तो अटल जी बहुत अप्रसन्न हुए थे। स्वाभाविक है बलराज मधोक का नज़रिया अलग था, संघ विचार के निकट था। लेकिन अटल जी इस सोच को सहन नहीं कर सके थे और अपने सिद्धान्त ''हार नहीं मानूंगा, रार नईं ठानूंगा" के मुताबिक चलते रहे। बलराज मधोक पुराने नेता थे फिर भी उन्हें जनसंघ से अलग होना पड़ा था।

वेसे तो अटल जी की पहचान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में रही लेकिन अपने छात्र जीवन में वह कम्युनिस्ट पार्टी की छात्र इकाई के सदस्य भी रहे थे। जनसंघ की स्थापना इसलिए हुई थी कि गांधी जी की हत्या के बाद संसद में संघ का पक्ष रखने वाला कोई नहीं था। अटल जी संसद में कभी संघ की अनुचित आलोचना सहन नहीं करते थे, फिर भी अनेक बार उनकी सोच संघ से अलग रहती थी। उन्होंने 1977 में अंग्रेजी साप्ताहिक ऑर्गनाइजर में एक लेख में लिखा था कि संघ की शाखाओं पर मुसलमानों को आने की अनुमति होनी चाहिए। उन्होंने अपने को सेकुलर के रूप में तो कभी पेश नहीं किया परन्तु उनके विरोधी भी उनके उदारवादी सर्वधर्म समभाव की सोच की सराहना करते रहे। जब 1980 में जनता पार्टी टूट गई तो अटल जी ने भारतीय जनसंघ को पुनर्जीवित करने के बजाय नए नाम और नए संविधान के साथ भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। आर्थिक परिकल्पना के रूप में उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के बजाय गांधीवादी समाजवाद को तरजीह दी। बहुतों को आश्चर्य और कष्ट हुआ था।

अटल जी का ऐसा व्यक्तित्व था जिसने राजनेता के रूप में तात्कालिक लाभ के लिए कभी काम नहीं किया, खैरात नहीं बांटी बल्कि देश के लिए दूरगामी परिणामों की चिन्ता की। जब 2000 में गुजरात में दंगे हुए तो उन्होंने गुजरात सरकार को राजधर्म निभाने की सलाह दी परन्तु इस सलाह को उन्होंने प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाया। ऐसा अनेक बार हुआ है जब उन्होंने अच्छे कवि की तरह समस्या को उभारा, लोगों को उसका एहसास कराया परन्तु कठोर प्रशासक की तरह उसका समाधान नहीं किया। एक बार विरोध प्रदर्शन के लिए लखनऊ विधानसभा जा रहे थे और पुलिस ने रोका तो वहीं सड़क पर बैठ गए धरने पर।

अटल जी ने जनता पार्टी में विदेश मंत्री रह कर और कालान्तर में भारत का प्रधान मंत्री रह कर सरकार चलाने का आदर्श पेश किया है और विपक्ष में प्रतिपक्ष की भूमिका का उदाहरण भी प्रस्तुत किया है। देश का बहुत कल्याण होगा यदि पक्ष और विपक्ष के लोग उनके व्यक्तित्व और कृतत्व का उदाहरण याद रक्खें और राजधर्म तथा रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाते रहें।

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