टीचर्स डायरी: 'बच्चों के साथ, बच्चा बनकर उनका विश्वास जीता, उनके साथ गीत गाए, बस बढ़ने लगी बच्चों की संख्या'

Satish Malviya | Mar 24, 2023, 13:55 IST
राकेश कुमार गुप्ता, मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के बूढ़ा गाँव के बालक प्राथमिक शाला में कार्यरत है, जिसकी चर्चा इस गाँव में ही नहीं आसपास के कई गाँवों में है। राकेश गुप्ता टीचर्स डायरी में अपने स्कूल का किस्सा साझा कर रहे हैं।
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मैं 2015 में बूढ़ा बालक प्राथमिक शाला में पदस्थ हुआ। यहां आते ही मैंने देखा बच्चों का विद्यालय में ठहराव बिलकुल नहीं है। बच्चे विद्यालय आते ही नहीं थे, विद्यालय का वातावरण भी ऐसा नहीं था कि बच्चे यहां आकर रुके और पढ़े। विद्यालय बंद होने की कगार पर था। बच्चे जिस कक्षा में उनकी उम्र उससे ज्यादा थी। पढ़ने में उनकी रूचि बिलकुल नहीं थी। विद्यालय में कोई शिक्षक नहीं था केवल दो अतिथि शिक्षक थे। बच्चे भी आठ दस थे जो आस पास पेड़ो पर खेलते रहते थे या इधर उधर घूमते रहते।

विद्यालय खुलता बच्चे मध्यान भोजन करते और चले जाते। हमें लगा कि अगर ऐसा ही चलता रहा और किसी दिन कोई अधिकारी दौरे पर आया तो हम उन्हें क्या जबाव देंगे। कुछ दिन हमने उन्हें ऐसे ही देखा फिर हमने बच्चों से बात कि तो उनका कहना था हम पढ़ना नहीं चाहते केवल खेलना चाहते हैं, हमारे माता पिता मजदूरी पर चले जाते हैं इसलिए हम यहां बस खाना खाने आते हैं। हमें बस खेलना है, पढ़ना नहीं है।

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तो हमने भी कहा हम भी आपके साथ खेलेंगे। जैसा बच्चे चाहते थे उनके साथ हमने भी खेलना शुरू किया। हम भी बच्चों के साथ बच्चे हो गए। पेड़ों पर चढ़ना, गिल्ली डंडा खेलना, धूल में लिपटना हमने सब बच्चों के साथ किया।

चार-पांच दिन ऐसा ही चला तो बच्चों को लगा कि ये तो अच्छे मास्टर जी आये हैं जो हमसे पढ़ने की बात ही नहीं करते। धीरे धीरे हमने बच्चों का विश्वास जीता। फिर मैंने और मेरे सहयोगी शिक्षकों ने सोचा कि अब विद्यालय का वातावरण बदलना होगा।

हमने स्वयं के खर्च पर विद्यालय में पेंट करवाया। कहानियों के सुंदर सुंदर चित्र दीवारों पर बनवाएं। जब बच्चों ने ये चित्र देखे तो उन्हें विद्यालय नया और अच्छा लगने लगा। वे अब विद्यालय में ठहरना चाहते थे, चित्र देखना चाहते थे,वे अब विद्यालय के बाहर नहीं जाना चाहते थे।

Also Read:टीचर्स डायरी: 'अगर उस दिन मुझसे न मिलता तो आज वो आर्मी में नहीं, मुंबई में कोई नौकरी कर रहा होता' इसके बाद हमने गीत बनाना शुरू किये। बच्चों ने भी गीत गाना और नाचना शुरू किया। मैंने स्वयं किया तो बच्चे भी करने लगे। बच्चे विद्यालय से निकलते तो गीत गाते निकलते। चौपालों पर बैठे गाँव के बुजुर्ग और अन्य लोग भी बच्चो के गीत सुनते। अब धीरे धीरे इस विद्यालय में बच्चों का नामांकन बढ़ने लगा जो कि बंद होने की कगार पर था।

हमने गणित, विज्ञान, हिंदी, अंग्रेजी जैसे विषयों को पढ़ाने के लिए स्थानीय मालवी बोली और हिंदी में लगभग 280 गाने बनाये। हमने स्वयं ही सहायक शिक्षण सामग्री का निर्माण किया, वर्कशीट्स डिजाइन कि। हमने पढ़ाई को रुचक बनाने कई प्रयास किये हैं और आगे भी करेंगे।

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