रेबीज़ के देसी टीके को डब्ल्यूएचओ की मान्यता, शिमला के डॉक्टर ने 17 साल किया था शोध

Anusha MishraAnusha Mishra   9 Feb 2018 5:38 PM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
रेबीज़ के देसी टीके को डब्ल्यूएचओ की मान्यता, शिमला के डॉक्टर ने 17 साल किया था शोधडॉ. ओमेश कुमार भारती

किसी जानवर के काटने से होने वाली बीमारी रेबीज़ का इलाज़ कराने में अभी तक अच्छा खासा खर्च होता था लेकिन शिमला के एक डॉक्टर ने एक ऐसी दवा बनाई है जिसकी कीमत सिर्फ 350 रुपये है। ख़ास बात यह है कि इस दवा को उसी जगह पर लगाया जाता है जहां पर जानवर ने काटा हो यानि घाव वाली जगह पर। रेबीज़ ऐसी बीमारी है जिसका पता काफी देर में चलता है। कई बार तो जानवर के काटने के साल भर बाद इसके लक्षण दिखना शुरू होते हैं।

शिमला के डॉ. ओमेश कुमार भारती की 17 साल की मेहनत को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने मान्यता दे दी है। उनकी मेहनत से जिन लोगों की कुत्ता, बंदर, या किसी दूसरे जानवर के काटने मौत हो जाती थी। अभी तक जानवरों के काटने पर व्यक्ति की मांसपेशियों में टीका लगाया जाता था लेकिन अब जानवर जानवर के काटने से बने घाव पर ही टीका लगाना होगा। शिमला के दीनदयाल उपाध्याय (डीडीयू) अस्पताल के डॉ. ओमेश कुमार भारती के शोध के मुताबिक, घाव के अलावा शरीर के अन्य हिस्सों में टीका लगाने से फायदा नहीं होगा। रेबीज़ इम्यूनोग्लोबिन की क़ीमत जो अब तक लगभग 35000 रुपये थी, अब ये 350 रुपये में ही मिल जाएगी।

ये भी पढ़ें- क्या आपको पता है कुत्ते - बिल्ली सहित सभी जानवर लेते हैं खर्राटे

इस पर शोध 17 साल पहले शुरू हुआ था जिसे अब डब्ल्यूएचओ की मान्यता मिली है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह स्वीकृति जेनेवा में अक्टूबर 2017 में विशेषज्ञों के रणनीतिक सलाहकार समूह की सिफारिशों पर दी है जिसमें डॉ. उमेश भारती, स्वर्गीय डॉ. एसएन मधुसूदन और डॉ. हेनरी वाइल्ड के संयुक्त शोधपत्र का जिक्र था। अभी तक रेबीज वैक्सीन और रेबीज इम्युनोग्लोबुलिन (आरआईजी) सीरम बनाने के लिए घोड़े या मानव रक्त का इस्तेमाल होता था। मानव आरआईजी, जिसे पीड़ित के शरीर के वजन के अनुसार बड़ी खुराक में लगाने की ज़रूरत होती है उसकी लागत 6,000-8,000 प्रति शीशी होती है, जो ज़्यादातर लोगों की पहुंच से बाहर का इलाज़ है।

मैंने जो टीका विकसित किया है वह काफी सस्ता है। इस टीके से अब तक अस्पताल में आने वाले 40 से 50 मरीज़ों की जान बचाई जा चुकी है। इस टीके की डोज़ मरीज़ के वजन के आधार पर निर्धारित की जाती है।
डॉ. ओमेश कुमार भारती, दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल, शिमला

पूरी दुनिया में रेबीज़ से जितनी मौत होती हैं उनका 36 फीसदी हर साल भारत में होता है। डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के अनुसार, लगभग 15 लाख लोगों को हर साल जानवर काट लेते हैं इनमें से 90 फीसदी मामले आवारा और पालतू कुत्तों के काटने के होते हैं। रेबीज से भारत में हर साल लगभग 20,000 लोगों की मौत हो जाती है। भारत में हर 2 सेकेंड में एक व्यक्ति किसी जानवर द्वारा काटे जाने का शिकार बनता है और हर आधे घंटे पर एक व्यक्ति रेबीज की चपेट में आकर मौत के मुंह में चला जाता है।

ये भी पढ़ें- जानवरों में बढ़ रहे पथरी के मामले, ऐसे करें पहचान

डब्ल्यूएचओ ने दी मान्यता

घाव पर टीका लगाने की पद्धति को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की मान्यता मिल गई है। डब्ल्यूएचओ ने सभी देशों को इलाज़ की यह पद्धति अपनाने के लिए लिखा है। बेंगलुरु के निमहांस से तकनीकी स्वीकृति मिलने के बाद इस पद्धति का इस्तेमाल देश के सभी राज्यों में पागल कुत्तों, बंदरों व अन्य जानवरों के काटने पर इलाज़ के लिए होगा। हिमाचल में इस पद्धति का उपयोग 2014 से हो रहा है।

पहले पेट में लगता था टीका

2008 से पहले तक जानवर के काटने पर पेट के चारों ओर टीके लगते थे। बाद में मांसपेशी में टीका लगाना शुरू किया गया। ऐसा करने से टीके का मूल्य पांच गुना कम हुआ। तब तक बाजार में सीरम आता था, लेकिन अचानक सीरम आना बंद हो गया। इस बीच सीरम की कमी को देखते हुए टीका त्वचा में लगाना बंद कर घाव में लगाने का प्रयोग सफल रहा।

ये भी पढ़ें- देश में छुट्टा जानवरों की वजह से मर रहे लाखों लोग 

   

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.