कविता : वार्तालाप के मध्य ही शुरू हुआ शिशु का पिघलना पर्वत की भाँति...

Update: 2017-09-04 16:54 GMT
प्रतीकात्मक तस्वीर

पर्वत पिघल रहे हैं

घास, फूल, पत्तियाँ

बहकर जमा हो गयीं हैं

एक जगह

हाँ रेगिस्तान जम गया है

मेरे पीछे ऊँट काँप रहा है

बहुत से पक्षी आकर दुबक गये हैं

हुआ क्या ये अचानक

सब बदल रहा

प्रसवकाल में स्त्री

दर्द से कराह रही है,

शिशु भी प्रतीक्षारत !

माँ की गोद में आने को

तभी एक बहस शुरू हुई

गतिविधियों को संभालने की,

वार्तालाप के मध्य ही शुरू हुआ

शिशु का पिघलना

पर्वत की भाँति

फिर जम गया वहाँ मंजर

रुक गयी साँसें

माँ विक्षिप्त

मृत शिशु गोद में लिए

विलाप करती

आखिर ठंड में पसीना आना

आखिर कौन समझे

फिर फोन भी नहीं लगते

टावर काम नहीं करते

सीढ़ियों से चढ़ नहीं पा रहे

उतरना सीख लिया है

कहा ना सब बदल रहा है

सच इस अदला बदली में

हम छूट रहे हैं

और ये खुदा है कि

नोट गिनने में व्यस्त है।

दीप्ति शर्मा

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