चमकी बुखार: खाद्य सुरक्षा की व्‍यवस्‍थाओं के फ्लॉप शो से भी बढ़ी मुश्‍किलें

Update: 2019-06-26 09:43 GMT

लखनऊ। बिहार के मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार (एक्यूट इन्सेफलाइटिस सिंड्रोम) से 150 से ज्‍यादा बच्‍चों की मौत हो गई। इस बुखार की वजह का अभी ठीक से पता नहीं है, लेकिन जिन बच्‍चों की मौत हुई है वे सभी गरीब परिवार से ताल्‍लुक रखते थे और शारिरिक रूप से कमजोर थे या कुपोषित थे। कई खबरें तो ऐसी भी हैं कि इन बच्‍चों को रात में खाना नहीं मिला इस वजह से यह बुखार की चपेट में आ गए।

इन खबरों से यह सवाल उठता है कि देश में खादय सुरक्षा कानून लागू होने के बाद भी वो क्‍या कारण है कि यह बच्‍चे भूखे सोने को मजबूर हैं और कुपोषण झेल रहे हैं। आखिर सरकार की सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS), मिड डे मील योजना और आंगनबाड़ी व्‍यवस्‍था कहां फ्लॉप साबित हुई। हम इस खबर के माध्‍यम से इन्‍हीं कारणों पर बात करेंगे।

पहले बात करते हैं पीडीएस सिस्‍टम की। पीडीएस सिस्‍टम पर बात करने से पहले दो मामलों के बारे में जानिए। इनसे पीडीएस सिस्‍टम के बारे में बहुत कुछ समझ पाएंगे।

पहला मामला

यह मामला बिहार के सीतामढ़ी जिले के सिंघवाहिनी पंचायत का है। यहां के सोनबरसा प्रखंड में रहने वाली उर्मिला देवी को 2019 की शुरुआत में ही दिसबंर 2019 तक का राशन मिल चुका है। हालांकि इस बात की जानकारी उसे नहीं है, लेकिन उसका राशन कार्ड इस बात की गवाही देता है। उसके राशन कार्ड में 2019 के हर महीने का राशन चढ़ चुका है, यानि उसे मिल चुका है।

सिंघवाहिनी पंचायत की मुखिया रितु जायसवाल बताती हैं, कोटेदार ने ऐसा कई लोगों के साथ किया है, बहुत से राशन कार्ड उसके पास पड़े हुए हैं। इसकी कारगुजारी की जानकारी डीएम तो को दी गई है, लेकिन इसपर कोई कार्रवाई हुई। यह तो सबको पता है सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कोटेदार राशन बेच देता है। राशन में अनियमितता लगभग सभी जगह है। इसका सीधा असर उर्मिला जैसे गरीब लोगों पर पड़ता है। अब यही देखिए एक यूनिट (3 किलो गेहूं व 2 किलो चावल) का दाम 13 रुपए होता है, लेकिन कोटेदार लोगों से 15 रुपए लेता है। अगर जिले में 30 लाख यूनिट हुआ तो यह सीधा 60 लाख का भ्रष्‍टाचार है। वहीं, कोटेदार कई बार यूनिट भी काट लेता है। अगर किसी को चार यूनिट मिलता है तो उसे तीन यूनिट ही देना, वहीं तौल में भी गड़बड़ी की जाती है।''

उर्मिला देवी के राशन कार्ड की प्रति

बता दें, खाद्य सुरक्षा कानून लागू होने के बाद बीपीएल कार्ड धारकों को प्रति यूनिट के हिसाब से खाद्यान्न दिया जाता है। यूनिट को ऐसे समझ सकते हैं कि अगर किसी परिवार में चार लोग हैं तो उसे चार यूनिट अनाज मिलेगा। इसमें प्रति यूनिट 5 किलो गेहूं व चावल दिया जाता है।

दूसरा मामला

पीडीएस से जुड़ी दूसरी कहानी मुजफ्फरपुर के मीनापुर प्रखंड के तुर्की गांव की रहने वाली रीता देवी बताती हैं। रीता कहती हैं, ''राशन तो मिल रहा है, लेकिन कोटेदार हर बार एक किलो राशन काट लेता है। हमारा 7 लोगों का परिवार है, 35 किलो अनाज मिलना चाहिए, लेकिन 34 किलो ही देते हैं। कोटेदार कहता है कि एक किलो मजदूरी का काट रहा हूं।'' अगर ऐसा ही हर कोटेदार करता हो तो सोचिए कितना अनाज हड़पा जा रहा है।

इस तरह का भ्रष्‍टाचार सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आम हो चला है। इसकी वजह से सही तरीके से लोगों तक अनाज नहीं पहुंच पाता और बच्‍चे रात को भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। यह बात ग्लोबल हंगर इंडेक्स, 2018 में भारत की स्‍थ‍िति से साफ होती है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार, भारत 119 देशों की सूची में 103वें स्थान पर पहुंच गया है। भारत को भुखमरी की समस्या से गंभीर रूप से जूझ रहे 45 देशों की सूची में भी रखा गया है।

भूख और कुपोषण दोनों ही एक साथ चलते हैं। आगे की बात करने से पहले बच्‍चों में कुपोषण पर भी बात कर लेते हैं। अगर बच्चे और मां के पोषण की बात करें तो अधिकांश अफ्रीकी देश मुजफ्फरपुर से बेहतर हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)-4 की रिपोर्ट से यह बात साफ होती है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक मुजफ्फरपुर में करीब 48 प्रतिशत बच्‍चे (5 साल से कम उम्र के) अपनी उम्र के हिसाब से कम लंबाई के है। करीब 17.5 प्रतिशत बच्‍चों (5 साल से कम उम्र के) का वजन अपने लंबाई के हिसाब से कम है। वहीं, 42.3 प्रतिशत बच्‍चों (5 साल से कम उम्र के) का वजन उनकी उम्र के हिसाब से कम है।

इसकी तुलना में अफ्रीका में केवल 31.3 प्रतिशत बच्चे ही अपनी उम्र के हिसाब से कम लंबाई के हैं। अफ्रीका क्षेत्र के लिए डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि मुजफ्फरपुर की तुलना में 43 अफ्रीकी देशों का प्रदर्शन अच्‍छा है। यहां अपनी उम्र के हिसाब से कम लंबाई के बच्‍चे मुजफ्फरपुर से कम हैं। इन देशों में घाना (18.8 फीसदी), दक्षिण सूडान (31.1 फीसदी), नाइजीरिया (32.9 फीसदी), युगांडा (34.2 फीसदी) जैसे देश शामिल हैं।

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विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि वैश्विक स्तर पर हर साल लगभग 2.7 मिलियन बच्चे कुपोषण के कारण मर जाते हैं। कुपोषण कितनी बड़ी समस्‍या है यह इस बात से समझा सकता है। फिलहाल मुजफ्फरपुर में मरने वाले बच्‍चे भी गरीब तबके के थे और उन्‍हें भी खाने के लिए प्रयाप्‍त भोजन उपलब्‍ध नहीं था।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मिड डे मील योजना और आंगनबाड़ी का मुजफ्फरपुर में हो रही बच्‍चों की मौत से कैसा जुड़ाव है यह बताते हुए केंद्रीय सतर्कता आयोग के पूर्व डायरेक्‍टर अरुण कुमार कहते हैं, ''इसके पीछे पूरी तरह से कुपोषण है। मेरे मुताबिक तो राशन व्‍यवस्‍था को अगर बंद कर दिया जाए तो गरीबों का भला हो जाएगा। गरीब कुछ भी करके अपने बच्‍चों को शाम को खिला लेगा। वो मांग कर लाएगा या कमा कर लाएगा, लेकिन खाना जरूर खिलाएगा।''

''पहले सरकारी व्‍यवस्‍था को समझने की जरूरत है। मान लीजिए किसी महीने अनाज मिल गया, फिर अगले दो महीने तक अनाज नहीं मिला। लेकिन गरीब इस भरोसे में रहता है कि आज नहीं तो कल कोटेदार अनाज देगा। इसकी वजह से वो कम इस्‍तेमाल करते हुए अनाज खर्च करता है। मां दिन में बच्‍चों को मिड डे मील खाने के लिए भेज देती है। बच्‍चा स्‍कूल जाने के रास्‍ते में खेलते हुए स्‍कूल पहुंचता है, तब तक मिड डे मील खत्‍म हो गया। अब वहां से रसोइया भी उसे भगा दे रहा है। ऐसे में बच्‍चा क्‍या करेगा। भूखे पेट वो खेल रहा है और शाम को जब घर पहुंचता है तो इस डर से कि उसे मार पड़ेगी यह भी नहीं बताता कि स्‍कूल में उसे खाना नहीं मिला। ऐसे में वो कमजोर तो होगा ही।''- अरुण कुमार कहते हैं

अरुण कुमार आगे कहते हैं, ''अब आंगनबाड़ी को ही देख लीजिए, वहां खिचड़ी तो बनती ही नहीं। हफ्ते में एक दिन बन गई तो बहुत है। यह ऐसा है कि आपने सरकारी भिखमंगा बना दिया और फिर भीख देना भी बंद कर दिया। इससे अच्‍छा होता राशन व्‍यवस्‍था को जीरो कर दिया जाए और फिर केंद्रीय एजेंसी के माध्‍यम से पैकेज्‍ड राशन भेजा जाए। इससे भ्रष्‍टाचार कम होगा और सही तरीके से बच्‍चों तक पहुंच सकेगा।''

बात करें अगर मध्याह्न भोजन योजना (मिड डे मील) की तो आए दिन इसकी बदहाली की खबरें आती रहती हैं। न्‍यूज 18 हिंदी की एक खबर को ही देखें तो मिड डे मील योजना की असलियत खुलकर सामने आ जाती है। 2018 के सितंबर महीने की इस खबर के मुताबिक, आजमगढ़ जिले में मिड डे मील योजना में भारी गड़बड़ी देखने को मिली थी। यहां के परिषदीय स्कूलों में मिड डे मील योजना के तहत बच्चों को 2017 के नवंबर माह से फल और दूध का वितरण नहीं किया गया है। स्थिति यह है कि स्कूल विभाग बच्चों के लिए कम मात्रा में खाना बनाकर महज खानापूर्ति कर रहा है।

अरुण कुमार बताते हैं कि ''मिड डे मील में तो ऐसी खबरें अक्‍सर आती रहती हैं। खाना बनता है 10 बच्‍चों का और रजिस्‍टर मेंटन होता है 80 बच्‍चों का। ऐसे में 70 बच्‍चों का खाना, उनका राशन किसने खा लिया किसी को पता नहीं।''

ऐसे में आप समझ पा रहे होंगे कि खाद्य सुरक्षा की व्‍यवस्‍थाओं के फ्लॉप शो की वजह से कितना फर्क पड़ रहा होगा। इसकी वजह से बच्‍चे रात को भूखे सोने को मजबूर हैं और चमकी जैसी जानलेवा बीमारी उन्‍हें अपना शिकार बना रही है।  

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