वकील चाहें तो घट सकती है इंसाफ में देरी

जब निर्णय गाँव के पंच प्रधान या बड़े बूढ़े करते थे तो वह सटीक होता था। लेकिन फैसला करने वाले के पास अस्त्र बिना दांत का होता था। यानी उनके पास दंड देने अथवा निर्णय को लागू करने की शक्ति नहीं होती थी। यदि पंचायती राज व्यवस्था में यह शक्ति उपलब्ध कराई गई होती तो वह सिस्टम फेल नहीं होता।

Update: 2024-04-27 13:46 GMT

अदालत में किसी मुकदमे के लिए तीन पक्ष होते हैं और वह हैं फरियादी, वकील और न्यायाधीश। न्यायाधीश की तरफ से अदालत में लिखा रहता है ”सत्यमेव जयते”। लेकिन वकील तो अपने मुवक्किल को छुड़ाने या लाभ दिलाने के लिए उसे बोलता है, यह कहना या वह कहना। वकील कभी भी अपने मुवक्किल को सत्य बोलने के लिए प्रेरित नहीं करता। यदि कोई पीड़ित अदालत में इंसाफ के लिए जाता है और बहुत बड़ा वकील नहीं कर सकता और इसके विपरीत जो गुनहगार है वह बड़े से बड़ा वकील कर लेता है तो फरियादी को इंसाफ मिलना बेहद मुश्किल हो जाता है। यदि अपराधी मुकदमा हारने लगता है तो उसका वकील कोई ना कोई बहाना बताकर बराबर पेशी बढ़वाता रहता है। वकीलों की चिंता का विषय ना तो “सत्यमेव जयते” होता है और ना ही गरीबों को इंसाफ। वकील की चिंता का विषय रहता है अपने मुअक्किल को विजई बनाना।

मुकदमे की पेशी की तारीख बढ़ा-बढ़ा कर इंसाफ में देरी करने के लिए केवल वकील ही ज़िम्मेदार नहीं है बल्कि न्यायाधीश का पेशकार भी इसमें अपनी भूमिका निभाता है। अदालत में गवाहों की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। गवाह या तो वादी अथवा प्रतिवादी की तरफ से पक्ष रखने आते हैं। गवाहों को पहले से ही वकील तैयार कर देता है और जैसा वह बताता है वैसा ही गवाह न्यायाधीश के सामने बोल देता है। वह वहाँ पर “सत्यमेव जयते” का वचन निभाने नहीं आता बल्कि अपने पक्ष को जिताने में सहयोग देने आता है। कई बार गवाहों को प्रलोभन देकर या फिर दबाव में या डरा धमका कर प्रभावित भी किया जाता है। गवाहों की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि न्यायाधीश अपनी नज़र से घटनास्थल या मौका-ए वारदात को नहीं देखते बल्कि वकील की नजरों से या गवाह की नज़रों से जो तस्वीर पेश होती है उसी के आधार पर निर्णय हो जाता है। आवश्यकता इस बात की है की न्यायाधीश स्वयं स्थिति को किसी प्रकार देख पाए और मूल्यांकन कर पाए। आज के जमाने में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग जैसी सुविधाएँ उपलब्ध हैं इसलिए इनका उपयोग यदि सच्चाई और कड़ाई के साथ किया जाए तो वारदात के स्थान का मूल्यांकन न्यायाधीश द्वारा बेहतर किया जा सकेगा।

यही कारण है कि जब निर्णय गाँव के पंच प्रधान या बड़े बूढ़े करते थे तो वह सटीक होता था। लेकिन फैसला करने वाले के पास अस्त्र बिना दांत का होता था। यानी उनके पास दंड देने अथवा निर्णय को लागू करने की शक्ति नहीं होती थी। यदि पंचायती राज व्यवस्था में यह शक्ति उपलब्ध कराई गई होती तो वह सिस्टम फेल नहीं होता।

मैं एक विद्यालय के प्रबंधक के रूप में याचिका करता हूँ। वह मुकदमा पिछले 20 साल से चल रहा है। मेरी उम्र 85 साल हो चुकी है और भले ही वह प्रकरण फास्ट ट्रैक कोर्ट में डाला गया है फिर भी मुझे नहीं लगता कि मैं अपने जीवन काल में इसका निर्णय देख पाऊंगा। शायद ऐसे ही प्रकरणों के विषय में कहा गया होगा कि ”जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड”। अदालतों में फैसला होने का एक कारण तो यह है की हमने अंग्रेजों से परंपरा पाई है जिसमें लाल फीताशाही होती है और जिसमें वकीलों की भूमिका कुछ ऐसी होती है कि वह पेशी दर पेशी लगवाते रहते हैं। मान्यता यह है कि चाहे 100 गुनहगार छूट जाए पर एक बेगुनाह दंडित नहीं होना चाहिए, शायद एक कारण यह भी हो सकता है। इसी का नतीजा है कि अदालतें फाइलों से भरी पड़ी है और उनके शीघ्र निस्तारण की कोई संभावना नहीं है।

पुराने समय में इस प्रकार की अदालतें तो नहीं होती थी लेकिन प्रभु रामचंद्र के निर्णय तक से आज के लोग संतुष्ट नहीं है। बहुतों का मानना है की सीता जी के साथ तब अन्याय हुआ था जब उन्हें वनवास भेज दिया गया था और वह भी अकेले। मध्यकाल में शाहजहां के दरबार में पहुँचने के पहले कहते हैं एक घंटा बंधा रहता था। कोई भी फरियादी जब वह घंटा बजाता था तो ख़बर दरबार तक पहुँचती थी और उन्हें पता चलता था फरियादी आया है और उसकी फरियाद का शीघ्र निस्तारण होता था। मैं यह तो नहीं जानता के निर्णय फरियादी को संतुष्ट करने वाला होता था या नहीं, लेकिन लगता है निर्णय शीघ्र हो जाता था। राजतंत्र में तो ऐसी व्यवस्था संभव है लेकिन प्रजातंत्र में शायद कठिन होगी।

इस कठिनाई को दूर करने के लिए हमारे आजादी के बाद के नेताओं ने 50 के दशक में पंचायती राज सिस्टम का आरंभ जोर शोर से किया था। तब ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायतें, जिला पंचायतें और न्याय पंचायतें हुआ करती थी। आशा की गई थी कि गाँव के लोगों को शीघ्र और सही न्याय मिलेगा लेकिन वह पंचायतें राजनीति का अखाड़ा बन गई और उन पर किसी को विश्वास नहीं रहा। इसके पहले गुलाम भारत में जातियों के हिसाब से उनके बुजुर्ग फैसला करते थे, वह उनकी जाति विशेष पर लागू होता था।

मुझे याद है मेरे गाँव में शिव गोविंद बाजपेई जो सबसे बुजुर्ग थे उनकी बात पूरा गाँव मानता था और लगभग सभी मसलों में उनका निर्णय लोगों को स्वीकार होता था। हमारी अदालतों ने यदि भारत की पुरातन परंपराओं को ध्यान में रखते हुए और साक्षी, गवाह और वकील आदि की व्यवस्था उसी के अनुसार बनाई होती तो आज अदालतों का यह हाल नहीं होता।

अंग्रेजों ने जो न्याय व्यवस्था बनाई थी और जो कानून बनाए गए थे उन सब का एक ही लक्ष्य था ब्रिटिश राज को बनाए रखना। कोई छोटी सी आलोचना भी हुकूमत की करता तो उसे राजद्रोह माना जाता था। वर्तमान सरकार ने ऐसे तमाम कानून को निरस्त किया है जो अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे थे और अब अनावश्यक थे।

न्यायपालिका और संसद के बीच में कई बार टकराव की हालत आती है और न्यायपालिका संविधान की रक्षक के रूप में मौजूद है। इसके बावजूद संविधान में 100 से अधिक बार संशोधन हो चुके हैं, तब हम कैसे कह सकते हैं कि संविधान की रक्षा होनी ही चाहिए। यह बाइबल या कुरान शरीफ की तरह नहीं है जो ईश्वरीय आदेश का दस्तावेज है। यह तो मनुष्य द्वारा बनाया गया समाज

की सुविधा के लिए एक दस्तावेज है जिसको समय और आवश्यकतानुसार बदला जा सकता है। श्रीमती इंदिरा गांधी जो तत्कालीन प्रधानमंत्री थीं उन्होंने संविधान में बड़े परिवर्तन किए थे उनमें से न्यायोचित परिवर्तनों और संविधान सभा की कार्यवाही को विद्यालयों में दिखाया जाना चाहिए। संविधान निर्माता विद्वानों ने किस आधार पर संविधान बनाया था, यह समझना जरूरी है।

हमारे संविधान में एक विधान, एक प्रधान और एक निशान का अभाव तो है ही। यह बात डॉक्टर मुखर्जी ने कश्मीर के संदर्भ में कही थी लेकिन सारे देश पर लागू होती है। 1954 में एक समय आया था जब देश में समान नागरिक संहिता लागू की जा सकती थी लेकिन तब के प्रधानमंत्री नेहरू जी ने इस पर ज़्यादा चिंतन नहीं किया। नतीजा हुआ के हिंदू समाज के लिए भारतीय संविधान और मुस्लिम समाज के लिए सरिया कानून बने रहे जैसा गुलाम भारत में था।

अदालतों में मोटे अक्षरों में लिखा रहता है सत्यमेव जयते। क्या सचमुच हमेशा सत्य की विजय होती है? यथार्थ में मैं नहीं समझता कि वहाँ हमेशा सत्य ही जीतता है। यदि कोई आदमी दूसरे का कत्ल कर देता है और वह बहुत अच्छा वकील रखता है जो गुनहगार को तोता की तरह सिखाता है क्या बोलना है, क्या जवाब देना है और वह गुनहगार साफ छूट भी जाता है। हार और जीत वकीलों की योग्यता और क्षमता की होती है सत्य अथवा असत्य की नहीं। न्यायाधीशों को वास्तविकता तभी पता चल सकती है जब वह स्वयं मुवक्किल से बात करें और दस्तावेजों का निरीक्षण करें, ना कि वकीलों के माध्यम से जानकारी हासिल करें।

मेरे गाँव में एक गंगा प्रसाद महाजन हुआ करते थे उनका कहना था कि गरीब आदमी को तब तक इंसाफ नहीं मिलेगा जब तक अदालत में वकील रहेंगे। लेकिन प्रत्यक्ष जानकारी छानबीन और मौका वारदात की जाँच पड़ताल तभी हो सकती है जब स्थानीय लोगों द्वारा यह सब किया जाए। शायद यही सोच कर देश में पंचायती राज की स्थापना की गई थी की पंच और सरपंच वही गाँव के या उसके पड़ोस के रहने वाले होंगे और सच्चाई को जानते होंगे तब सत्य की विजय हो सकती थी।

मुसीबत का मारा फरियादी, वकील नाम की बैसाखी पर इसलिए निर्भर है कि वह स्वयं गुलामी के जमाने वाली न्यायिक व्यवस्था और भाषा को समझता नहीं है। फरियादी को तभी तसल्ली होगी जब वह अपनी भाषा में अपना दर्द माननीय न्यायाधीश के सामने पेश कर सकेगा। अभी हालत यह है कि उसे ना तो यह पता रहता है कि मुकदमा किस रूप में किस बिंदु को उठाते हुए पेश किया गया है और मुकदमे की चर्चा बहस किन बिंदुओं पर हुई है और अंत में जो निर्णय, हम केवल आशा कर सकते हैं, की वह दिन आएगा जब हम अपनी भाषा में फरियाद कर सकेंगे और अपनी भाषा में इंसाफ पा सकेंगे।

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