पराली क्यों जलाते हैं किसान? जानिए सच

Update: 2017-10-25 16:12 GMT
आख़िर पराली क्यों जलाते हैं किसान?

नोएडा। हर वर्ष देश की राजधानी दिल्ली एवं एनसीआर में सर्दियों के समय सर्दी की चिंता कम वायु प्रदूषण की चिंता ज्यादा होती है। इस दौरान वायु प्रदूषण का स्तर चरम पर होता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड(CPCB) के आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में वायु प्रदूषण इस दौरान स्वास्थ्य के लिए खतरनाक स्तर पर रहता है। इससे ज्यादा परेशानी श्वास सम्बंधित मरीजों को होती है, उसमे भी बच्चो एवम बुजुर्गो को सबसे अधिक परेशानी होती हैं।

हाल ही में Lancet medical journal की एक रिपोर्ट में सामने आया हैं कि दुनिया भर में वर्ष 2015 में 90 लाख लोगो की मौत वायु प्रदूषण से हुई है, जिनमे अकेले भारत में 25 लाख मौते हुई हैं एवं बिना विवाद के यह कहा जा सकता हैं की इन 25 लाख में से ज्यादातर दिल्ली एनसीआर में हुई होंगी, क्योकि कुछ वर्ष पहले ही WHO की एक वार्षिकं रिपोर्ट में यह सामने आ गया था की दिल्ली देश की ही नही अपितु दुनिया की सबसे प्रदूषित नगरी हैं।

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दिल्ली में प्रदूषण के बहुत से कारण है, लेकिन उनमे से एक कारण खेतों में जलने वाले कृषि अवशेष/पराली/स्ट्रॉ बर्निंग भी है। दिल्ली एनसीआर में इसलिए ही सर्दियों में सबका ध्यान किसानों की तरफ जाता है क्योकि उन दिनों पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में धान की फसल की कटाई शुरू हो जाती है और ज्यादातर किसानों द्वारा उस पराली (धान के स्ट्रॉ को पराली कहां जाता हैं, लेकिन आमतौर पर गेहू एवं धान दोनों के स्ट्रॉ को भी पराली बोल दिया जाता हैं) को खेत मे ही जलाना शुरू कर दिया जाता है।

एक आकड़े के अनुसार अकेले पंजाब एवं हरियाणा में ही हर वर्ष लगभग 35 मिलियन टन कृषि अवशेष जलाएं जाते हैं। वैज्ञानिक आकड़ो के अनुसार एक टन कृषि अवशेष के जलने से 2KG- SO2 (सल्फर डाइऑक्साइड), 3KG- Particulate Matter (कणिका तत्व), 60KG-CO (कार्बन मोनोऑक्साइड), 1460KG-CO2 (कार्बन डाइआक्साइड), 199KG-ash (राख) निकलती हैं जो बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलाता है, जिससे वहां आसपास का एरिया तो प्रभावित होता ही है बल्कि दिल्ली-एनसीआर भी बुरी तरह प्रभावित होता है, क्योकी वह प्रदूषण हवा के बहाव के साथ दिल्ली तक आ जाता है। ऐसे में दिल्ली में पहले ही प्रदूषण का स्तर ऊपर रहता है साथ ही सर्दियों में प्रदूषण के कण ऊपर उड़ने के बजाय पृथ्वी की सतह के पास रहते हैं क्योंकि धूल व प्रदूषण के कणों पर ओस/नमी जम जाती है और प्रदूषण में बढ़ोतरी होती जाती हैं।

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इन सभी कारणों से ही नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने भी पर्यावरण हित और किसानों के हित में उक्त चारों राज्यों में पराली जलाने पर वर्ष 2015 दिसम्बर मे ही रोक लगा दी थी और सरकार को आदेश दिया गया था कि किसानों को मशीनों पर सब्सिडी दी जाए, उन्हें जागरूक किया जाये, जिससे वह पराली को जलाने के बजाए उचित निस्तारण कर सकें। साथ ही NGT ने आदेश दिया था की जो किसान फ़सल जलाते हुए पाए जाएँ उन पर फाइन लगाया जाए। लेकिन इन आदेश का पालन सरकार ठीक से नही कर रही है जिससे लगातार पराली जलाई जा रही है और प्रदूषण बढ़ रहा हैं।

सरकार किसानों को NGT के आदेश के अनुसार जरुरी मदद दिए बगैर ही किसानों पर फाइन कर रही है जिससे किसान की समस्या बढ़ रही है। बिना सरकार को मदद के कृषि अवशेषों का पर्यावरण हितैषी निस्तारण करना किसानों के लिए मुश्किल है। ऐसे में सरकार को फाइन के आलावा दुसरे रोकथाम के पहलुओं पर कार्यवाही करनी चाहिए जैसे किसानों की आर्थिक मदद की जाए साथ पराली के निस्तारण के लिए किसानों से सलाह लेकर एक ठोस निति बनाई जाए।

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लेकिन इस दौरान वायु प्रदूषण के लिए सबसे ज्यादा किसानों को जिम्मेदार ठहराया जाता है। केवल प्रशासनिक स्तर ही नही बल्कि राजनीतिक स्तर पर भी किसानों को निशाना बनाना आसान माना जाता है और इस तरह राजनीतिक लोगों और सरकार को बचाव मिल जाता है। लेकिन बहुत कम लोग जानते है की आखिर किसान फसल अवशेष जलाते क्यों है? इसके पीछे हर राज्य में कई अलग-अलग कारण हैं, यह सबसे बड़े पैमाने पर पंजाब व हरियाणा में जलाया जाता है। जिनमे से कुछ कारण ये हैं जिनके बारे लोगो को जानकारी होनी आवश्यक हैं।

सरकार की 'खेत क्लीनिंग' योजना

हरियाणा के किसानों से बात करने पर पता चला है कि सबसे ज्यादा जोर फसल अवशेष को जलाने पर वर्ष 1998-99 के आसपास से शुरू हुआ है। क्योंकि उस दौरान सरकार की ओर से कृषि वैज्ञानिकों ने गाँव-गाँव में कैम्प लगाकर किसान मेले में स्टाल लगाकर किसानों को जागरूक किया था कि फसल काटने के बाद जल्द से जल्द खेत की सफाई करें। ऐसा करने से दूसरी फसल की पैदावार बढ़ेगी और फसल को नुकसान पहुँचाने वाले कीट मर जायेंगे, हालांकि वैज्ञानिकों की इसके पीछे की मंशा ठीक थी लेकिन उसका प्रभाव विपरीत हो गया, जिसका असर ये बताया गया कि किसानों ने फसल काटने के बाद बचे अवशेषों को जलाकर खत्म करना शुरू कर दिया। यह सभी खेत क्लीनिंग योजना के तहत हो रहा था।

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लेकिन इस दौरान ही खेती में मशीनों का चलन बढ़ रहा था और लोग हाथों से फसल कटाई की बजाय मशीनों के उपयोग की तरफ तेजी से बढ़ रहे थे और इससे पराली खेत में ज्यादा मात्रा में बचने लगी जिन्हें साफ़ करने के लिए जलाना सबसे आसान रास्ता माना गया है। जो प्रैक्टिस समय रहते बढ़ती गई। यदि कुछ किसानों की माने तो इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों की यह क्लीनिंग योजना की सलाह भी जिम्मेदार है। यदि खेत क्लीनिंग प्रैक्टिस के प्रचार के समय ही क्लीनिंग और सफ़ाई के अच्छे विकल्प दिए जाते और फसल जलाने के लिए सख्त मना किया जाता तो शायद आज यह स्थिति इतनी ख़राब न होती।

खेत की जल्द से जल्द सफाई

वर्ष में दो बार सबसे प्रमुख तौर पर दिल्ली के आसपास के राज्यो में कृषि अवशेष/पराली जलाई जाती है। अप्रैल में गेहूं की एवम मध्य सितम्बर के बाद धान की फ़सल उठाई जाती हैं इस दौरान ही पराली जलाई जाती हैं। धान जिसके तुरंत बाद गेंहू की फ़सल की बुआई करनी होती है, उसके लिए खेत साफ़ होना चाहिए तभी आगे की बुआई अच्छे से हो पाएगी। यदि धान की फ़सल की पराली को खेत मे ही छोड़ दिया जाता है तो उसे गलने में काफ़ी समय लगेगा और उससे दूसरी फ़सल में समस्या आएगी हालांकि इस पराली को बायो कम्पोस्ट के माध्यम से खाद बनाकर खेत मे डाला जाए तो यह खेती के लिए अमृत है इससे अगली फसल बिना बजारू पेस्टिसाइड और खाद अच्छी हो सकती है। लेकिन कई किसान जानकारी के अभाव में अगली फ़सल के उद्देश्य से इसे जला कर ख़त्म करना पसंद करते हैं।

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धान के बाद गेहूं की फ़सल लगाने के बीच लगभग एक महीने का समय होता है जिसमे पराली का निस्तारण करना मुश्किल हो सकता है लेकिन अप्रैल में गेहूं की फसल उठाने के बाद धान की फ़सल लगाने के बीच लगभग 3 माह का समय होता है इसमें गेहूं के अवशेष को आसानी से पर्यावरण हितैषी तरीके से निस्तारण किया जा सकता हैं। लेकिन फिर भी अवशेषों को जलाया जाता है।

खेती में मशीनों के उपयोग में बढ़ोतरी

आज से कुछ दशक पहले तक भारत मे खेती मैनुअल तरीके से होती थी अथार्त मशीनों का उपयोग कम था मजदूरों और पशुओं का उपयोग ज्यादा था। लेकिन जैसे-जैसे हमने कृषि में विकास किया हैं, किसानों ने पैदावार बढ़ाई है उसके लिए किसानों ने खेती में मशीनों का उपयोग बढ़ाया है। इसके लिए सरकार ने भी प्रयास किये हैं।

अर्थशास्त्र और सांख्यिकी निदेशालय, नई दिल्ली (Directorate of Economics and Statistics, New Delhi) के अनुसार देश में आजादी के बाद कृषि में जिस तरह से पैदावार बढ़ी है उसकी वजह फार्म मशीनरी एवं यंत्र आदि भी हैं। साथ ही भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के आकड़ो के अनुसार वर्ष 2013-14 तक ही देश में प्रति 1000 एकड़ पर 27 tractor थे जो की 50 के दशक में बहुत कम थे। इससे निस्संदेह देश को लाभ हुआ है आज देश के पास खाद्यान्न की कोई कमी नही है। लेकिन इसके कुछ दुष्प्रभाव भी आए हैं, जैसे पराली का जलाना जिससे वायु एवं मिटटी का प्रदूषण बढ़ रहा है, खेती को नुकसान भी हो रहा है, साथ ही पेस्टिसाइड का अंधाधुंध उपयोग हुआ है जिसके फलस्वरूप आज पंजाब जैसे सम्पन्न राज्य को कैंसर बेल्ट में बदल दिया गया है। वहाँ पर कैंसर के केस बहुत ज्यादा सामने आ रहे है।

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जहां तक पराली जलाने की बात है पहले धान व गेंहू की फ़सल भी हाथों से (मेनुअल) काटी जाती थी जिसमे कृषि का कोई अवशेष खेत मे नही बचता था, उसका भूसा आदि बना लिया जाता था। लेकिन अब कम्बाइन (मशीन) के माध्यम से फसल काटी जाती है जिसमें धान या गेंहू की पराली को छोड़कर ऊपर के अनाज को ले लिया जाता है पराली खेत मे रहती है फ़िर उसे सफ़ाई के उद्देश्य से जला दिया जाता है, इसके आलावा मशीनों के बढ़ने से मवेशियो की संख्या कम हुई है जो खेती में उपयोग होते थे उनके लिए भूसे की जरूरत होती थी जो अब कम हो गई है इसलिए अब पराली से भूसा भी नही बनाया जा रहा हैं। इन दिनों पंजाब हरियाणा में खेती में काम करने वाले मजदूरों की भी कमी है जो मिल रहे है वह भी महंगे पड़ते है।

भृम-पराली जलाने से खेत की उपजाऊ शक्ति बढ़ेगी

बताया जाता हैं की पिछले कुछ वर्षो में किसानों में एक भृम फैल गया है की पराली जलाने से खेत की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है। जबकि इससे कोई ख़ास लाभ नही होता है बल्कि उल्टा नुकशान होता है। खेत मे किसान मित्र कीट जैसे केंचुआ आदि मर जाते हैं साथ ही खेत की नमी कम हो जाती है जिसका सीधा प्रभाव खेत की उपजाऊ ताकत पर पड़ता है। इसलिए किसानों को जागरूक करने की जरूरत है कि पराली जलाने से खेत की शक्ति कम होती है न कि बढ़ती है।

सरकार द्वारा सहयोग में कमी

सरकार की किसानों के प्रति उदासीनता की वजह से आज देश का किसान अच्छी स्थिति में नही है किसानों को फ़सल का उचित दाम न मिलना एक आम बात है। जहां तक पराली जलाने से रोकने के लिए सरकार की मदद की बात है वहां पंजाब, हरियाणा के साथ-साथ अन्य राज्यों में भी किसानों को मुश्किल से ही कोई मदद मिली है यदि हम दिल्ली से सटे राज्यों जिनमे प्रमुख तौर पर पराली जलाई जा रही है जैसे पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में सरकार ने नेशन ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) के आदेश के बाद भी किसानों की कोई ख़ास मदद नही की, जिससे पराली का बिना जलाएं पर्यावरण एवं किसान हितैषी निस्तारण हो सके। जबकि सरकार को शुरुआत में ही किसान की मदद करनी चाहिए थी, जिससे कि इसका निस्तारण किया जा सके।

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लेकिन सरकार ने इसे किसान पर छोड़ दिया और अब हाल ही में जब धान की पराली के जलने का समय नजदीक आ गया हैं, तब पंजाब के मुख्यमंत्री द्वारा केन्द्रीय सरकार से पराली के उचित निस्तारण हेतु दो हजार करोड़ रूपये की माँग की हैं हालांकि उस बारे में केंद्र सरकार ने कोई निर्णय अभी तक नही लिया हैं। किसानों के पास इतना पैसा है कि वह इसको जलाने की बजाय इसका उचित निस्तारण कर सकें। सरकार को किसानों की सुविधा के अनुसार पराली का विकल्प उपलब्ध कराना होगा।

पराली एक मुसीबत की बजाय एक रिसोर्स है इसका बहुत तरह से उपयोग किया जा सकता है। हालांकि अच्छा यह होगा कि खेत की पराली, कृषि अवशेष खेत मे ही रहे उसे वहीं खाद बनाकर खेत में डाला जाए। लेकिन इन सभी के लिए सरकार की ओर से किसानों को मदद मिलनी चाहिए पर्यावरण बचाना केवल किसानों की ही जिम्मेदारी नही है इसके लिए सरकार को भी आगे आना होगा। क्योकि किसान देश के अन्नदाता है उनका देश के ऊपर बहुत बड़ा उपकार है।

विक्रांत तोगड़, पर्यावरण संरक्षक

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