आजादी के बाद से हमने खो दिए करीब 22 लाख तालाब, लेकिन गए कहां?
एक अनुमान के मुताबिक आजादी के वक्त देश में 24 लाख तालाब थे। 5TH MINOR IRRIGATION CENSUS (2013-14) को देखें तो पता चलता है कि देश में अब 2 लाख 41 हजार 715 तालाब सरकारी तौर पर दर्ज हैं। यानि आजादी के बाद से अब तक हम लगभग 22 लाख तालाबों को खो चुके हैं।
''मेरी उम्र 85 साल की है। पहले मेरे गांव में 3 तालाब थे। देखते-देखते तालाब गायब होते गए और अब गांव में एक तालाब बचा है, इसके कुछ हिस्से पर भी कब्जा किया गया है।'' अपने घर के पीछे बने तालाब को दिखाते हुए रामआसरे सिंह यह बात कहते हैं।
पेशे से शिक्षक रहे रामआसरे सिंह लखनऊ के हिम्मतपुर गांव के रहने वाले हैं। गांव के इस एकलौते तालाब को बचाने के लिए वो लगातार अधिकारियों से शिकायत कर रहे हैं। उनका आरोप है कि तालाब पर कब्जा दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है और उनकी शिकायतों पर कोई सुनवाई नहीं हो रही। ऐसे में वो वक्त दूर नहीं जब गांव का यह आखिरी तालाब भी नहीं बचेगा।
यह कहानी सिर्फ हिम्मतपुर गांव के तालाब की नहीं है। देशभर के लाखों तालाब इस त्रासदी से गुजर रहे हैं। इन तालाबों की कब्र पर लोग इमारतें खड़ी कर रहे हैं, खेती कर रहे हैं और देखते देखते तालाब गायब हो रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक आजादी के वक्त देश में 24 लाख तालाब थे। 5TH MINOR IRRIGATION CENSUS (2013-14) को देखें तो पता चलता है कि देश में अब 2 लाख 41 हजार 715 तालाब सरकारी तौर पर दर्ज हैं। यानि आजादी के बाद से अब तक हम लगभग 22 लाख तालाबों को खो चुके हैं।
मध्य प्रदेश के जबलपुर में ही कभी ढ़ेर सारे तालाब हुआ करते थे, भू-माफिया के रैकेट और शहरीकरण की वजह से इनमें से ज्यादातर गायब हो गए हैं। इन तालाबों को याद करते हुए 80 साल के कृष्ण गोपाल व्यास बताते हैं, ''मुझे याद है जबलपुर में कभी 52 तालाब थे। आज सिर्फ 20 तालाब बचे हैं। जो तालाब गायब हुए उनपर कॉलोनियां बस गईं, दुकानें बन गईं, स्पोर्ट्स कॉम्पलेक्स बन गए। यह सब मेरी आखों के सामने हुआ है। हालांकि इन तालाबों के नाम आज भी जिंदा हैं, जैसे 'रानी ताल', 'हाथी ताल', यह सब तालाबों के नाम थे जो आज कॉलोनियों के नाम हो गए।'' कृष्ण गोपाल व्यास तालाबों को बचाने को लेकर काम करते हैं। वे मध्य प्रदेश सरकार में 'राजीव गांधी वॉटरशेड मिशन' के सलाहकार भी रहे हैं।
जबलपुर के जैसी कहानी उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले में पड़ने वाले पुखरायां की भी है। ऐसा कहा जाता है कि पुखरायां का नाम पोखर (तालाब) से बना है, क्योंकि यहां बहुतायत में तालाब थे। इसी कस्बे के रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता संदीप बंसल (45 साल) बताते हैं, ''पहले यहां 50 से अधिक तालाब हुआ करते थे। अब घटकर सिर्फ तीन या चार तालाब बचे हैं।'' संदीप कस्बे के ही नाथू तालाब को दिखाते हैं। यह तालाब कूड़े के ढेर से पटा हुआ है। वो कहते हैं, ''इस तालाब को डंपिंग ग्राउंड बना दिया गया है। कभी इसमें लोग नहाया करते थे। हमने कई बार शिकायत की है कि बस्ती के बीच में एक ऐसा तालाब है जिसे बचाना चाहिए, लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती।''
पुखरायां के नाथू तालाब जैसे ही कई तालाब आहिस्ते-आहिस्ते मरने की कगार पर हैं। यानि जो तालाब बचे हैं उनका भी बुरा हाल है। उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के धरौली ग्राम पंचायत का 'पक्का तालाब' भी इनमें से एक है। इस तालाब में गंदा पानी भरा हुआ है, जलकुंभी है। सफाई न होने की वजह से इसमें से बदबू भी आती है।
पक्का तालाब से जुड़ी अपनी यादों को बताते हुए गांव के ही रहने वाले संजीव तिवारी (55 साल) कहते हैं, ''मुझे याद है बचपन में हम इस तालाब में नहाया करते थे। बच्चे शाम को यहां बैठते। इलाके में यही एक पक्का तालाब था, बाकी सब कच्चे बने हुए थे, इसलिए यहां जमावड़ा भी लगता। लेकिन जैसे-जैसे समय बीता इसका हाल बुरा होता गया। अब तो इसमें नालों का पानी उतरता है।'' संजीव बताते हैं बाराबंकी में कई ऐसे तालाब हैं जो अब खत्म होने की कगार पर हैं, जैसे- धनोखर तालाब, लकड़िया तालाब, पटेल पंचायती तालाब। इलाके के कई ऐसे तालाब हैं जिनपर धीरे-धीरे अतिक्रमण होता जा रहा है।
क्यों गायब हो रहे तालाब?
तालाबों के ऐसे हाल को देखकर सवाल उठता है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है और इन्हें बचाने में दिक्कत कहां आ रही है? इस सवाल का जवाब खोजते हुए गांव कनेक्शन की टीम ने कुछ प्रधानों और पूर्व प्रधानों से मुलाकात की। इसी कड़ी में यूपी के बाराबंकी जिले के चंदवारा गांव के पूर्व प्रधान धर्मराज जैसवाल (78 साल) से मुलाकात हुई। उनसे पूछा गया- 'तालाबों पर हुए कब्जे को प्रधान क्यों नहीं हटवा पाते?' इस सवाल पर वो कहते हैं, ''बहुत सीधी बात है। प्रधान को वोट भी बचाना होता है। मान लीजिए अगर प्रधान का कोई आदमी कब्जा किया है तो उसे खाली कैसे कराया जा सकता है। गांव छोटे होते हैं, हर आदमी एक दूसरे को जानता है तो ऐसे में बैर कौन ले। अगर पुलिस बुलाकर कब्जा खाली भी कराएंगे तो किसी ने खून पसीने की कमाई से मकान बनवाया है उसे कैसे गिरा दें।''
धर्मराज आगे कहते हैं, ''मैं 1984 में इस गांव का प्रधान था, तब गांव में 250 घर थे। आज गांव में 858 घर हैं। अब गांव की जमीन तो बढ़ी नहीं, लेकिन मकान तो बन रहे हैं। धीमे-धीमे बसावट बढ़ती गई और लोग तालाबों पर कब्जा करते गए।'' धर्मराज जैसवाल की बात से साफ होता है कि प्रधान भी अपने संबंध बचाने और अन्य कारणों से कब्जेदारों पर कार्रवाई से बचते हैं। ग्राम समाज की जमीन के रखरखाव की जिम्मेदारी की बात करें तो इसका जिम्मा भूमि प्रबंधन समिति का होता है और इस समिति के अध्यक्ष प्रधान ही होते हैं। ऐसे में प्रधान सीधे तौर से ग्राम समाज की जमीन पर बने तालाबों को बचाने की पहली कड़ी होते हैं।
चंदवारा गांव की ही वर्तमान प्रधान प्रकाशिनी जायसवाल तालाबों को बचाने को लेकर एक सुझाव देती हैं। वो कहती हैं, ''मनरेगा के तहत एक बार तालाबों की सफाई हो जाती है तो फिर पांच साल बाद ही इसकी सफाई के लिए फंड आता है। यह पांच साल का समय बहुत ज्यादा है, इसे तीन साल कर देना चाहिए। क्योंकि पांच साल में तालाबों में गंदगी भरती जाती है, सिल्ट जमती है। तालाब इस बीच सूखते भी हैं और लोग इसपर कब्जा करते जाते हैं, जिसे बाद में हटवाना नामुमकिन सा हो जाता है। अगर तालाब की समय-समय पर सफाई होती रहे तो तालाब कभी खत्म नहीं होंगे।''
बदहाल होती तालाबों की स्थिति को लेकर बाराबंकी के लकड़िया ग्राम पंचायत के प्रधान समर बहादुर सिंह का भी अपना मत है। वो कहते हैं, ''शासन की ओर से तालाबों को बचाने के लिए कोई साफ नीति नहीं है। अपना-अपना दामन बचाने का खेल चल रहा है। मान लीजिए कि कहीं तालाब पर अतिक्रमण हो रहा है और हमने अधिकारियों को सूचित भी किया तो उसपर कार्रवाई नहीं होगी। उल्टा यह समझाया जाता है कि ऐसे मामलों में न पड़ें, बेकार का आप परेशान होंगे। ऐसी स्थिति में तालाब कैसे बच पाएंगे।''
समर बहादुर सिंह की इस बात को उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर जिले के चूहडपुर गांव का एक मामला प्रमाणित भी करता है। राजस्व अभिलेखों में खसरा संख्या 718 और 719ग तालाब के रूप में दर्ज है। इस तालाब की जमीन पर गांव के रहने वाले राजकुमार ने कब्जा कर लिया और फिर इसपर मकान बनाकर किराए पर भी चलाने लगा। गांव वालों ने इसकी शिकायत जब जिलाधिकारी से की तो वहां से जमीन को खाली कराने का आदेश जारी कर दिया गया, लेकिन कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं हुआ।
चूहडपुर गांव के ही रहने वाले धर्मेंद्र भाटी बताते बताते हैं, ''इस मामले में 33 लाख की रिकवरी का आदेश है। साथ ही इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जांच के आदेश भी दिए थे, लेकिन इन आदेशों का पालन नहीं हुआ। तालाब पर कब्जा वैसे ही कायम है। आप कार्रवाई की गति को इससे समझ सकते हैं कि जिलाधिकारी ने साल 2017 में आदेश दिया था, उसके बाद दूसरे जिलाधिकारी भी आ गए, लेकिन कब्जा नहीं हटा। अब तो हम हार मान चुके हैं।''
गौतमबुद्ध नगर के ही रहने वाले 26 साल के रामवीर तंवर तालाबों को पुनर्जीवित करने के लिए काम कर रहे हैं। वो बताते हैं, ''शिकायतों पर कार्रवाई की बात तो आप भूल ही जाइए। मैंने जब तलाबों को बचाने का काम शुरू किया तो कई जगह इनपर कब्जों के बारे में जानकारी हुई। मैंने कई तालाबों को लेकर शिकायत भी की, लेकिन कुछ खास नहीं हुआ। दरअसल होता यह है कि शिकायत करने के बाद आप सिर्फ पेरशान होते हैं और आपको परेशान किया जाता है।''
उत्तर प्रदेश के लखनऊ के रहने वाले वॉटर रिसोर्स मैनेजमेंट के विशेषज्ञ डॉ. वेंकटेश दत्ता कहते हैं, ''जहां तक बात तालाबों के गायब होने की है तो अगर तहसीलदार और लेखपाल चाह दें तो तालाब नक्शे से गायब हो जाएगा। तालाबों पर कब्जा इसलिए भी आसान हो जाता है कि इस जमीन का आम लोगों से सीधा सरोकार नहीं होतो, तो इसपर कोई आपत्ति भी दर्ज नहीं कराता।''
डॉ. वेंकटेश दत्ता बताते हैं, ''साल 2011 में मैं इसरो के साथ मिलकर एक प्रोजेक्ट कर रहा था। उस वक्त हमने राजस्व विभाग से लखनऊ जिले के तालाबों के बारे में पता किया। पता चला कि लखनऊ में 13 हजार 37 तालाब हैं। इन तालाबों का क्षेत्रफल करीब 4928 हेक्टेयर था। उस वक्त हमें पता चला कि इन तालाबों में से आधे से ज्यादा पर कब्जा हो गया है। करीब 3800 हेक्टेयर पर कब्जा हो चुका है। यह चौकाने वाला आंकड़ा था।''
तालाबों को बचाने के लिए क्या किया जाए?
लखनऊ की तरह के मामले देश भर से सामने आ रहे हैं। तालाबों पर कब्जे और उनकी बदहाल स्थिति की खबरें अब आम हो गई हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि इनको बचाने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं। इस बारे में कृष्ण गोपाल व्यास कहते हैं, ''तालाबों को बचाने से पहले उसे समझने की जरूरत है। जब हम तालाबों के महत्व को समझ लेगें तो खुद से ही तालाब को बचाने के लिए काम करने लगेंगे। लेकिन आज जो तालाबों की स्थिति है उसका मुख्य कारण है उपेक्षा। सरकारों की ओर से कोई ऐसे खास कदम नहीं उठाए गए जिससे तालाबों को बचाया जा सके। जैसे मनरेगा के तहत तालाब खोदने की बात होती है, लेकिन वो कितना कारगर हैं यह सब जानते हैं।''
कृष्ण गोपाल व्यास आगे कहते हैं, ''आज जरूरत है तालाबों की एक डायरेक्ट्री बनाने की, जिससे पता चल सके कि कौन से तालाब कहां है। इसके बाद इनपर ठीक से काम हो सकेगा। वहीं, मनरेगा के तहत छोटी संरचना बनाने का चलन है, इससे भी अलग होना होगा। कई बार छोटी संरचना बनाने के चक्कर में हम ऐसी संरचना बना देते हैं जो हमारी जरूरतों को पूरा नहीं करती। खर्च पूरा करने के लिए यह बना दी जाती हैं। इसलिए छोटे तालाबों की जगह बड़े तालाब बनाए जाएं जिसमें पानी उसमें ज्यादा रुक सके।''
तालाबों को बचाने के लिए काम करने वाले रामवीर तंवर कहते हैं, ''तालाबों को बचाने के लिए सबसे पहले उसके कैचमेंट इलाके को बचाया जाए। क्योंकि सिर्फ तालाबों को बचाने से काम नहीं चलेगा। उसका कैचमेंट इलाका बचा रहेगा तो तालाब भी बच सकेंगे। साथ ही लोगों को तालाबों के महत्व के बारे में बताया जाए। जब लोग अपने तालाब से जुड़ेंगे, उनके लिए तालाब का महत्व होगा, तभी तालाब को वो बचाएंगे।'' रामवीर तंवर कहते हैं, ''कुछ समय पहले तालाब प्राधिकरण की बात भी चली थी, लेकिन उसपर भी कुछ हुआ नहीं। तालाब प्राधिकरण पर काम करने की जरूरत है। यह इस वक्त की मांग है।''