वाराणसी: धागों की कीमतों में हुई बेतहाशा बढ़ोतरी से उलझा बुनकरों के जीवन का ताना-बाना

लॉकडाउन को एक साल पूरे हो गये। सम्पूर्ण लॉकडाउन के समय तो बनारसी साड़ियों का कारोबार तो पूरी तरह से बंद था, लेकिन अब इस कारोबार और उससे जुड़े बुनकरों की स्थिति क्या है? पढ़िए ग्राउंड रिपोर्ट

Update: 2021-03-24 08:45 GMT

वाराणसी (उत्तर प्रदेश)। अलईपुरा की एक पतली गली के सबसे आखिरी वाले घर के कोने में कुछ मशीनें धूल फांक रही हैं। इन मशीनों को पीले कलर की साड़ी से ढका गया है। बल्ब और पंखों में झाले लटक रहे हैं। दूसरे कोने में दो मशीन और रखी हैं। एक लंबी टेबल के ठीक ऊपर लगा बल्ब जल रहा है जिसकी रोशनी में एक मशीन पर अधबनी साड़ी लगी है।

वार्ड 80-काजी सादुल्लाह पुरा बड़ी बाजार स्थित बिना प्लास्टर वाला यह दो मंजिला घर गुलजार अहमद (45) और रियाज अहमद का है। ऊपर जो अधबनी साड़ी थी, वह गुलजार ही बना रहे थे। खाना खाकर वापस मशीन पर बैठे गुलजार हालचाल पूछने पर कहते हैं, "जो हाल है आप देख ही रहे हैं। चार में से दो हैंडलूम मशीन बंद हैं। लॉकडाउन तो खुल गया लेकिन ऑर्डर नहीं आ रहे। माल (कच्चा माल) की कीमत बहुत बढ़ गई है। सरकार ने अपना वादा भी पूरा नहीं किया। रियाज इसीलिए यहाँ से चला गया।"

रियाज अमहद (38 वर्ष) बड़े भाई गुलजार के साथ यहीं काम करते थे लेकिन अब वे अपना काम छोड़कार गुजरात के सूरत जिले में एक बड़ी कपड़ा कंपनी में साड़ी फोल्डिंग का काम करते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में ऐसे कई घर मिलेंगे जहां मशीनें शांत पड़ी हैं और रियाज जैसे कई युवा भी जो अपना घर, खुद का काम छोड़कर दूसरे शहरों में मजदूरी या नौकरी करने लगे हैं।

वाराणसी के अलईपुरा के सैकड़ों घरों में हजारों बुनकर परिवार पावरलूम और हैंडलूम से बनारसी साड़ियाँ बुनते हैं, लेकिन लॉकडाउन ने इस पूरे कारोबार को बुरी तरह से प्रभावित किया है। एक साल बाद भी बुनकर लॉकडाउन के प्रभाव से उबर नहीं पाए हैं। दो जून की रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। कच्चे माल की कीमतों ने इनकी मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। हालात ऐसे हो गये हैं बुनकर बनारस छोड़कर दूसरे बड़े शहरों में जाकर मजदूरी कर रहे हैं।

लॉकडाउन में मिली छूट के बाद काम शुरू तो हुआ है लेकिन ऑर्डर नहीं मिलने से काम पहले जैसा नहीं हो पा रहा.

रियाज जाना नहीं चाहते थे लेकिन मज़बूरी में जाना पड़ा। वे सूरत से गाँव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "लॉकडाउन में छूट के बाद काम तो शुरू हो गया लेकिन ऑर्डर की कमी है, और सबसे बड़ी बात तो लागत बहुत बढ़ गई है। धागे की कीमत में बेतहाशा बढ़ोतरी हो गई है जिस कारण व्यापारी हमें ऑर्डर ही नहीं दे रहे। बिजली की कीमत भी कम नहीं हुई।"

थोड़ी दूर की चुप्पी के बाद वे आगे बताते हैं, "हम दोनों भाई लूम पर काम करते थे, लेकिन पर्याप्त काम न होने की वजह से मुझे परिवार सहित सूरत आना पड़ा। मेरे यहाँ आने से कम से कम एक लोगों का काम तो चल रहा है। हम यहाँ 600 से 700 रुपए का काम प्रतिदिन कर लेते हैं। अपना घर छोड़कर कौन जाना चाहता है, काम चलता होता वहां इससे ज्यादा कमाई हो जाती थी।"

पावरलूम वीवर्स एसोसिएशन के अनुसार बनारस में 30 हजार से ज्यादा बुनकर हैं जबकि डेढ़ लाख के करीब पावरलूम हैं।

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बनारसी साड़ियों के कारोबारी और पावरलूम चलवाने वाले फैजुल रहमान (40 वर्ष) कहते हैं, "लॉकडाउन के समय स्थिति तो बहुत ख़राब थी। उस समय बुनकरों ने कर्ज लेकर अपना और परिवार का पेट पाला। बाद में थोड़ी स्थिति बदली, मांग बढ़ी, शादियों का मौसम शुरू हुआ लेकिन नवंबर से धागे की कीमत इतना ज्यादा बढ़ गई की नफा-नुकसान मिलाकर सब बराबर हो गया। साड़ियों में लगने वाले थ्रेड के लिए जो धागा हम लगाते हैं उसकी कीमत लॉकडाउन से पहले 200 रुपए प्रति किलो थी वह अब बढ़कर 280 रुपए प्रति किलो हो गई है। एक साड़ी में यह धागा 300 से 400 ग्राम लग जाता है। इस लिहाज से देखें तो लागत 30 से 40 फीसदी बढ़ गई है। काम पटरी पर आ तो रहा है लेकिन मुनाफा घटने से स्थिति पहले जैसे ही है।"

बनारसी वस्त्र उद्योग एसोसिएशन के संरक्षक और बनारसी साड़ियों के कारोबारी अशोक धवन कहते हैं कि अगर लागत काम नहीं हुई तो पूरा कारोबार चौपट हो जायेगा। वे कहते हैं, "बनारसी साड़ी उद्योग से बनारस में ही एक लाख से ज्यादा परिवार ऐसे जुड़े हुए हैं जिनकी आजीविका इसी पर आधारित है। ऐसे में अगर यह कारोबार प्रभावित होता है इसका असर एक बड़ी आबादी पर पड़ता है। पिछले दो महीने में इस क्षेत्र का 20 फीसदी रोजगार वापस आया तो है लेकिन इससे ज्यादा बढ़ना मुश्किल है। धागे की बढ़ी कीमत इस कुटीर उद्योग को बर्बाद कर देगी।"

हथकरघे पर साड़ी बुनते सिराजुद्दीन.

इस गली से निकलते ही दूसरी गली की शुरुआत में हमें 60 वर्षीय सिराजुद्दीन दिख जाते हैं जो पीठ पर एक बोझा लिए बड़ी तेज कदमों से चले जा रहे थे। इसमें क्या है? यह पूछने पर कहते हैं, "इसमें कपड़े हैं। इसे घर ले जा रहा हूँ। बच्चे और महिलाएं इसे अच्छे से फोल्ड करेंगे, जिसके बदले हमें कुछ पैसे मिल जाएंगे।"

आप साड़ियां नहीं बुनते? यह सवाल सुनने के बाद सिराजुद्दीन इशारा करते हुए पीछे-पीछे आने के लिए कहते हैं। पहली जेब में चाबी न मिलने पर झल्लाते हुए दूसरी जेब से चाबी निकालते हुए दरवाजा खोलते हैं, "ये मेरा हैंडलूम (हथकरघा) है। 50 साल से यहीं साड़ी बुन रहा हूँ। एक साड़ी बुनने में 15 दिन लग जाता है, और कमाई होती है 1500 से 1,600 रुपए। पॉवरलूम आने के बाद हमारा काम वैसे ही बहुत कम हो गया था, और रही सही कसर लॉकडाउन ने पूरी कर दी।"

सिराजुद्दीन हाथ से पारंपरिक बनारसी साड़ियां बुनते हैं। ये बुनाई अब गिने-चुने लोग ही करते हैं। कारण ज्यादा मेहनत और कम कमाई। वे यह भी कहते हैं कि ताना-बाना, सब बहुत महंगा हो गया है। इस कारण भी हमारा काम बहुत कम हो गया। हम जो साड़ियां बुन भी रहे हैं वह सेठ के पास जमा है।

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बनारस में अलईपुरा के अलावा सरायनंदनपुर, सरैया, जलालीपुरा, अमरपुर बटलोहिया, कोनिया, शक्करतालाब, नक्की घाट, जैतपुरा, बड़ी बाजार, पीलीकोठी, छित्तनपुरा, काजी सादुल्लापुर, जमालुद्दीनपुरा, कटेहर, खोजापुरा, कमलगड़हा, पुरानापुल, बलुआबीर, नाटी इमली लाखों बुनकर बनारसी बिनकारी का काम करते हैं।

कोरोना का संक्रमण रोकने के लिए 24 मार्च 2020 की आधी रात में लगे लॉकडाउन के खत्म होने के बाद स्थिति सामान्य हो तो गई है, लेकिन बनारस के बुनकर बढ़ती लागत और महंगी बिजली की दरों की वजह से अभी भी उबर नहीं पाए हैं।

बिजली दरों से बुनकरों को झटका

उत्तर प्रदेश सरकार ने साल 2006 में बुनकरों की आर्थिक स्थिति को देखते हुए उन्हें फ्लैट रेट पर बिजली की सुविधा मुहैया कराई थी। जिसके तहत बुनकरों को एक पावरलूम के लिए पहले 75 रुपए प्रति महीने में बिजली दी जाती थी जो बाद में बढ़ाकर 1,500-1,600 रुपए कर दी जाती है।

योगी आदित्यनाथ सरकार के इस फैसले का बुनकरों ने काफी विरोध किया। बुनकर सरकार से फ़्लैट रेट पर बिजली की मांग कर रहे थे। कई दौर की बातचीत के बाद योगी सरकार ने कहा था बुनकरों की फ़्लैट रेट पर ही बिजली दी जाएगी, लेकिन सितम्बर 2020 में मिले आश्वासन के बाद भी नई व्यवस्था लागू नहीं हुई और ना ही इसके लिए कोई शासनादेश जारी हुआ।

"बिजली बिल को लेकर भी बुनकर पेशोपेश में हैं। कितने बुनकरों ने तो बिजली का बिल न जमा कर पाने की वजह से अपना लूम ही बेच दिया। बहुत से लोगों ने पान और चाय की दुकान खोल ली है।" साड़ियों के कारोबारी और पावरलूम मालिक फैजुल रहमान (40 वर्ष) कहते हैं।

नुरुद्दीन उर्फ़ छेदी (62) जो बचपन से ही बुनाई करते हैं, उनके पास पहले चार पावरलूम थे जिनमें से दो बिक चुकी हैं। वे थोड़े आक्रोशित स्वर में कहते हैं, "हमारी स्थिति तो पहले भी ख़राब थी, लॉकडाउन के बाद से तो और चौपट हो गया। ज्यादातर छोटे बुनकर कर्ज में डूब गये। रेशम, ताना, बाना, सब तो महंगा हो गया। धागा तो हमारी पहुंच से ही दूर हो गया। खर्च चलाने के लिए फरवरी में मैंने अपने दो लूम 50 हजार रुपए में बेच दिए। उसी कुछ कर्ज उतारा और एक छोटी सी चाय पान की दुकान भी खोल ली है। जो नहीं बेच रहे हैं वे दूसरे शहर जाकर मजदूरी कर रहे हैं।"

धागों की बढ़ी कीमतों ने बुनकरों की स्थिति को और ख़राब कर दिया है.

वार्ड 80-काजी सादुल्लाह पुरा बड़ी बाजार के पार्षद रमजान अली कहते हैं कि बिजली सब्सिडी खत्म करके सरकार ने बुनकरों की स्थिति को और ख़राब कर दिया, नहीं तो अब हालत बदल जाते। वे कहते हैं, " बुनकरों की स्थिति तो जीएसटी के बाद से ही ख़राब होना शुरू हो गई थी। इसके बाद लॉकडाउन जैसे मुश्किल समय में जब हमें सरकार से ज्यादा उम्मीद थी तब सरकार 2006 से मिल रहे बिजली सब्सिडी को ही खत्म कर दिया। बढ़ती लागत और सरकार के रवैये से नाराज बुनकर अब बुनकारी छोड़कर मजदूरी करने को मजबूर हो गये है। अलईपुरा से दर्जनों युवक दूसरे शहरों में मजदूरी करने चले गये हैं।"

"बनारस में सिल्क, कॉटन, बूटीदार, जंगला, जामदानी, जामावार, कटवर्क, सिफान, तनछुई, कोरांगजा, मसलिन, नीलांबरी, पीतांबरी, श्वेतांबरी और रक्तांबरी साड़ियां बनाई जाती हैं जिनका श्रीलंका, स्वीटजरलैंड, कनाडा, मारीशस, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, नेपाल समेत दूसरे देशों में निर्यात भी होता है, लेकिन कोरोना की बजह से अभी भी दूसरे देशों से व्यवसाय सुचारू रूप से नहीं चल रहे हैं, इस कारण भी मांग नहीं बढ़ पा रही।" रमजान आगे कहते हैं।

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"लॉकडाउन खुलने के बाद कारोबार तो शुरू हुआ लेकिन कच्चा माल महंगा होने से लागत बेतहाशा बढ़ गई है, जिससे धंधा बेहद मंदा चल रहा है। चाइना से आने वाला जो रेशम लॉकडाउन में घटकर 2,700 रुपए प्रति किलो तक पहुंचा गया था वह अब बढ़कर 4,200 से 4,300 रुपए पर पहुंच गया है।" अशोक धवन कहते हैं।

बिजली का पूरा मामला समझाते हुए बनारस पावरलूम वीवर्स एसोसिएशन के पूर्व जनरल सेकेट्री और समाजसेवी अतीक अंसारी बताते हैं, "जब मुलायम सिंह सरकार थी तब एक पावरलूम में मात्र 75 रुपए में महीनेभर चलता था। मायावती, अखिलेश यादव और कुछ साल तक योगी सरकार में भी यह व्यवस्था लागू रही लेकिन अब फ्लैट रेट में बदलाव कर 1,500-1,600 रुपए एक महीने का एक पावरलूम का कर दिया गया है। हालांकि बुनकरों को इसमें से 600 रुपए तक की सब्सिडी देने का भी आश्वासन दिया गया है फिर भी इतना बिल बहुत ज्यादा है।"

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