महाराष्ट्र : लगातार दूसरे साल लॉकडाउन के चलते कर्ज में डूबे लोक कलाकारों की जिंदगी बनी 'तमाशा'

महाराष्ट्र में मुंबई की फिल्मी दुनिया की चकाचौंध से अलग प्रदेश में हजारों तमाशा कलाकार भी हैं. जो लोगों का मनोरंजन करते हैं, लेकिन पिछले दो साल से सब कुछ बंद है। वजह है कोरोना के चलते लगाई गईं पाबंदियां। तमाशा मंडल से जुड़े हजारों कलाकारों के सामने आज भूखे से मरने की नौबत आ गई है। कर्ज में डूबे इन कलाकारों ने सरकार से मदद की गुहार लगाई है, कि उन्हें भी कुछ राहत दी जाए।

Update: 2021-04-28 09:25 GMT

कर्ज में डूबी इन तमाशा मंडलियों और पारंपरिक कलाकारों की हालत बदतर हो गई है। (Photo: Santosh Wadghule, Flickr

पुणे/सांगली (महाराष्ट्र)। महाराष्ट्र के गांव-गांव में हर साल गुडी पर्वा (अप्रैल मध्य) से बुद्ध पूर्णिमा (26 मई) तक यात्राएं और जात्रा (मेलों) का आयोजन शुरू हो जाता था। इस दौरान राज्य की एक प्रमुख लोककला तमाशा के जरिए कलाकार अपनी प्रतिभा दिखाते थे, लेकिन अफसोस है कि कोरोना की वजह से लगातार दूसरे साल पूरे राज्य में न तो गुडी पर्वा पर सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियां हुईं और न ही तमाशों का आयोजन हुआ है। ऐसे में कर्ज में डूबी इन तमाशा मंडलियों और पारंपरिक कलाकारों की हालत बदतर हो गई है। उन्हें उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आ रही है कि कब ये हालात सुधरेंगे। बता दें कि पूरे राज्य में लगभग 85 छोटे-बड़े तमाशा मंडल हैं, जिनमें हजारों की संख्या में लोक कलाकार काम करते हैं।

अखिल भारतीय लोक कलाकार मराठी तमाशा परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष संभाजी राजे जाधव (51) तमाशा लोककला शैली की दुर्दशा के बारे में विस्तार से बताते हैं। उनके मुताबिक, " पिछले साल भी ऐन मौके पर तमाशा के सभी शो रद्द कर दिए गए थे, जिसके कारण कई तमाशा मंडल प्रबंधकों की कमाई रुक गई थी और उन्होंने साहूकारों से कर्ज ले लिया था। इस वर्ष फिर सीजन के दौरान ही महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण तेजी से बढ़ने के कारण तमाशा की प्रस्तुतियों पर रोक लगी हुई है।"

पिछले साल कलाकार कोई काम नहीं कर पाए थे। (Photo: PUKAR, Flickr)

संभाजी राजे जाधव बताते हैं, "हम पर कर्ज का ब्याज लगातार बढ़ रहा है। हमें लगा था कि जब स्थितियां सामान्य होंगी तो तमाशा फिर से आयोजित होंगे और हम कर्ज उतार देंगे। वहीं, तमाशा कलाकारों की हालत तो कहीं अधिक खराब हो चुकी है। कई कलाकार गांव-गांव में मजदूरी कर रहे हैं तो कई साग-सब्जियां बेच रहे हैं। अभी सरकार की सख्ती से आम जन के लिए कोई भी कामकाज करना आसान नहीं रह गया है।"

हालात सामान्य होने को लेकर है अनिश्चितता

एक समय में गांव-गांव में पूरी रात तमाशा की प्रस्तुतियां चलती थीं, लेकिन फिर शासन स्तर पर रात में समय-सीमा और अन्य शर्तों के कारण तमाशा का आकर्षण भी कम होता चला गया। इसके अलावा मनोरंजक के आधुनिक माध्यमों के प्रति आकर्षण बढ़ने के कारण भी इसकी लोकप्रियता कम हुई। बावजूद इसके तमाशा मंडल और कलाकारों के प्रयासों से यह लोककला ग्रामीण क्षेत्रों में अस्तित्व बनाए हुए थीं। पिछले साल कोरोना संक्रमण की पहली लहर आई तो कई तमाशा मंडलों ने साहूकारों से इसलिए कर्ज लिया कि वे अपने कलाकारों को कुछ पैसा दे सकें, जिससे टीम न टूटे, लेकिन अब दूसरी लहर कहीं अधिक खतरनाक है और हालात सामान्य होने की अनिश्चितता ने कई तमाशा कलाकारों की चिंता बढ़ा दी है।

संभाजी राजे जाधव के मुताबिक राज्य सरकार को चाहिए कि वह महामारी की इस विकट स्थिति को ध्यान में रखते हुए तमाशा लोक कलाकारों के लिए राहत मुआवजे की घोषणा करें। कई तमाशा कलाकार कोरोना संक्रमण के कारण मर चुके हैं, जबकि कई कलाकारों ने हताशा में आत्महत्या तक की हैं। ऐसे में उनके परिजनों को कुछ वित्तीय मदद मिल जाएगी। वहीं कई कलाकार छोटे-मोटे काम करके किसी तरह से गुजारा कर तो रहे हैं, लेकिन उनके लिए रोज कमाना और रोज खा पाना मुश्किल हो रहा है।

पूरे महाराष्ट्र राज्य में लगभग 85 छोटे-बड़े तमाशा मंडल हैं, जिनमें हजारों की संख्या में लोक कलाकार काम करते हैं। (Photo: Santosh Wadghule, Flickr)

संभाजी राजे जाधव कहते हैं, "मराठी सिनेमा और नाटक के लिए यदि सरकार अनुदान दे सकती हैं तो तमाशा मंडलों को प्रोत्साहित करने के लिए भी अनुदान दे सकती है, मगर तमाशा लोक कलाकारों की हालत इतनी बुरी होने के बाद भी वे उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं, जबकि लगातार दूसरे साल भी तमाशा न होने से कलाकारों को सरकार से वित्तीय मदद मिलनी ही चाहिए, तभी वे फिर से खड़े हो सकेंगे।"

गाँव कनेक्शन ने सांगली जिले के मिरज शहर में रहने वाले 66 साल के एक बड़े तमाशा कलाकार दमोदर कांबले से भी बातचीत की और कोरोना संक्रमण के दौर में उनसे उनके अनुभव पूछे। इस बारे में दमोदर कांबले बताते हैं, "आखिरी बार साल 2019 में उन्होंने सांगली और इस क्षेत्र के आसपास कवलपुर, सवलाज, बस्तवडे, सावर्डे, चिंचणी, कवडेमहाकाल, बोरगाव, नागज, घाटनांद्रे, इरली, तिसंगी और पाचगाव में आयोजित कई तमाशा आयोजनों में भाग लिया था।" वे अपना डर साझा करते हुए कहते हैं कि इस साल का सीजन भी ऐसे ही हाथ पर हाथ रखे गुजर गया। तमाशे के कार्यक्रम नहीं हुए तो उनके लिए भी घर चलाना मुश्किल हो जाएगा। वहीं, उनकी उम्र को देखते हुए उनके कई साथी कलाकार उन्हें कोरोना से बचने की नसीहत देते हुए भी नहीं थक रहे हैं। इस तरह उन्हें रोजी-रोटी की चिंता भी है और कोरोना से बीमार होने का डर भी।

हर साल गुडी पर्वा से शुरू होती है चहल-पहल

देखा जाए तो पश्चिम महाराष्ट्र के सांगली जिले में हर वर्ष लोक नाट्य तमाशा मंडल का कार्यालय गुड़ी पर्वा (मार्च-अप्रैल) त्यौहार में खुलता है। इसके साथ ही सांगली, सतारा, कोल्हापुर और सोलापुर से लेकर पड़ोसी राज्य कर्नाटक के बेलगाम, वीजापुर और बागलकोट जिलों में जात्रा यानी मेले और यात्राएं शुरू हो जाती हैं। इस दौरान सभी तमाशा कार्यक्रमों की रुपरेखा सांगली जिले के वीटा शहर में तय की जाती है। इसके लिए सभी तमाशा मंडलों के प्रतिनिधि वीटा आते हैं। वीटा स्थित तमाशा मंडल के प्रबंधक के परामर्श से इस दौरान सुपारी ली जाती है। यानी तमाशा आयोजन के लिए आयोजकों से एक निश्चित राशि ठहराई जाती है। इसके तहत जात्रा में रात को होने वाले मुख्य आयोजन के अलावा अगले दिन कुश्ती का आयोजन भी शामिल होता है।

वाद्य-यंत्रों में जंग न लग जाए, इसलिए कलाकार उन्हें खाली समय में बजाते भी हैं। (Photo: Santosh Wadghule, Flickr)

इसके बाद नर्तकियों के मुकाबले से लेकर अन्य गतिविधियों के लिए आयोजक और तमाशा मंडलियों के बीच समझौते किए जाते हैं। इस तरह वह आयोजक से 25 हजार से लेकर 60 हजार रुपये तक की सुपारी उठाता है। अफसोस की पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी कोरोना संक्रमण के कारण सामाजिक दूरी बनाए रखने के लिए बरती जा रही सख्ती को देखते हुए फिर से इस तरह के समझौते हुए ही नहीं।

इस बार कलाकारों का धैर्य देने लगा है जवाब

एक तमाशा मंडल में काम करने वाली महिला कलाकार छाया नगजकर (35) बताती हैं कि पारंपरिक तमाशा में गण, गवलण, बतावणी और वागनाट्य प्रमुख होते हैं और आयोजक इस तरह के तमाशों की मांग तमाशा मंडलों से करता है। बीते कुछ वर्षों से यह देखने को भी मिला है कि दर्शक तमाशे में नए फिल्मी गानों की मांग भी करता है। इस दौरान कलाकार शरीर पर नऊवारी (मराठी शैली की विशेष साड़ी) और पैरों में पांच-पांच किलो के घुंघुरु पहनकर मंच पर अपने हुनर का जादू बिखेरता है।

छाया नगजकर आगे बताती हैं, "तमाशा में लोगों की मांग के हिसाब से हमें लगातार अभ्यास करना पड़ता है। घर पर पड़े वाद्य-यंत्रों में जंग न लग जाए, इसलिए कलाकार उन्हें खाली समय में बजाते भी हैं और भूखे रहकर कई बार तमाशे का अभ्यास करते रहते हैं, लेकिन कोरोना का समय कुछ लंबा ही खिंच गया है। इसलिए कलाकारों का धैर्य जवाब देने लगा है।"

तमाशा लोककला शैली के जानकार भास्कर सदाकले (56) मानते हैं कि कोरोना-काल में तमाशा के मंच पर सुंदर कपड़े पहनने वाला राजा हकीकत में भिखारी बन चुका है। उनके मुताबिक, "यही हालत नर्तकियों की भी हो चुकी है, जबकि जरूरत है कि एक लोक कलाकार को सम्मानजनक तरीके से जीने के अवसर तलाशने की। वास्तव में तमाशा मराठी की एक अद्भुत लोक नाट्य विधा है, जिसे कोरोना के समय भी जिंदा रहना चाहिए। फिर भी अफसोस कि ऐसी कला को जीवित रखने वाले जमीनी कलाकारों को मौजूदा संकट से बाहर निकालने के लिए कहीं कोई कुछ खास कोशिश नहीं हो रही है।"

Similar News