दीपावली के बाद गाँव में पसर जाता है सन्नाटा

Update: 2015-11-03 05:30 GMT

बीड (महाराष्ट्र)। महाराष्ट्र के बीड जि़ले के येल्दा गाँव तक जाते हुए वहां की प्रकृति आपको हर उस आनन्द से भेंट करवाएगी जिसका भूखा हर कोई होता है। आपको ऐसा महसूस होगा की यहां के लोग बहुत खुशनसीब हैं। लेकिन येल्दा पहुंचते ही आपका ये भ्रम टूट जाएगा।

येल्दा गाँव की आधे से ज़्यादा आबादी करीब सात महीने अपने पूरे परिवार के संग महाराष्ट्र के शोलापुर या कर्नाटक चले जाते हैं, क्योंकि ये किसान वहां गन्ना मिलों के बंधुआ मज़दूर हैं। ये किसान एडवांस लेकर खुद को बेच देते हैं। इस गाँव की तस्वीर तब और साफ नज़र आने लगती है, जब आप यहां के किसी किसान परिवार से मिलते हैं।

इसी गाँव की सुनीता बरीराम बरडे (40 वर्ष) का परिवार भी उन्हीं परिवारों में से एक है, जो हर साल प्रवास कर जाते हैं। ईंटों को घेर कर बनी छोटी सी कोठरी जो मसाले से नहीं जुड़ी है, उसपर रखा फूस का छप्पर, किवाड़ के नाम पर टूटी-फूटी टीन की चादर, और दरवाजे के पास ही बना मिट्टी का चूल्हा। ये है सुनीता के घर की पूरी तस्वीर।

''यहां के खेत खराब हो गए हैं, फसल नहीं होती है, कब से तो पानी नहीं बरसा। इसलिए हम लोगों को बाहर काम करने जाना पड़ता है।" अपनी कोठरी के सामने ज़मीन पर फटे गद्दे को बिछाकर उसपर बैठी सुनीता बताती हैं, ''यहां कोई काम है नहीं हम सात महीने के लिए शोलापुर गन्ना काटने चले जाते हैं। वहां मैं अपने पूरे परिवार के साथ जाती हूं।" सुनीता के पांच बच्चों सहित सात लोगों का परिवार है। वो बताती हैं, ''यहां खेती की तो छोड़ो पीने के लिए तो पानी आधा किलोमीटर से लाना पड़ता है। दिवाली के बाद हम लोग यहां से चले जाएंगे।" दीपावली के जाते ही इस गाँव के लोगों का भी यहां से जाना शुरू हो जाता है और पीछे रह जाते हैं वो बुजुर्ग जो मज़दूरी नहीं कर सकते। वो बस आसमान की तरफ देखकर बादलों के पिघलने का इन्तजार करते हैं।

बीड जि़ले के जिलाधिकारी नवल किशोर राम बताते हैं, ''यहां कपास, सोयाबीन जैसी फसलें ज़्यादा होती हैं, इसमें खर्च ज़्यादा आता है और अगर फसल खराब हो गयी तो किसान को काफी नुकसान उठाना पड़ता है। इसलिए यहां के लोग बाहर गन्ना काटने जाते हैं।" किसानों को काम के लिए बाहर ही क्यों जाना पड़ता है इस पर उन्होंने बताया, ''यहां पर रोजगार उपलब्ध कराने का सिर्फ एक साधन मनरेगा है, जिसमें भी पैसा तुरन्त नहीं मिलता कभी-कभी तो पूरी प्रक्रिया हो कर पैसा उन तक पहुंचने में करीब दो से तीन महीने लग जाते हैं। इसलिए वो लोग मनरेगा में काम करना पसन्द नहीं करते हैं। क्योंकि वहां (कर्नाटक) पैसा पहले मिल जाता है और प्रतिदिन के 300-400 रुपए मिल जाते हैं।"

वो आगे बताते हैं, ''ऐसा नहीं है कि बारिश एकदम नहीं हुई है। इस बार भी पचास फीसदी बारिश हुई है। सूखा इसलिए पड़ता है क्योंकि बारिश के पानी को संरक्षित करने की कोई व्यवस्था नहीं थी। लेकिन अब नए तालाब खुदवाए जा रहे हैं, पुराने तालाब जो हैं उनकी मरम्मत कराई जा रही है। बीड जिले के कुल 1403 गाँवों में से 271 गाँवों में काम शुरू कर दिया गया है और जहां पर पानी की ज्य़ादा समस्या है वहां टैंकर से पानी पहुंचाया जा रहा है।"

उसी गाँव के संजय विभाजी यादव (40 वर्ष) पिछले करीब 15 वर्षों से कर्नाटक गन्ना काटने जा रहे हैं। सूखे से फसल बर्बाद न हो इस लिए इस बार उन्होंने जो 60,000 रुपए एडवांस लिए थे उससे बोर करवाया था, ताकि फसल में पानी लगा सकें। लेकिन करीब 600 फुट बोर करवाने के बाद भी बोर फेल हो गया और उसके सिर पर 60,000 रुपए का कर्ज़ हो गया। संजय बताते हैं, ''सात महीने तक जब मैं और मेरी पत्नी दोनों मिलकर गन्ना काटते हैं तब करीब 40,000 से 45,000 रुपए का काम कर पाते हैं।" संजय भी अपने तीन बच्चों और पत्नी के साथ दीपावली के बाद अपने घर से करीब 500 किमी दूर कर्नाटक गन्ना तोडऩे चले जाते हैं।

संजय के पास करीब दो एकड़ ज़मीन है, जिसमें सोयाबीन बोई थी जो सूखे से पूरी बार्बाद हो गयी।

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