आँखों की रौशनी न होने की वजह से बच्चों के सहारे चलती है 100 साल की हथिनी वत्सला
दो रिपोर्टर, एक दुपहिया, एक यात्रा। थोड़ी यायावर, थोड़ी पत्रकार बनकर गाँव कनेक्शन की जिज्ञासा मिश्रा और प्रज्ञा भारती ने बुंदेलखंड में पांच सौ किलोमीटर की यात्रा की। सफ़र के दौरान इनकी मुलाकात टाईगर रिज़र्व की इकलौती महिला गाइड से लेकर सौ वर्ष की हथिनी से भी हुई जो सभी छोटे हाथियों के माँ की तरह ख़याल रखती है और उन ग्रामीण महिलाओं से भी जो वन्य जीवों को बचाने के लिए एकजुट हैं।
भाग-8
दो रिपोर्टर, एक दुपहिया, एक यात्रा। थोड़ी यायावर, थोड़ी पत्रकार बनकर गाँव कनेक्शन की जिज्ञासा मिश्रा और प्रज्ञा भारती ने बुंदेलखंड में पांच सौ किलोमीटर की यात्रा की। सफ़र के दौरान इनकी मुलाकात पन्ना टाईगर रिज़र्व की इकलौती महिला गाइड से लेकर सौ वर्ष की हथिनी से भी हुई जो सभी छोटे हाथियों के माँ की तरह ख़याल रखती है और उन ग्रामीण महिलाओं से भी जो वन्य जीवों को बचाने के लिए एकजुट हैं।
पन्ना। पन्ना के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं से मिलने, उनके मुद्दों पर बात करते हुए, हमने थोड़ा सा वक़्त निकाला था वहां के ख़ास प्राणियों से मुख़ातिब होने के लिए। हीरे की खदानों के अलावा पन्ना अपने टाईगर रिज़र्व के लिए भी बखूबी जाना जाता है, तो भला इतनी दूर आकर बिना रिज़र्व के निवासियों से मिले कैसे लौट आते!
एक रात पहले ही हमने मन बना लिया था कि अगली सुबह जल्दी उठकर टाईगर रिज़र्व जाना है। रिज़र्व खुलने का समय सुबह 6 बजे का होता है और पन्ना शहर से वहां पहुंचने में लगते हैं करीब एक-डेढ़ घंटे। तो अपने कैमरे और फ़ोन चार्ज में लगाकर समय से सो गए थे हम; सुबह 5 बजे निकलना जो था।
अगले दिन जल्दी सो कर उठे, घड़ी देखी तो सात बजे थे। आनन-फ़ानन में निकले और माइलस्टोन के सहारे चल रहे थे रिज़र्व की ओर। अभी करीब दस किलोमीटर ही चली होगी हमारी स्कूटर कि मौसम ने मूड बदल लिया था। धुप की मौजूदगी में बारिश की बूँदें भी गिरने लगीं थीं। 10 बज गए थे हमें रिज़र्व पहुंचते-पहुंचते।
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अंदर जाकर पता चला कि हम लेट हैं और सफ़ारी निकल चुकी है और शाम वाली सफ़ारी के लिए हमें 3:30 बजे का इंतज़ार करना होगा। हमने सोचा ऐसे वक़्त बर्बाद नहीं कर सकते, तो आसपास के गांवों में जाकर महिलाओं से बात करने निकल गए। टाईगर रिज़र्व के आसपास कई गांव हैं जहाँ जाने पर जंगल के पास रहने वाली महिलाओं को होने वाली कई तरह की समस्याओं का पता चला।
खैर, गांवों की ओर बढ़ने से पहले हमने वहीँ कैंटीन में बैठकर जलेबी-पोहा खाया था। सुबह जल्दी निकलने की वजह से नाश्ता जो नहीं कर पाए थे। जब से मध्य प्रदेश आये थे, हर गांव, शहर के नाश्ते में पोहा-जलेबी ही खा रहे थे।
कैमासन जाकर महिलाओं को माहवारी के दौरान होने वाली समस्याओं, चुनौतियों के बारे में पता लगा। और ये भी मालूम पड़ा कि किस तरह ग्रामीणों के पालतू जानवर, यहाँ तक की उनके खुद के बच्चे भी जंगली जानवरों से खतरे में रहते हैं। इन सभी मुद्दों पर बात करके, अलग-अलग कहानियां जान कर के हम तीन बजे फ़िर टाईगर रिज़र्व की ओर बढ़ चले थे।
अपनी स्कूटर पार्क करते वक़्त मेरी निगाह उस हरी जीप पर पड़ी जो हमें अंदर ले जाकर वन्य जीवों से मिलाने वाली थी।
टाईगर रिज़र्व में घुसते ही सबसे पहले दर्शन हुए हाथियों के समूह के। करीब 5 -6 हाथी जो अपने दुनिया में मगन थे। पर उन सब में से एक ऐसा था जो सारा ध्यान अपनी ओर खींच रहा था। उन सब में सबसे छोटा और सबसे मस्तीखोर। कभी बड़े हाथियों को दौड़ाता तो कभी पास में पड़े बर्तन से पानी सूंढ़ में भरकर खेलने लगता। करीब दस मिनट तक यही ताकती रही मैं। महावत ने उसका नाम बापू बताया था। "इनका नाम बापू इसलिए रखा हम लोगों ने क्यों कि ये दो अक्टूबर को पैदा हुए थे," बाल कुमार ने बताया।
ये बातें हो ही रहीं थीं और फ़िर जो दृश्य मैंने देखा वो आज तक आँखों में बसा हुआ है। ममता और सुकून का प्रतिबिम्ब वह दृश्य था उस हाथी के अपनी माँ के दूध पीने का। बापू की माँ, अनारकली, उसे दूध पीला रही थी और पांच मिनट तक ऐसा करने के बाद ही अनारकली ने खुद, अपना खाना खाया।
"हर रोज़ ऐसा ही होता है। जब तक बापू दूध नहीं पी लेता या दलिया नहीं खा लेता है, अनारकली खाना नहीं खाती," बाल कुमार ने कहा।
इसके बाद मैंने देखा कि दूर खड़ी एक हथिनी ने चिंघाड़ लगाई और छोटा बापू दौड़ कर उसके पास पहुंच गया और खेलने लगा। ये देख कर थोड़ा कन्फ्यूज़न हुआ तो वहां खड़े महावत से उसके बारे में पूछा।
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"अरे वो तो वत्सला है। बापू की दूसरी माँ।" "मतलब?" मैंने पूछा। बाल कुमार रौतिया ने फ़िर बताया, "वत्सला हमारे रिज़र्व की सबसे बुज़ुर्ग हथिनी है। 1993 में यहाँ आयी थी, तब तो हम लोग भी छोटे ही थे। अब ये सौ साल की हैं और उम्र की वजह से ठीक से देख भी नहीं सकती इसलिए बच्चों के सहारे चलती हैं। जब भी अनारकली आसपास नहीं होती, ये वत्सला बापू का पूरा ध्यान रखती है। इसलिए ये भी उसकी दूसरी माँ है।"
"टाईगर रिज़र्व की शान है वत्सला।"
इस सुन्दर किस्से को अपने कैमरा में कैद कर आगे बढ़ चली थी मैं और बाल कुमार की बात मन में घर कर गयी थी, "ये सब हाथी मेरे परिवार हैं। इनके सह मुझे अपने घर की कमी नहीं महसूस होती।"
"ये सब हाथी मेरे परिवार हैं। इनके सह मुझे अपने घर की कमी नहीं महसूस होती।"
हमारे सफ़ारी में एक गाइड और ड्राइवर थे जो जगह-जगह रोक कर साम्भर और स्पॉटेड हिरण दिखा रहे थे। चीतल भी देखा हमने। टाईगर स्पॉट करने की उम्मीद में सफ़ारी से आगे बढ़ ही रहे थे हम की एक दूसरी सफ़ारी दिखी। कुछ विदेशियों को पीछे बिठाये, एक महिला गाइड कम ड्राइवर थी जो रुक कर हमारे ड्राइवर को केन नदी की ओर जाने की सलाह दे रही थी। "आप नदी की ओर ले जाइये उधर है (टाईगर), बच्चों के साथ ही है," इतना कह कर उसने अपनी गाड़ी बढ़ा दी। वो लोग उधर से ही आ रहे थे।
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हम भी गए उस ओर। दूरबीन से देखते हुए चल ही रहे थे की अचानक सामने से तेंदुआ गुज़रा। अचानक जीप रोकी ड्राइवर ने तो वो सड़क पार कर झाड़ियों के पीछे चला गया और वहीँ से हमें देख रहा था। करीब 40-50 सेकण्ड्स तक। इतना क्षणभंगुर था ये सब कि तस्वीर लेने का ख्याल ही न आया।
साढ़े पांच बज चुके थे और हमें उन महिलाओं से भी मिलना था जो आसपास के गांवों से टाईगर रिज़र्व आने वाली थीं, वन सुरक्षा पर रणनीति बनाने। टाइगर देखने की आस लगभग छोड़कर हम सब वॉटरफॉल पर आकर रुके थे। शाम हो चल थी और फ़ोन/ कैमरा की बैटरी भी साथ छोड़ने ही वाली थी बस। लेकिन तभी हमारे गाइड साहब ने आवाज़ दी, "टाईगर! टाईगर!" और दूरबीन थमा दिया मुझे। "वो देखिये वहां पानी पी रहा है," गाइड ने बताया। टाईगर भी देख ही लिया, अंततः।
रिज़र्व के कैंटीन इंचार्ज ने हमें बताया था कि ग्रामीण महिलाएं आने वाली थीं जो मिल कर वन्य जीवों को बचाने के लिए योजनाएं बनायेंगी। जैसे ही गेट पर पहुंचे, महिलाएं आ चुकी थीं और एक अनोखा खेल खेल रहीं थीं। 8-10 महिलाओं का समूह घेरा लगाए था और एक महिला उसमें घुसने की कोशिश कर रही थी। "हम सब जो घेरा लगाएं हैं वो मिल कर बाहर से वनों को नुकसान करने वाले को अंदर आने से रोक रहे हैं। लोग आ कर पेड़ काट कर ले जाते हैं कभी कोई बीड़ी पी कर उसमें (जंगल) में फेक देता है जिस से आग भी लग जाती है। इस खेल में हमें सिखाया जा रहा है कि किस तरह हमें अपने जंगलों को बचाना है ताकि जंगली जानवर भी सुरक्षित रहैं," भावना देवी ने बताया।
मध्य प्रदेश के नेशनल पार्कों में काम कर रही मुंबई की 'लास्ट विल्डरनेस फॉउंडेशन' नाम की संस्था इस तरह से गांव वालों को जागरूक करने के लिए कार्यक्रम आयोजित करती है।
हमाए यहाँ बीड़ी पीते रहे। फिर जब हमको पता लगा कि इन्ही तरह इधर उधर फेक देने से जंगलन में आग लग जात है तो हम अपने आदमी को नहीं पीने देते बीड़ी। हमाए जानवर भी मर गए थे जंगल की आग में एक बार।
उन्हीं में से एक महिला ने कहा कि एक बार जंगल में आग लग जाने की वजह से उसकी दो बकरियां मर गयी थीं, तब से ही वो अपने पति को बीड़ी नहीं पीने देती। "हमाए यहाँ बीड़ी पीते रहे। फिर जब हमको पता लगा कि इन्ही तरह इधर-उधर फेक देने से जंगलन में आग लग जात है तो हम अपने आदमी को नहीं पीने देते बीड़ी। हमाए जानवर भी मर गए थे जंगल की आग में एक बार," सगुनी ने बताया।
सगुनी और हाथियों के उस महावत, बाल कुमार रौतिया ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि जंगलों या वन्य जीवों को बचाने के लिए किसी बड़ी डिग्री नहीं बल्कि एक ज़िम्मेदारी महसूस करने की ज़रुरत है ताकि आने वाले समय में हम प्रकृति के कर्ज़दार न बन के रह जाएं।