बांस बनेगा मिर्जापुर में आदिवासी महिलाओं के आमदनी का जरिया

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में वन विभाग आदिवासी महिलाओं के दस्तकारी के हुनर को तराश रहा है। स्थानीय स्तर पर मौजूद बांस का उपयोग कर इन महिलाओं की आमदनी को बढ़ाने के प्रयास हो रहे हैं। इस काम में असम की एक डिजाइन कंसल्टेंट की मदद भी ली जा रही है। कुछ पुरुष भी इस फ्री ट्रेनिंग में शामिल हुए और अब वे बांस से ज्वेलरी, राखी, चटाई, शोपीस, फूलदान जैसी चीजें बना रहे हैं।

Update: 2021-08-20 06:17 GMT

मड़िहान (मिर्जापुर), उत्तर प्रदेश। मड़िहान के कॉमन सर्विस सेंटर में एक सुहानी सुबह, मॉनसूनी हवा का ठंडा झोंका आदिवासी महिलाओं के मुस्कुराते हुए चेहरों को छूकर गुजर जाता है। ये महिलाएं दरी पर बैठी हैं और उनके आसपास बांस के अलग अलग आकार और शेड के टुकड़े रखे हैं। पास ही मेज पर कुछ ज्वेलरी, फूलदान, शोपीस, कप प्लेट और लैंपशेड फैले हैं। पहली नजर में ये विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि इन सभी समानों को धरकार जनजाति की इन महिलाओं ने बांस से बनाया है। इनमें से कई महिलाएं तो पढ़ी लिखी भी नहीं हैं।

70 वर्षीय रमना देवी मिर्जापुर के भरूहना गांव में रहती हैं, जो राज्य की राजधानी लखनऊ से लगभग 300 किलोमीटर दूर है। वह चार अगस्त से मरिहान कॉमन सर्विस सेंटर आ रही हैं। तभी मिर्जापुर वन विभाग ने आदिवासी महिलाओं को बांस से तरह-तरह के उत्पाद बनाने के लिए 15 दिन का ट्रेनिंग कार्यक्रम शुरू किया था। इस क्षेत्र में बांस खूब होता है।

मिर्जापुर के भरूहना गांव की रमना देवी भी यहां सीख रही हैं।

रमना देवी को उम्मीद है कि इससे उनकी कमाई बढ़ेगी क्योंकि अब उनके पास बाजार और थोक व्यापारियों को बेचने के लिए कई तरह का समान है।

उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, "एक बांस के डंडे की कीमत लगभग 200 रुपये है। आमतौर पर हम इससे हाथ वाला पंखा बनाते थे। एक बांस से लगभग 100 पंखे बन जाते हैं।" पूरे विश्वास के साथ वह आगे कहती हैं, "पहले हमें हाथ से बने एक पंखे के 50 रुपये मिला करते थे। लेकिन अब हमने बांस से चटाई बनाना भी सीख लिया है। चटाई बनाने में वैसे तो ज्यादा समय लगता है लेकिन हम उन्हें पंखे से कहीं ज्यादा कीमत पर बेच सकते हैं।"

यह प्रशिक्षण शिविर जिला वन विभाग की एक अनोखी पहल है जिसमें स्थानीय ग्रामीणों को बांस से उत्पाद बनाने की फ्री ट्रेनिंग दी जाती है ताकि उनकी आमदनी बढ़ाई जा सके। मिर्जापुर की मरिहान तहसील में कई आदिवासी लोगों के पास जमीन नहीं है या फिर मुश्किल से एक एकड़ जमीन है। उनके पास आमदनी का कोई जरिया नहीं है। वे या तो खेती हर मजदूर के रूप में काम करते हैं या फिर खेती से अपना गुजारा चलाते हैं। कोविड-19 महामारी ने उनकी स्थिति को और खराब कर दिया है।


यह 15 दिवसीय बांस प्रशिक्षण शिविर 8 अगस्त से लेकर 18 अगस्त तक चला। एक दिन में औसतन 25 आदिवासी ग्रामीणों को ट्रेनिंग दी गई जिसके लिए डिजाइन कंसल्टेंट नीरा शर्मा असम से यहां आईं हैं।

आदिवासी महिलाओं को बांस के उत्पाद बनाने की ट्रेनिंग

असम के तेजपुर जिले की रहने वाली नीरा शर्मा बांस से कई प्रकार की चीजें बनाने में माहिर हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने धार आदिवासी समुदाय के दस्तकारी के हुनर को तराशने के लिए उन्हें 1300 किलोमीटर दूर से यहां बुलाया है।

गांव कनेक्शन से बात करते हुए वह कहती हैं, "आमतौर पर मेरा ध्यान उन रास्तों को तलाशने में रहता है जहां हम प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर अपना जीवन जी सकें। मैं भारत के गांवों में घुमती हूं और उन्हें ऐसा हुनर सिखाने की कोशिश करती हूं जिससे वह अपने आसपास की चीजों का इस्तेमाल करके अपनी स्थिति में सुधार ला सकते हैं।"

शर्मा के अनुसार, बांस एक ऐसा रिसोर्स है जो गांव वालों की रोजी रोटी का जरिया बन सकता है। कंसल्टेंट आगे कहती हैं, "बांस पर्यावरण के अनुकूल (ईको फ्रेंडली) हेंडिक्राफ्ट के लिए बेहतर अवसर है। बांस जैसे प्राकृतिक संसाधनों से बाजार के लिए काफी आकर्षक चीजें बनाकर गांव वाले नियमित आय प्राप्त कर सकते हैं।" वह आगे कहती हैं, "ग्रामीण महिलाओं में सीखने की गजब की शक्ति है और हाथ से चीजें बनाने का हुनर तो उनके पास पहले से ही होता है।

असम के तेजपुर जिले की रहने वाली नीरा शर्मा बांस से कई प्रकार की चीजें बनाने का प्रशिक्षण दे रही हैं। 

45 साल की मीरा भी शिविर में ट्रेनिंग ले रही हैं। वह इसके लिए कंस्लटेंट को धन्यवाद देती हैं और कहती है कि उन्हें उम्मीद है अब उनका फायदा पहले से काफी बढ़ जाएगा।"

वह गांव कनेक्शन को बताती हैं, "एक बांस से कैसे ज्यादा से ज्यादा कमाई की जा सकती है, ट्रेनिंग का यही उद्देश्य है। पहले हमें बांस से बनाए गए एक समान से मुश्किल से 50 रुपए मिलते थे। लेकिन अब हमने इससे बहुत सारी चीज़ें बनाना सीख लिया है, मसलन चूड़ियां, कान के झुमके और भी बहुत सी छोटी-छोटी चीजें। अब हम एक आइटम से लगभग 200 रुपए तक कमा सकते हैं। इनका साईज छोटा होता है तो बांस भी ज्यादा नहीं लगता।"

पुरुष भी इस ट्रेनिंग में शामिल हुए

इस बीच कुछ स्थानीय पुरुष भी हस्तशिल्प प्रशिक्षण कार्यक्रम में शामिल हुए हैं। शाहपुर के भरवाना गांव का रहने वाला 35 वर्षीय अशोक कुमार प्रशिक्षण शिविर में मौजूद तीन पुरुषों में से एक हैं। कैंप में महिलाओं (22 महिलाएं और तीन पुरुष) की संख्या ज्यादा है। वह गांव कनेक्शन से कहते हैं कि पहले एक बांस से जितना समान बनाया जाता था, अब उसी बांस से वह तीन गुना ज्यादा समान बना सकते हैं। अपने बनाए गए सामान को बाजार में ले जाने और बेहतर मुनाफा कमाने के लिए वह काफी उत्साहित हैं।


काफी खुश दिख रहे कुमार कहते हैं, "पहले हम बांस से टोकरी, हाथ का पंखा, झुनझुना (बच्चों के लिए बजाने वाला खिलौना) या छलनी जैसी साधारण चीजें ही बनाते थे। लेकिन अब मुझे गुड़ियां, ज्वैलरी व सजावटी सामान बनाना और उन पर जानवरों की नक्काशी करना आ गया है। मुझे यकीन है कि अब इनकी बेहतर कीमत मिलेगी और मेरी आमदनी भी बढ़ जाएगी।"

35 वर्षीय अशोक कहते हैं "फ्री में सिखाया जा रहा है जब सीख जाएंगे और प्रभु की इच्छा होगी तो आगे कार्यक्रम अच्छा रहेगा। (फ्री में प्रशिक्षण दिया जा रहा है। भगवान की इच्छा रही तो जीवन में चीजें बेहतर होंगी। जब मैं इन चीजों को अच्छे से बनाना सीख जाऊंगा और अच्छे से कमाने लग जाऊंगा।"


इस बीच जिला वन अधिकारी (डीएफओ) पी एस त्रिपाठी ने गांव कनेक्शन को बताया कि यह प्रशिक्षण शिविर गांव वालों के बीच काफी लोकप्रिय है।

त्रिपाठी कहते हैं, "यह एक सफल कार्यशाला रही है। वे बांस से काफी सारा समान बनाना सीख रहे हैं। अब उन्हें खुद पर ज्यादा भरोसा है। वे जिन सामानों को बना रहे हैं उन्हें उनकी अच्छी कीमत मिलेगी और इससे उनकी आमदनी भी बढ़ जाएगी।"

राष्ट्रीय बांस मिशन के सहयोग से लगाया कैंप

मिर्जापुर के इस प्रशिक्षण शिविर का आयोजन केंद्रीय कृषि मंत्रालय के राष्ट्रीय बांस मिशन के सहयोग से किया गया है। केंद्र सरकार ने 2006 में राष्ट्रीय बांस मिशन की शुरुआत की थी। फिर 2019 में इसे पुर्नगठित किया गया ताकि स्थानीय कारीगर बांस का उपयोग कर सकें और अपने उत्पादों के लिए बेहतर मूल्य प्राप्त कर सकें।


पुनर्गठन के साथ ही, 2017 में भारतीय वन अधिनियम में भी संशोधन किया गया जिसमें बांस को, पेड़ों की श्रेणी से हटा दिया गया था। अब जंगलों से बाहर लगाए गए बांस को काटने और एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए किसी अनुमति की जरूरत नहीं है।

अनुवाद: संघप्रिया मौर्या

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