मौसम में बदलाव से धान की फसल को बर्बाद कर रहा कंडुआ रोग, इन बातों का ध्यान रखकर बचा सकते हैं फसल

धान की बालियों पर लगने वाली इस बीमारी को आम बोलचाल की भाषा में लेढ़ा रोग, गंडुआ रोग, बाली का पीला रोग/ हल्दी रोग, हरदिया रोग से किसान जानते है। वैसे अंग्रेजी में इस रोग को फाल्स स्मट और हिन्दी में मिथ्या कंडुआ रोग के नाम से जाना जाता है।

Update: 2021-10-08 11:36 GMT

तापमान में उतार-चढ़ाव और हवा इस रोग को बढ़ने में मदद करते हैं, इसलिए अगर किसी भी खेत में इसका लक्षण दिखता है तो किसानों को सचेत हो जाना चाहिए। फोटो: दिवेंद्र सिंह

धनंजय यादव की धान की फसल में अभी बालियां लगनी शुरू हुईं थी कि पिछले एक हफ्ते से बालियों में पीले रंग की गांठ बनने लगी, सिर्फ धनंजय ही नहीं उनके आस पास के कई किसानों की फसल का यही हाल है, जब कृषि विज्ञान केंद्र में फोटो भेजी तो पता चला कि इस बार फिर फसल में कंडुआ रोग लग गया है।

धनंजय यादव (26 वर्ष) पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले पिंडहरा गांव के किसान हैं और इस बार छह बीघा में धान की फसल लगाई है। धनंजय यादव बताते हैं, "पिछले साल भी हमारे यहां यही हुआ था, पूरी फसल में हरदिया रोग लग गया था, पहले 6 बीघा में 50-55 कुंतल धान पैदा हो जाता था, लेकिन रोग के कारण 30-35 कुंतल ही धान हुआ था।"

धनंजय यादव की धान की बालियों में लगा कंडुआ रोग। फोटो: धनंजय यादव

वो आगे कहते हैं, "इस बार भी जब शुरू में लगा तो समझ नहीं पाए पास की दुकान पर गए तो वो नहीं बता पाए, जब कृषि विज्ञान केंद्र बलिया में फोटो भेजी तब उन्होंने बताया कि हरदिया ही है। सिर्फ मेरी फसल ही नहीं मेरे पूरे गांव में सभी की फसल में रोग लगा हुआ है।"

कंडुआ रोग (False smut) रोग की वजह से फसल उत्पादन पर असर पड़ता है, अनाज का वजन कम हो जाता है और आगे अंकुरण में भी समस्या आती है। ये रोग जहां उच्च आर्द्रता और 25-35 सेंटीग्रेड तापमान होता है वहां पर ज्यादा फैलता है, ये हवा के साथ एक खेत से दूसरे खेत उड़कर जाता है और फसल को संक्रमित कर देता है। इसमें शुरूआत में पीली गांठ पड़ती है बाद में वो काली पड़ जाती है।

कृषि विज्ञान केंद्र, सोहांव, बलिया के अध्यक्ष डॉ. रवि प्रकाश मौर्या बताते हैं, "पहले यह रोग कम दिखायी देता है, लेकिन पिछले कुछ साल से यह तेजी से बढ़ रहा है। इस बार भी कई किसानों ने कंडुआ रोग के बारे में बताया पिछले साल से इसका प्रकोप ज्यादा दिखायी दे रहा है। धान जैसे-जैसे तैयार होता है, वैसे-वैसे ही इसका प्रकोप बढ़ने लगता है।"


पौधे से बाली निकलने के समय धान पर कंडुआ रोग का असर बढ़ने लगता है। इस रोग के कारण धान के उत्पादन पर असर पड़ने की संभावना बनी रहती है। धान की बालियों पर होने वाले इस रोग को आम बोलचाल की भाषा में लेढ़ा रोग , गंडुआ रोग , बाली का पीला रोग / हल्दी रोग से किसान जानते है। वैसे अंग्रेजी में इस रोग को फाल्स स्मट और हिन्दी में मिथ्या कंडुआ रोग के नाम से जाना जाता है।

तापमान में उतार-चढ़ाव और हवा इस रोग को बढ़ने में मदद करते हैं, इसलिए अगर किसी भी खेत में इसका लक्षण दिखता है तो किसानों को सचेत हो जाना चाहिए।

यह रोग अक्तूबर माह के मध्य से नवंबर तक धान की अधिक उपज देने वाली प्रजातियों में आता है। लेकिन मौसम में बदलाव के कारण पूर्वांचल और बिहार के कई जनपदों मे सितंबर से यह रोग बालियों मे दिखाई देने लगता है। जब वातावरण में काफी नमी होती है, तब इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। धान की बालियों के निकलने पर इस रोग का लक्षण दिखाईं देने लगता है।

"ग्रसित धान का चावल खाने पर स्वास्थ्य पर असर पड़ता है प्रभावित दानों के अंदर रोगजनक फफूंद अंडाशय को एक बडे़ गांठ में बदल देता है। बाद में जैतुनी हरे रंग के हो जाते है। इस रोग के प्रकोप से दाने कम बनते है और उपज में दस से पच्चीस प्रतिशत की कमी आ जाती है।यूरिया की मात्रा आवश्यकता से अधिक न डाले। मिथ्या कंडुआ रोग से बचने के लिए नियमित खेत की निगरानी करते रहे।एक दो पौधो की बाली में रोग दिखाई देने पर पौधो को उखाड़ कर जला दें, "डॉ रवि ने आगे बताया।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में पिछले साल इसका काफी प्रकोप देखा गया था, जिसकी वजह से धान का उत्पादन आधा रहा गया था। फोटो: दिवेंद्र सिंह

कंडुआ रोग, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश और जम्मु-कश्मीर जैसे प्रमुख धान उत्पादक राज्यों में देखा जाता है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में पिछले साल इसका काफी प्रकोप देखा गया था, जिसकी वजह से धान का उत्पादन आधा रहा गया था।

"इस रोग से बचने के लिए किसान को शुरू से ही ध्यान देना चाहिए। हमेशा बीजोपचार के बाद ही धान की बुवाई करनी चाहिए, क्योंकि इसके स्पोर बीज के साथ रह जाते हैं, अगर हम शुरू में ही बीजोपचार करते हैं तो ये खत्म हो जाते हैं। अगर किसान ने शुरू में ही बीजोपचार नहीं किया है तो इसका संक्रमण बढ़ने का खतरा ज्यादा होता है, "बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक डॉ. विनोद कुमार श्रीवास्तव कंडुआ से बचने की सलाह देते हैं।

उत्तराखंड के धान उत्पादक नीचे के जिलों में भी पिछले दो सालों से इसका प्रकोप देखा जा रहा है। गांव कनेक्शन ने देहरादून जिले के सरखेत गांव में कई धान के खेतों में इसका प्रकोप देखा है।

उत्तराखंड के देहरादून जिले में मालदेवता के पास सरखेत गांव में धान की फसल में लगा कंडुआ रोग। फोटो: दिवेंद्र सिंह

कृषि विज्ञान केंद्र, देहरादून के प्रभारी व प्रमुख वैज्ञानिक डॉ अशोक कुमार शर्मा कहते हैं, "देहरादून में पिछले साल भी कंडुआ को रिपोर्ट किया गया था, इस बार भी कई किसानों के फोन आ रहे हैं, इसका प्रकोप तराई क्षेत्र में ज्यादा होता है। अगर किसान धान बुवाई से पहले ही ध्यान दें तो इस रोग से फसल बचा सकते हैं, लेकिन अगर बालियां लगते समय यह रोग लगता है तो फसल बचाना मुश्किल हो जाता है।"

लेकिन अगर रोग के शुरूआती दौर में इस पर रोक लग जाए तो काफी हद तक इस पर नियंत्रण किया जा सकता है। डॉ रवि बताते हैं, "अगर शुरू में ही इसके लक्षण दिखें तो कार्बेन्डाजिम 50 डब्लू. पी. 200 ग्राम अथवा प्रोपिकोनाजोल-25 डब्ल्यू़ पी 200 ग्राम को 200 लीटर पानी मे घोल कर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करने से रोग से मुक्ति मिलेगी। बहुत ज्यादा रोग फैल गया हो तो रसायन का छिड़काव न करें। कोई फायदा नही होगा। रोग ग्रस्त बीज को अगली बार प्रयोग न करें।


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