लापता लेडीज़: आखिर कौन हैं गाँव की ये लापता दुल्हनें, क्या हैं इनके सपने?

एक समय था जब फिल्मों में गाँव दिखते थे, लेकिन अब हमें तलाशने पर भी कहीं गाँव नज़र नहीं आते। लेकिन हाल ही में किरण राव की फिल्म 'लापता लेडीज़' में गाँव के मुद्दों को दिखाया गया है, जिसे देखने के बाद आप अपनी दादी-नानी के गाँव तक पहुँच जाएँगे।

Update: 2024-04-08 13:43 GMT

साल 2001, शादी का मंडप, जिसमें बैठे दूल्हे दीपक कुमार अपनी दुल्हन फूल को साथ ले जाने की तैयारी में हैं।

मंडप से निकलते ही फूल लंबे घूँघट में आ जाती है; फिर क्या लाल चुनरी में सुनहरे रंग के गोटे के घूँघट में फूल और शर्माते हुए कोट पैंट पहने दीपक कुमार निकल पड़ते हैं, अपने नए जीवन के सफर पर।

स्कूटर, नाव और बस से होते हुए जब दोनों यात्रियों से भरी ट्रेन की बोगी में घुसते हैं, तो शुरू होती है कहानी..

फ़िल्म की कहानी में आगे बढ़ने से पहले एक बार अपने आस पास के गाँवों में देखें तो नई दुल्हनें ही नहीं, बुजुर्ग औरतें भी लंबे घूँघट में दिखती हैं। अपने गाँव में ऐसी ही एक दादी को देखा था, उनके बारे में कहा जाता है था कि उनका चेहरा घर वालों अलावा किसी ने नहीं देखा था, उनकी पूरी ज़िंदगी उनकी उसी घूँघट के पीछे कट गई।

चलिए फ़िल्म की कहानी से बिना भटके एक बार उसी ट्रेन की बोगी में पहुँचते हैं, जिसमें अभी-अभी फूल और दीपक चढ़े थे। ठसाठस भरी बोगी में दीपक फूल के लिए जगह तलाश रहा है, एक जगह रुकता है और कहता है- लेडीज़ हैं बैठा लीजिए; फूल को तो सीट मिल जाती है, दीपक अभी भी एक कोने में खड़ा रहता है, उस बर्थ में दो और भी नवविवाहित जोड़े बैठे होते हैं, फिर शुरू होती है दहेज की बात, किसको क्या मिला।


किसी को सोना मिला है तो किसी को मोटरसाइकिल, एक दूल्हे की माँ बड़े गर्व से दहेज की बात करती हैं। दीपक अभी शांत खड़ा है। थोड़ी देर बाद दीपक टॉयलेट के लिए जाता है और लौटता है तो फूल खिड़की वाली सीट की तरफ खिसक जाती। अगर आप भारतीय रेल का सफर करते हैं तो उस समय सीट पर बैठी यात्रियों से खुद को रिलेट कर सकते हैं, कैसे थोड़ी से फैलने की जगह मिलने पर लोग फैल जाते हैं, और जैसे जैसे भीड़ बढ़ती है कम जगह में ज़्यादा लोग एडजस्ट हो जाते हैं।

रेल यात्रा पर फिर कभी बात करेंगे; अभी फिल्म की कहानी से नहीं भटकना है। कुछ घंटों बाद रात में दीपक का स्टेशन आ जाता है, नींद में दीपक दुल्हन से उतरने को कहता है, लाल साड़ी और चुनरी ओढ़े दुल्हन उसके पीछे उतर जाती है।

दोनों लोग पहुँचते हैं, दीपक के गाँव सूरजमुखी; जहाँ दीपक के यार दोस्त बैंड बाजा लेकर उन दोनों का इंतज़ार कर रहे होते हैं। सिर पर पेट्रोमैक्स लिए, बैंड बाजा की धुन, आप अपने बचपन के गाँव पहुँच जाएंगे।

सब लोग दीपक के घर पहुँचते हैं, दीपक की माँ, पिता जी, दादी, भाभी सभी स्वागत के लिए तैयार रहते हैं। स्वागत के लिए दुल्हन का घूंघट उठाया जाता है, माँ के हाथ से थाली छूट जाती है; झन्न कर के ज़मीन पर आवाज़ करती है। दीपक का भतीजा बबलू चिल्लाता है, 'चाची बदल गई'।


बस यहीं से शुरू होती है असली कहानी, दुल्हन फूल कुमारी नहीं, किसी और की दुल्हन पुष्पा रानी है।

जब दीपक के साथ पुष्पा रानी हैं तो आखिर फूल कुमारी कहाँ हैं, इसके लिए फिर से उसी ट्रेन के डिब्बे में जाना होगा। फूल कुमारी अभी भी उसी में बैठी हैं, कि तभी पतीला स्टेशन आता है, वहाँ एक दूसरा दूल्हा प्रदीप कुमार फूल को अपनी पत्नी समझ कर उतार लेता है, और जब चेहरा देखता है तो पता चलता है ये तो उसकी पत्नी जया नहीं है।

इधर फूल परेशान होकर चारों तरफ अपने पति को ढूंढ रही है, उसे क्या पता कि उसका पति उसकी जगह पुष्पा कुमारी को लेकर 9 स्टेशन पहले ही उतार गया है।

इधर फूल परेशान है तो उधर दीपक भी..

दो दुल्हनें लेकिन दोनों के दूसरे के विपरीत; एक पति का नाम नहीं ले सकती, दूसरी बेझिझक नाम लेती है।

पूरी फिल्म इन्हीं दो किरदारों के आसपास बुनी गई है, 'लापता लेडीज' सिर्फ मनोरंजन नहीं करती, आप देखेंगे कि इन चार-पाँच दिनों में उन दोनों के साथ उनके आसपास के लोगों की दुनिया भी बदल जाती है।

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इन दोनों के आसपास जितने भी किरदार हैं, उनको देखकर लगता है, कि आप उनसे पहले भी मिल चुके हैं। फिल्म में सीन है, जब रात में दीपक की दादी, अम्मा, और भाभी पुष्पा के साथी बैठी हैं, और कमलककड़ी की सब्जी पर बात होती है तो दीपक की अम्मा कहती हैं, 'उन्होंने इसलिए कमलककड़ी की सब्जी बनानी बंद कर दी क्योंकि दीपक और बाऊ जी को नहीं पसंद नहीं है', आगे ये भी कहती हैं अब औरतों की पसंद का कहाँ बनेगा।

आगे एक और डायलॉग है-'घर की औरतें, सास, ननद, जेठानी तो बन जाती हैं, लेकिन सहेली नहीं बन पाती।

फिल्म के संवाद, गाँव की गली, दरवाजे पर बंधी भैंस, गेहूँ के खेत, इन्हें देखकर लगेगा जैसे कि ये कहानी आपके ही किसी जानने वाले गाँव में कही जा रही है।

गाँव और खेतों के साथ फिल्म की कहानी में भी आगे बढ़ते हैं, उधर फूल रानी स्टेशन पर दीपक की राह तक रही तो इधर पुष्पा घर वालों से घुल मिल रही है। पुष्पा का किरदार ऐसा है कि शायद कुछ तो गलत है।

पुष्पा की खेती की जानकारी से सभी प्रभावित होते हैं, साल 2001 वो दौर था जब जैविक खेती पर करनी शुरू हो गई है। पुष्पा की कहानी, उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर की नीतू सिंह से मिलती-जुलती है, गाँव कनेक्शन ने कई साल पहले उनपर आर्टिकल लिखा था और स्वयं अवार्ड्स से भी सम्मानित किया था। नीतू भी खेती में कुछ करना चाहती थी, लेकिन गाँव वाले और किसान एक लड़की की बात कहाँ सुन सकते थे, लेकिन अपने ज्ञान से धीरे-धीरे उन्होंने सभी प्रभावित किया और हजारों की संख्या में किसानों को खेती सिखाई।

फिल्म में गेहूँ के खेत में खड़े होकर पुष्पा कहती है- खेती विश्वास से नहीं, विज्ञान से होती है।

पूरी फिल्म में अगर पुलिस अधीक्षक श्याम मनोहर की बात न की जाए तो कहानी अधूरी ही रहेगी। इस किरदार को अभिनेता रवि किशन ने बखूबी निभाया है। मुँह में पान दबाए, ग्रामीण भारत के पुलिस चौकी और थानों में ऐसे न जाने कितने मनोहर मिल जाएँगे।

एक ऐसा किरदार जिसे आप समझना तो चाहते हैं, लेकिन आखिर तक नहीं समझ पाते हैं।

ऐसी फिल्में कम ही बनती हैं, किरण राव ने हर एक किरदार के साथ न्याय किया है। अब वो चाहे मूर्ति स्टेशन पर ब्रेड-पकौड़ा और चाय बेचने वाली मंजू माई हो या फिर छोटू, जिसने स्टेशन पर फूल कुमारी का साथ दिया।

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