पढ़ना चाहती हैं पर पढ़ नहीं पातीं एसिड पीड़िताएं

Update: 2016-07-14 05:30 GMT
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लखनऊ। बचपन से ही डॉक्टर बनने का सपना देखने वाली पूजा (21 वर्ष) आज एक कैफे में काम कर रही है। ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि पूजा मेडिकल परीक्षाएं पास नहीं कर पाई बल्कि इसलिए हुआ क्योंकि कक्षा आठ के बाद उसकी पढ़ाई छूट गई थी क्योंकि हर स्कूल ने उसे दाखिला देने से मना कर दिया था।

पूजा पर उसके पिता ने बचपन में ही तेजाब फेंक दिया था जिसके बाद उसका चेहरा पूरी  तरह से झुलस गया और इलाज के बाद भी सही नहीं हो सका। पूजा बताती हैं, “ मैं तेरह साल की थी जब मेरे पिता ने मेरी मां और चार साल की बहन पर तेजाब फेंक दिया था। बहन की तो मौत हो गई लेकिन मैं और मेरी मां बच गए। मैं डॉक्टर बनना चाहती थी लेकिन स्कूल वालों ने मेरा नाम काट दिया क्योंकि मेरे साथ के बच्चे मुझे देखकर भागते थे। टीचर को भी मुझे देखकर अच्छा नहीं लगता था।” 

पूजा की मां सुषमा (45 वर्ष) बताती हैं, “मेरी बेटी पढ़ाई में बहुत अच्छी थी लेकिन किसी भी स्कूल में दाखिला कराने के एक महीने बाद उसे ये कहकर हटा दिया जाता था कि बाकी बच्चों के अभिवावक  शिकायत करते हैं कि उनके बच्चों की भी पढ़ाई खराब हो रही है।”

तेजाब हमले की घटनाएं हमारे देश में लगातार बढ़ रही हैं लेकिन तेजाब बिक्री पर पूरी तरह से रोक नहीं लग पा रही है। गृह मंत्रालय 2014 के आंकड़ों के अनुसार भारत में 309 तेजाब हमले के मामले दर्ज किए गए, जिसमें उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा 185 मामले सामने आए।  

वर्ष 2013 से पहले एसिड हमलों को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाता था। सुप्रीम कोर्ट ने तेजाब हमलों पर लगाम लगाने और पीड़िता को मुआवजा दिलाने व इलाज के लिए कानून बनाने के संबंध में याचिका पर सुनवाई करने हुए 2013 में आदेश दिए। इसी दौरान तेजाब की बिक्री को नियंत्रित करने और महिलाओं पर हमलों में इसके इस्तेमाल पर रोक लगाने में सरकार के द्वारा पर्याप्त कदम न उठाए जाने पर एतराज भी जताया था। 

तेजाब हमले का शिकार हो चुकी कविता बताती हैं (25 वर्ष), “ऐसे मामलों में पढ़ाई बीच में रूक ही जाती है, न कहीं नौकरी मिलती है क्योंकि चेहरा पहचान होती है और हमें देखकर लोग डरने लगते हैं। रिश्तेदार, दोस्त कोई हमें पंसद नहीं करता। शादी या किसी भी शुभ अवसर पर हमें लोग देखना नहीं पसंद करते और हम जैसे लोगों को घर का कोना ढूढ़ना पड़ता है।”

छांव फाउंडेशन, जो तेजाब पीड़ित महिलाओं के सशक्तीकरण पर पिछले तीन वर्षों से काम कर रही है, उसके सह संस्थापक आशीष बताते हैं, “अभी सबसे बड़ी जरूरत यही है कि पीड़ित महिलाओं को सशक्त बनाया जाए। उन्हें भी स्कूल और कॉलेजों में दाखिले मिले क्योंकि वो भी हमारे जैसे ही हैं किसी और ग्रह से नहीं आए हैं। लेकिन अभी समाज ऐसे लोगों से किनारा कस लेता है और जो पीड़िताएं हैं वो खुद को दोषी मानकर घर में खुद को कैद कर लेती हैं।”

वो आगे बताते हैं, “पीड़िताओं से बात करने पर पता चला कि वो भी कुछ करना चाहती हैं, सीखना चाहती हैं तो हम उन्हें कौशल विकास की ट्रेनिंग देते हैं जिससे वो वो दोबारा आत्मविश्वास के साथ खड़ी हो सकें।” 

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