'कृपया यहां गाड़ी न रोके‍ं, आप दुश्मन के सीधे निशाने पर हैं' : करगिल युद्ध के रिपोर्टर की डायरी 

Update: 2019-07-26 08:15 GMT
करगिल रिपोर्टिंग के दौरान नीलेश मिसरा (बांये तरफ) 

करगिल युद्ध की कवरेज के दौरान भारतीय सेना के लिए हमारे मन में सम्मान जो पहले था वो अब और ज्यादा बढ़ गया था। हमने देखा कि कैसे मुश्किल परिस्थितियों में सैनिक जान की बाजी लगाकर काम करते हैं। ये भी देखा कि किस तरह से आम सैनिकों की उपलब्धियों को अक्सर देश के साथ सामने नहीं लाया जाता..

करगिल युद्ध वो पहला मौका था जब हिंदुस्तान से युवा पत्रकारों को भारतीय सेना ने युद्ध क्षेत्र में संघर्ष के दौरान आने की इजाजत दी थी और कई मायनों में इस युद्ध को कवर करते हुए हमारी जिंदगी बदल गई थी। मई 1999 में जब करगिल युद्ध छिड़ा तब मैं 26 साल का था और एसोसिएट प्रेस (एपी) न्यूज एजेंसी से जुड़ा हुआ था। हालांकि इससे पहले मैंने कश्मीर में उग्रवाद की कवरेज की थी लेकिन इतने बड़े स्तर पर लाइव ऑपरेशन को न कभी कवर किया था न ही इसकी कल्पना कर सकता था।

करगिल युद्ध की कवरेज के दौरान भारतीय सेना के लिए हमारे मन में सम्मान जो पहले था वो अब और ज्यादा बढ़ गया था। हमने देखा कि कैसे मुश्किल परिस्थितियों में सैनिक जान की बाजी लगाकर काम करते हैं। ये भी देखा कि किस तरह से आम सैनिकों की उपलब्धियों को अक्सर देश के साथ सामने नहीं लाया जाता।

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मैं उन सिपाहियों की लिस्ट बना रहा हूं जो शहीद हो गए और उनके नाम बहादुरी पुरस्कार के लिए भेज रहा हूं।
कारगिल के वरिष्ठ अधिकारी ने नीलेश मिसरा से कहा 

मैं मई 1999 में करगिल पहुंचा था मेरे साथ मेरे छायाकार साथी भी थे। पहले दिन हम मश्कोह वैली नाम की जगह पर गए। वहां पहुंचे तो बताया गया कि पत्रकारों को वहां आने की इजाजत नहीं थी। तब मैंने एक सीनियर अधिकारी से गुजारिश की, वे उस वक्त कुछ काम कर रहे थे। उन्होंने सर उठाए बिना मेरी आवाज सुनकर कहा कि लखनऊ में कहां रहते हैं आप? वे शायद मेरे बोलने के लहजे से जान गए थे कि मैं लखनऊ से हूं।

दरअसल वो अफसर भी लखनऊ से थे। बात आगे बढ़ी तो उन्होंने बताया कि करगिल के लिए आते वक्त वे अपने छोटे बेटे को गोद में उठाकर खिला रहे थे। उन्हें पता नहीं था कि वो वापस उससे मिल पाएंगे या नहीं।

उन्होंने मुझसे कहा कि आप जानते हैं कि मैं क्या कर रहा हूं। मैंने कहा नहीं, उन्होंने कहा, 'मैं उन सिपाहियों की लिस्ट बना रहा हूं जो शहीद हो गए और उनके नाम बहादुरी पुरस्कार के लिए भेज रहा हूं।' उस अफसर के अंदर एक नाराजगी थी एक गरिमा भी और जिस तरह उन्होंने अपने परिवार जैसे मानने वाले साथियों को खो दिया था उनके लिए दर्द भी था। इस तरह मानवीय संबंध बने वो काफी समय तक हमारे मन में रहे।

इनसास राइफल से नहीं लगता था सटीक निशाना, बर्फ पर चलने वाले जूतों की थी कमी

जब हम करगिल पहुंचे हमें वहां बहुत से सैनिकों ने बताया कि खड़ी चट्टानों पर उनको रस्सियों के सहारे चढ़ना पड़ा था। पाकिस्तानी घुसपैठिए उनके ऊपर ऊंचाइयों पर बैठे थे और आराम से भारतीय जवानों को निशाना बना रहे थे। हमें ये भी बताया गया कि किस तरह इनसास राइफल जो भारत में बनी थी और करगिल के दौरान सेना में इंट्रोड्यूज की गई थी, उसमें कई खामियां थीं। जैसे उसका निशाना सीधी दिशा में न लगकर थोड़ा सा दाएं-बाएं जाता था। इस तरह भारतीय सैनिक खुद को थोड़ा सा किनारे लक्ष्य साधते हुए निशाना लगाते थे। उस वक्त सैनिकों के पास बर्फीली पहाड़ियों पर चढ़ने के लिए उपयुक्त जूते भी नहीं थे लेकिन बावजूद कमियों के सेना के जवानों का जज़्बा कहीं से कम नहीं था।

हाईवे में हमारा सबसे खतरनाक किस्सा था- करगिल शहर से लगभग 10-15 किमी पहले सड़क का एक हिस्सा था जो पाकिस्तानी सैनिकों से बस कुछ 100 मी दूरी पर था। वहां एक एक बोर्ड लगा था बल्कि अभी भी लगा हुआ है, 'कृपया यहां गाड़ी न रोके आप दुश्मन के सीधे निशाने पर हैं।' यहां सड़क किनारे पत्थर की चुनवाई करके दीवार लगाई गई थी जिस पर गोलियों के निशान उस जगह के खतरनाक होने की गवाही दे रहे थे।

हम लोग उस दौरान दिनभर हाइवे के किनारे लगभग 200-300 किमी यात्रा करते थे। हाइवे में एक तरफ नदी होती थी तो दूसरी तरफ ऊंचे पहाड़। पहाड़ों पर पाकिस्तान की दिशा से शेलिंग (गोले दागना) होती थी। जवाब में भारतीय सेना की तरफ से भी गोले दागे जाते थे। हालांकि जब गोला पाकिस्तान की तरफ से हमारी ओर आता था तो उससे अलग तरह की सीटी की आवाज आती थी।

हाईवे में हमारा सबसे खतरनाक किस्सा था- करगिल शहर से लगभग 10-15 किमी पहले सड़क का एक हिस्सा था जो पाकिस्तानी सैनिकों से बस कुछ 100 मी दूरी पर था। वहां एक एक बोर्ड लगा था बल्कि अभी भी लगा हुआ है, 'कृपया यहां गाड़ी न रोके आप दुश्मन के सीधे निशाने पर हैं।' यहां सड़क किनारे पत्थर की चुनवाई करके दीवार लगाई गई थी जिस पर गोलियों के निशान उस जगह के खतरनाक होने की गवाही दे रहे थे। जब हम वहां से गुजरते थे तो ड्राइवर रेसिंग कार की तरह खतरनाक पहाड़ी रास्तों में करीब 100-125 किमी की रफ्तार से भगाते हुए ले जाता था ताकि हम लोग सुरक्षित रहें। हमें रोज शाम को वहां जान की बाजी खेलते हुए निकलना पड़ता था।

करगिल युद्ध की कवरेज की दौरान हमें खाने-पीने का ध्यान नहीं रहता था। भूख मालूम पड़ने पर वहां स्थानीय ट्रक वालों के छोटे ढाबेनुमा दुकान में नूडल्स और ऑमलेट ही खाते थे। जिस होटल में हम ठहरे थे वहां भी आस-पास बमबारी होती थी, कई जगह टूट-फूट भी हुई थी। इंटरनेट की कोई सुविधा तब नहीं थी तो हम सेटेलाइट फोन के जरिए अपनी खबरें भेजते थे। रिपोर्टिंग के दौरान हम बुलेटप्रूफ जैकेट और हेल्मेट पहनकर रिपोर्टिंग करके खुद को सुरक्षित करते थे। ये भी चिंता रहती थी कि हम रिपोर्टिंग तो कर लेंगे लेकिन खबर कैसे भेजेंगे।

रिपोर्टिंग के दौरान सैनिकों से बात करना हमारे लिए उत्साहवर्धक रहता था। जब हम फौजी टुकड़ियों के पास जाते थे तो उनके लिए पत्रिकाएं और खाने का सामान लेकर जाते थे ताकि उनका कुछ मनोरंजन हो सके।

मुझे एक किस्सा याद आता है जो युद्ध की मार्मिकता को बयां करता है। करगिल की चोटी 4875 पर बहुत भयंकर लड़ाई हुई थी। लड़ाई के बाद घुसपैठियों का सफाया करके भारतीय सेना की टुकड़ी नीचे उतरकर भारतीय बंकर आई। बंकर एक वॉर रूम की तरह होता है जहां नक्शे रखे जाते थे और लड़ाई से जुड़ी योजनाएं बनाई जाती थीं। उस दौरान सेना के मेजर ऑफिसर्स के साथ मैं और साथी पत्रकार भी मौजूद थे। सेना की टुकड़ी युद्ध के दौरान पाकिस्तानी आर्मी की चीजें जो कब्जे में ली गई थीं, वो दिखाने लगीं। उसमें पाकिस्तानी जवानों के हथियार, उनके बैच, कुछ चिट्ठियां और ग्रीटिंग कार्ड भी शामिल था। ग्रीटिंग कार्ड पाकिस्तान के मेजर ऑफिसर की पत्नी ने भेजा था जो ऑफिसर के खून से ही रंगा हुआ था। ये बड़ा मार्मिक दृश्य था जो मेरे मन में काफी वक्त तक तस्वीर बनाए रहा।

अब जब हम सोशल मीडिया पर अक्सर एक फर्जी किस्म की देशभक्ति हम देखते हैं जो लोगों को बांटती है, जो फौज के लिए प्यार दिखाने के नाम पर औरों से घृणा करवाती है तो अक्सर हमें करगिल में बिताएं वो क्षण याद आते हैं। मैं सोचता हूं कि ऐसे कथित देशभक्तों को सेना के जवानों की परिस्थितियों से कुछ लेना देना नहीं है। ये बस सेना के नाम पर हमारी भावनाओं को भड़काते हैं। मैं इस करगिल विजय दिवस पर उम्मीद करता हूं कि भारतीय सेना के नाम पर कथित देशभक्ती दिखाने वालों की सोच में बदलाव आए और फिर हमारे देश को कभी ऐसा युद्ध नहीं लड़ना पड़े जिसमें इतने सारे सैनिकों की जान गई।

(जैसा नीलेश मिसरा ने गांव कनेक्शन से शेफाली श्रीवास्तव को बताया)

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