मातृ दिवस विशेष- अपनी औलाद पालने के लिए दूसरे के बच्चों की भी देखभाल करती है माँ 

Update: 2017-05-14 09:56 GMT
काम के साथ-साथ बच्चे की देखभाल सिर्फ माँ ही कर सकती है।

स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

लखनऊ। काम की जिम्मेदारी और उस पर बच्चे का लालन-पालन। ये दोगुना दबाव और उस पर भी सहज मुस्कुराहट, ये केवल एक मां के लिए ही सम्भव है। खासतौर पर कामकाजी महिलाएं ममता और जिम्मेदारी के बीच तारतम्य स्थापित कर जिस तरह से जीवन की गाड़ी को आगे बढ़ाती हैं, मदर्स डे ऐसी ही महिलाओं को सलाम करने का दिन है। गाँव कनेक्शन ने ऐसी कुछ महिलाओं से बात की जो बच्चे का लालन-पालन के साथ ही काम की भी जिम्मेदारी निभा रही हैं।

आशा बहू शशि देवी बताती हैं, “मैं अपने घर का सारा काम और अपने बच्चे को छोड़कर अन्य महिलाओं की डिलीवरी करवाने अस्पताल चली जाती हूं। मेरा एक छह माह का बेटा है। मुझे ये पता है छह माह तक बच्चे को मां के दूध के सिवाए कुछ नहीं देना होता, लेकिन ये मेहनत मैं अपने बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए करती हूं। मेरे बच्चे औरों की तरह अच्छे स्कूल में पढ़ें और उन्हें भर पेट खाना मिले।”

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बाराबंकी जिला मुख्यालय से 14 किलोमीटर दूर देवा ब्लॅाक की रहने वाली आशा बहू शशि देवी का घर सड़क पर बना है, जिसमें एक दीवार नहीं है। घर में एक बुढ़ी मां और तीन छोटे बच्चे हैं। वह आगे बताती हैं, “अभी मैं इण्टर की पढ़ाई कर रही हूं। बहुत सी आशा बहू हैं, जिनके घर तक नहीं है, जो अपने छप्पर को दूसरों की दिवारों के सहारे टिकाए हैं। घर में एक पक्का शौचालय है, जिसमें दरवाजा लगा है। इसके अलावा पूरे घर में कहीं भी दरवाजा नहीं लगा है।

आशा बहू की जिम्मेदारी बहुत बड़ी है, जिसमें मैं अपने बच्चों की देखभाल करने में कमी करती हूं, लेकिन दूसरी महिलाओं के बच्चों की पूरी जिम्मेदारी लेती हूं।
शशि देवी, आशा बहू

लोहिया अस्पताल में काम करने वाली नर्स गुड़िया पांडे बताती हैं, “मेरी एक तीन साल की बच्ची है और एक चार माह का बच्चा है। मैं चार माह के बच्चे को लेकर रोज अस्पताल जाती हूं, जहां पर अपने काम के साथ-साथ अपनी बच्ची की भी देखभाल करती हूं, लेकिन कई बार ऐसा होता है कि मुझे अपनी बच्ची को अकेली छोड़कर काम करने होते हैं या उसे किसी दूसरी नर्स के पास रोक कर ऑपरेशन थिएटर में जाना होता है।”

बच्चे को छोड़कर काम करने आती हूं

झारखण्ड के बिलासपुर गाँव की रहने वाली सुनीता के तीन बच्चे हैं। सुनीता मजदूरी करके अपने बच्चों का पेट पाल रहीं हैं। सुनीता जिस बिल्डिंग में काम कर रही हैं। वहां बच्चे उनके साथ रहते हैं। सुनीता मजदूरी के साथ-साथ अपने बच्चों के साथ भी समय बिता लेती हैं। सुनीता के साथ और भी कई महिलाएं जो अपने बच्चों को साथ लेकर मजदूरी करती हैं। सुनीता (32 वर्ष) बताती हैं, “अपने बच्चों को छोड़कर मैं रोज काम करने यहां आती हूं, जब रोता है तब दूध पिलाने आती हूं और एक बार दिन में खाना खाते समय उसको अपने पास बुलाती हूं।”

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खेती कर भरती हूं बच्चों का पेट

जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर दूर करेला गाँव की रहने वाली शकुंतला (30 वर्ष) बताती हैं, “मैं अपनी छोटी सी बच्ची को जमीन पर लिटाकर खेती का काम करती हूं जब वह रोने लगती है तभी मैं उस को दूध पिलाती हूं। क्या बताएं, हमारे पास एक बीघे भी खेती नहीं है। मैं दूसरों के खेत में काम करने के लिए जाती हूं जहां अपने बच्चे को जमीन पर लिटा देती हूं। ऐसे ही मैं अपना और अपने बच्चों का पेट भरती हूं।”

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