क्या नयी सरकार की सपेरा समुदाय पर भी पड़ेगी नजर

Update: 2017-03-19 20:23 GMT
सपेरों की एक बड़ी आबादी पूरे प्रदेश में रहती है। फिर भी सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं का लाभ इन्हें नहीं मिल पा रहा है।

नीतू सिंह, स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

कानपुर देहात। सपेरों की एक बड़ी आबादी पूरे प्रदेश में रहती है। फिर भी सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं का लाभ इन्हें नहीं मिल पा रहा है। जबकि वोट देने के लिए देश-दुनिया के किसी भी कोने में रह रहे सपेरे अपने गाँव वापस आ जाते हैं। ऐसे में नई सरकार से सपेरों की भी उम्मीदें जाग गयी हैं।

कानपुर देहात के मैथा ब्लॉक से उत्तर दिशा में तीन किलोमीटर दूर हृदयपुर जोगिनडेरा गाँव है। रजोलनाथ (35 वर्ष) अपने गाँव की झोपड़ियों को दिखाते हुए कहते हैं, “हमारे गाँव में 50 घर हैं, जिसमें सिर्फ सात घर ही पक्के बने हैं। बाकी झोपड़ियां हैं। बरसात के दिनों में इन झोपड़ियों में जगह-जगह से पानी टपकता है, पूरी रात जागकर ही काटनी पड़ती है, हम लोगों के पास इतने पैसे नहीं हैं कि पक्के मकान बनवा पाएं, जो सरकारी आवास आते हैं वो हम लोगों को नहीं मिल पाते हैं। हमारे गाँव में जो सात पक्के मकान हैं वो 10 साल पहले मिले थे,उसमें भी लोगों को 10 हजार रुपए देने पड़े थे।”

साल 1972 से इस गाँव में अन्तीनाथ रहने आये थे और इसके बाद आज पूरी बस्ती बस गयी है। पूरे कानपुर देहात में 15 हजार सपेरे रहते हैं। इनका मुख्य व्यवसाय सांपों को पकड़ना और गाँव-गाँव जाकर लोगों को सांप के दर्शन कराना है।

इसी गाँव के कालिया नाथ (45 वर्ष) बताते हैं, “साल 2005 में जब हमें कालोनी मिली थी, तो हमने घर के गहने गिरवी रखकर 10 हजार दिए थे, अगर किसी को सरकारी योजना का लाभ भी मिलता है तो पहले घूस देना पड़ता है।” वहीं उर्मिला बताती हैं, “हमने भी 10रुपए सैकड़े से ब्याज लेकर दस हजार रुपए दिए, तब कहीं जाकर हमें कालोनी के लिए 35 हजार रुपए दिये गए।” सात कालोनी और सात शौचालयों के अलावा गाँव में और कोई भी सुविधा नहीं दी गयी है। बरसात के दिनों में गाँव की पूरी नालियां पानी से खचाखच भर जाती हैं और आम गलियों से गुजरना मुश्किल हो जाता है।

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इस गाँव की महिलाओं को मनरेगा में काम तो मिल जाता है, लेकिन कभी समय पर पैसे नहीं मिलते हैं। गाँव की मुन्नी देवी (40 वर्ष) बताती हैं, “हमारे गाँव की तमाम महिलाएं मनरेगा में काम करती हैं पर कभी समय से पैसा नहीं मिलता है, पिछले तीन महीनों से पैसा नहीं मिला, अब हम बिटिया का एडमिशन कैसे करायेंगे।”

“गाँव में दो सरकारी नल लगे हैं, वो भी खराब हो गये हैं। पीने का पानी दूसरे गाँव से लाना पड़ता है। कई बार प्रधान जी से कहा पर कोई सुनवाई नहीं होती, सिर्फ वोट देने के समय ही हम लोगों को पहचाना जाता है” ये मरजीना (42 वर्ष) बताती हैं।

मुनेश्वर नाथ (59 वर्ष) हाथ जोड़कर कहते हैं, “किसी अधिकारी की तो नजर पड़े हमारी बस्तियों पर। कोई तो देखे आकर कि हम लोग कितनी मुश्किलों का सामना करते हैं। जिस योजना के पात्र हैं, कम से कम उनको तो लाभ दिया जाए। सांप लेकर अगर हम लोग घूमते हैं तो वन विभाग के अधिकारी पकड़ लेते हैं, हमारा यही मुख्य व्यवसाय है। इन अधिकारियों की वजह से अब तो त्योहारों में शहर भी नहीं जा पाते। अगर जाएंगे तो पकड़ लिया जाएगा, जितने की कमाई नहीं उससे ज्यादा जुर्माना पड़ जाता है।

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