आधुनिकता के दौर में तंगहाली का जीवन गुजार रहे तांगे वाले

Update: 2017-06-25 12:50 GMT
पुश्तैनी विरासत को बचाने के लिए कुछ लोग घाटे पर तांगा चलाने को मजबूर हैं।

स्वयं कम्युनिटी जनर्लिस्ट

रायबरेली। जहां एक ओर नए-नए आधुनिक वाहनों की भरमार है, वहीं दूसरी ओर पुश्तैनी विरासत को बचाने के लिए कुछ लोग घाटे पर तांगा चलाने को मजबूर हैं। रायबरेली जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर दूर जगतपुर ब्लॉक में आज भी तांगे चलते हैं।

ये अपनी पुश्तैनी विरासत को कायम रखने के लिए तांगे से ही रोजी-रोटी चला रहे हैं। जबकि अब इस रोजगार से इनका गुजर-बसर नहीं होता है। ऐसे में अब ये अपने घोड़ों को यूं खुला भी तो नहीं छोड़ सकते हैं और न ही बांध के दाना-पानी करा सकते हैं। तांगा चलने वालों के लिए जीविका चलाना बहुत मुश्किल हो रहा है।

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तेरह साल की उम्र से ही तांगा चला रहे कमलेश कुमार (30 वर्ष) बताते हैं, “हमारे दादा तांगा चलते थे फिर हमारे पापा चलाते थे और अब हम तांगा चला रहे हैं। हम पांचवीं तक पढ़े हैं, बचपन हमारा तांगा चलाने में गुजरा है ऐसे में हम को काम कौन देगा, लेकिन अब हम अपने बच्चों को पढ़ाएंगे उसको इस काम से दूर ही रखेंगे।”

वहीं अब्दुल कलाम (40 वर्ष) कहते हैं, “हम पिछले 25 साल से तांगा चला रहे हैं अब तांगे में सवारी बैठने से शर्माती है उसको शर्म लगती है, जबकि और साधनों से कम पैसे में हम उनको गंतव्य तक पहुंचाते हैं। अब हम केवल फ्रिज, कूलर, धान या अन्य सामान ढ़ोते हैं। तीन से चार किलोमीटर का 50 रुपए लेते हैं और वही डाला, पिकअप वाले 200 रुपए लेते हैं फिर भी हम लोग पीछे हैं।”

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मोहम्मद शमीम (68 वर्ष) ने बताया,“कभी जमाना था कि तांगा, इक्का, बैलगाड़ी ये सब सवारियों की शान हुआ करती थी, लेकिन अब तो सब को जल्दी है सब तेज मोटर-गाड़ी से चलना पसन्द करते हैं कोई बैठता ही नहीं इन पर।”

पिकअप में अलमारी लदवा कर ले जा रहे अरुण (25 वर्ष) बताते हैं, “इन साधनों में भले ही पैसा ज्यादा लगता है, लेकिन जल्दी तो पहुंच जाते हैं और अब 100-200 रुपए के लिए कौन घंटों इंतजार करे।”

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