पीरियड्स के दिनों की मुश्किलों को भाई की मदद ने किया आसान

Update: 2017-05-28 00:06 GMT
महिलाओं को पैड निस्तारण करने के लिए रात के अंधेरे का इंतजार नहीं करना पड़ता।

स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

लखनऊ । माहवारी दिवस पर सलाम इन महिलाओं और किशोरियों को, जिन्होंने न सिर्फ माहवारी पर चुप्पी तोड़ी बल्कि अपनी मुश्किलें खुद ही आसान की हैं । अब इन्हें पैड निस्तारण के लिए रात के अँधेरे का इन्तजार नहीं करना पड़ता है और न ही किसी के ताने सुनने पड़ते हैं । खास बात तो ये है कि कई जगहों पर भाई ने ऐसे में मामलों में बहनों की मदद की। माहवारी के दिनों के पैड निस्तारण के लिए अपने घरों में सस्ती दरों में यहाँ के पुरुष इंसीरेटर बनाने में सहयोग कर रहे हैं जिससे आसपास होने वाली गंदगी अब रुक रही है ।

लखनऊ जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर दूर माल ब्लॉक में 87 परिवारों ने 200 रुपए की लागत में इंसीरेटर बनाएं हैं । माल ब्लॉक से दक्षिण दिशा में मसीड़ा हमीर गाँव की किशोरी अंजली रावत (17 वर्ष) का कहना है, "पहले माहवारी के कपड़े फेंकने के लिए रात भर सो नहीं पाते थे, रात के अंधेरे में ये कपड़े तालाब या खेत में फेंकना पड़ता था। कहीं कोई देख न ले इस बात का हमेशा डर लगा रहता। कई बार गन्दे कपड़े जिसके खेत में डालते पकड़ जाने पर वो बहुत बुरा भला कहते थे।"

महिलाओं को जागरूक किया जा रहा।

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वो आगे बताती हैं,  "एक साल पहले जब हमें इंसीरेटर के बारे में पता चला तो 200 रुपए की लागत में हमारे भाई ने शौचालय के बगल में बनवा दिया। माहवारी के कपड़े इसी में डाल देते हैं। दो चार दिनों में जब कपड़े सूख जाते हैं तो उसमें आग जला देते हैं ।"

अंजली की तरह माल ब्लॉक की सैकड़ों किशोरियां अपने घर में बने इंसीरेटर का प्रयोग कर रही हैं और खुद अपने घरों में बना रही हैं । इन्हें सरकार की किसी योजना का इंतजार नहीं है बल्कि एक गैर सरकारी संस्था वात्सल्य प्लान इण्डिया के सहयोग से माल ब्लॉक में इन्सीरेटर बनने का काम निरंतर जारी है ।

इसी गाँव में रहने वाले एक भाई आनन्द दिवेदी (17 वर्ष) ने अपनी 14 वर्षीय बहन सन्ध्या के लिए खुद इन्सीरेटर बनाया । आनंद की तरह इस ब्लॉक के कई गाँव के भाई अपनी बहनों के लिए और पिता अपनी बेटियों के लिए इन्सीरेटर बना रहे हैं , जो आसपास के लोगों के लिए मिसाल है ।

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महिलाओं और किशोरियों के स्वास्थ्य के लिए काम कर रही वात्सल्य संस्था के माल ब्लॉक के कार्यक्रम समन्यवक डॉ अमित त्रिपाठी बताते हैं, “हमारी अगली कोशिश हैं जिन किशोरियों और महिलाओं ने ये इन्सीरेटर बनाये हैं वो अपने आसपास के दूसरे गाँव में जाकर वहाँ के लोगों को जागरूक करें, ये अपने समुदाय के लिए खुद रोल माडल बने इनसे लोग सीखें और अपने यहाँ बनवाएं ।"

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इन्सीरेटर बनाने से पहले यहाँ के लोगों में कई तरह की भ्रांतियां थी । रीता देवी (36 वर्ष) का कहना है, “हमारी सास कहती थी अगर पीरियड के कपड़े जलाएं गये तो फिर वो महिला कभी गर्भवती नहीं होगी, पर जब मीटिंग मे जाकर हमे ये पता चला कि ये महज एक भ्रांति है, आसपास कपड़े फेंकने से गंदगी होती है इससे पर्यावरण भी प्रदूषित होता है तबसे हमने अपने आस पास के देखादेखी इन्सीरेटर बनाया ।"

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आसपास के कई गाँवों में काम करने वाली ज्योति दिवेदी बताती हैं, “इन लड़कियों को अब बार-बार पैड बदलने में असुविधा नहीं होती है, पहले जो बीमारियाँ होती थी अब ये उससे बच रही हैं, शुरुवात में हमे जागरूक करना पड़ता था अब ये खुद इन्सीरेटर बनाने को तैयार हैं ।"

वो आगे बताती हैं, “अगर कच्चा इन्सीरेटर बनाना है तो कोई लागत नहीं आती, पक्का बनाने में 200 रुपए की लागत आती है, घर में अगर घड़ा है तो किशोरी मटका बन जाता है, इसे इस हिसाब से बनाया जाता है कि ये शौंचालय से सटा हुआ बने, अंगीठी नुमा आकार का ये बनाया जाता है, नीचे छेद से आग जला दी जाती है ऊपर पाइप से धुआं निकल जाता है ।"

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