ऋषि मिश्र
लखनऊ। “यूपी को ये साथ पसंद है” सपा और कांग्रेस के गठबंधन के बाद ये नारा प्रचारित तो बहुत किया गया मगर इसका कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आया। ये बात दीगर है कि अधिकांश लोगों का ये मानना रहा कि, नारा बदल कर ये हो गया कि, “यूपी को ये साथ पसंद नहीं है”। चुनाव के तत्काल पहले किये जाने वाले गठबंधन की राजनीति को उत्तर प्रदेश की जनता ने एक बार फिर से नकार दिया है।
गठबंधन को लेकर चुनाव से पहले ये सोच थी कि, कांग्रेस की जीती हुई और मजूबती से लड़ने वाली सीटों पर सपा न लड़े और सपा की सीटों पर अगर कांग्रेस न लड़े तो मुस्लिम और भाजपा विरोधी वोटों का बड़ा ध्रुवीकरण रुक जाएगा। कागजों पर 2012 के विधानसभा चुनाव के वोट प्रतिशत को देखा जाए तो सपा 29.13 और कांग्रेस ने 11.65 वोट हासिल किये थे, जिसका अर्थ है कि लगभग 41 फीसदी वोट दोनों दलों के पास था। सोचा ये गया था कि, अगर इसको बहुत कम किया जाए, तब इस चुनाव में ये 35 फीसदी तक होना संभव है।
ऐसे में कांग्रेस से गठबंधन सपा के लिए काफी फलदाई होगा। जिसको लेकर हाल ही में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव से कांग्रेसके रणनीतिकार प्रशांत किशोर मिले थे। मगर वास्तविकता ये है कि गठबंधन होने के बाद ही रार शुरू हुई। लगभग 12 सीटों पर सपा और कांग्रेस के प्रत्याशी आमने सामने लड़े। यही नहीं कई जगह बगावत हो गई। गठबंधन की सुर ताल कहीं भी मिलते हुए नजर नहीं आए।
रविदास मेहरोत्रा खुद कहते हैं कि ” हमको इस बात का नुकसान हुआ है। मेरे खुद के खिलाफ कांग्रेस का प्रत्याशी खड़ा कर दिया गया। कांग्रेस को भले ही सपा के साथ आने से लाभ हुआ मगर हमको बहुत नुकसान हुआ।”