अगली बार जब आपको कोई गधा कहे तो ये स्टोरी दिखा देना

गधे के गुण सुधार के लिए वर्ष 1990 में विदेशी गधे पोइतु का फ्रांस से निर्यात किया गया था और 2010 में पोइतु गधे से एआई का मानकीकरण कर लिया गया।

गाँव कनेक्शनगाँव कनेक्शन   20 April 2019 11:33 AM GMT

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अगली बार जब आपको कोई गधा कहे तो ये स्टोरी दिखा देना

गधा (इक़्वस अफ्रीकैनुस ऐसीनस), घोड़े की प्रजाति की एक उप्रजाति 'एसिनस वर्ग' का पशु है। शारीरिक आकार में यह घोड़े से छोटा होता है, कान लंबे होते हैं, पूँछ का आकार और रंग घोड़े से अलग होता है।

ज्यादातर इसको सामान ढोने के लिए पालते हैं। गधे को अधिकतर धोबी और कुम्हार वर्ग के लोगों द्वारा पाला जाता है। आजकल इसका प्रयोग ईंट भट्ठों में और फौज में मालवाहक के तौर पर होता है। गधे के रखरखाव और खाने का खर्च बहुत कम है। गधे को घोड़े की तुलना में अधिक बुद्धिमान माना गया है। दिशा और मार्ग के विषय में गधे की स्मरणशक्ति बहुत तेज है। यह अकेला लगभग 10 मील सामान लेकर आ-जा सकता है।

इस जीव में गजब की सहनशीलता है। इसके चेहरे का भाव हर्ष और विसाद दोनों में एक सा बना रहता है। यह पशु अपनी मंद बुद्धि और हठीलेपन के लिए प्रख्यात है। भारतवर्ष में इसका प्राचीनतम उल्लेख वैदिक साहित्य में मिलता है। प्राचीन साहित्यों में गधे के हित्यों बारे में बहुत सी कहावतें प्रचलित हैं, जैसे "धोबी का गधा, न घर का, न घाट का", "गधे के सिर से सींग की तरह गायब होना" और गधे की दुल्लती आदि।

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कहा जाता है कि रोम की खूबसूरत रानी क्लियोपैट्रा अपनी त्वचा की खूबसूरती के लिए हर रोज पानी की जगह गधे के दूध से नहाती थी। दरअसल अन्य दूध की तुलना में गधी का दूध खट्टा माना जाता है। जब दूध खट्टा होता है, उसमें मौजूद लैक्टोज शुगर लैक्टिक एसिड में बदल जाती है। यह काम दूध में मौजूद बैक्टीरिया 'लेक्टोबैसिलस' करते हैं। इस तरह के एसिड जैसे ही त्वचा पर लगाए जाते हैं, वो 'डेड स्किन' को हटा देते हैं, जिससे नई और चमकदार त्वचा सतह पर आ जाती है।

आनुवंशिक इतिहास

हजारों वर्ष पहले गधे और घोड़ों के पूर्वज समान थे, लेकिन वे बहुत ही अलग प्रजाति के रूप में विकसित हुए हैं। जंगली गधे की दो अलग-अलग प्रजातियां हैं। एशियाई प्रजातियों की शाखा लाल सागर से उत्तरी भारत और तिब्बत तक फैले क्षेत्र से आई है, जहां गधे को विषम जलवायु और ऊंचाई के इलाके पर अपने आप को अनुकूलित करना पड़ा। नतीजा यह हुआ की आज एक से अधिक प्रकार के एशियाई जंगली गधे पाए जाते हैं। प्रजातियों की अफ्रीकी शाखा उत्तरी तट में भूमध्य सागर और सहारा रेगिस्तान के बीच दक्षिण में लाल सागर तक पाई जाती है। आज अफ्रीकी गधे की दो अलग-अलग प्रजातियां हैं। न्यूबियन जंगली गधा और सोमाली जंगली गधा।

आनुवंशिक अनुसंधानों में गधे को अफ्रीकी मूल का जानवर माना गया है, लेकिन इन्हें पालतू बनाये जाने के समय और स्थान के बारे में निश्चित तौर पर कुछ कहना मुश्किल है। वर्ष 2002 में मिस्र में एक शाही कब्रिस्तान की खुदाई कर रहे अमेरिकी पुरातत्वविदों के दल को यकीन था कि वे इतिहास की इस प्राचीनतम पहेली का हल सुलझा देंगे। उन्हें गधों के कंकाल मिलने की उम्मीद कतई नही थीं।

इन गधों को ऐसे दफनाया गया था, मानो ये कोई आला अधिकारी हो। इन कंकालों से पांच हजार साल पहले गधों को पालतू बनाए जाने के प्रमाण मिलते हैं। लगभग 2000 साल पहले गधों को प्रशांत महासागर से रेशम को व्यापारिक सामानों के बदले सिल्क रोड के साथ भूमध्यसागर तक ले जाने के लिए इस्तेमाल किए जाता था। ग्रीस में गधों को संकीर्ण पथों के बीच काम करने के लिए एक आदर्श जानवर माना जाता है। इसी कारण अंगूर के बागानों में खेती के लिए उनका उपयोग भूमध्य देशों से स्पेन तक फैल गया, जिसका दक्षिणी सिरा उत्तरी अफ्रीका के तट तक फैला है और संभवत यह अफ्रीकी जंगली गधे के लिए एक प्रवेश द्वार था।

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गधे का उपयोग कृषि में और भारवाही जानवरों के रूप में किया जाता था। रोमन आक्रमण के साथ गधे इंग्लैंड आए थे। हालांकि 1550 के दशक तक ब्रिटेन में गधे आम नहीं थे और 1650 के दशक तक आयरलैंड में भी दुर्लभ थे। जब ओलिवर क्रोमवेल ने कृषिभूमि पर काम करने के लिए घोड़ों को हटाने के लिए आयरिश लोगों को मजबूर किया, तब गधे एक शक्ति के स्रोत के रूप में अपनाये गए। यह जानवर चुस्त, कठोर और कड़ी मेहनत का रूप है।

भारत में गधे

भारत में बड़े और छोटे आकार के गधे आम हैं। बड़े आकार के गधे रंग में हल्केभूरे रंग के होते हैं। छोटे आकार वाले काले रंग से भूरे रंग के होते हैं। इसके अलवा दो जंगली गधों की प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं। आज, अधिकांश जंगली गधे की प्रजातियां या तो विलुप्त हैं या लुप्तप्राय हैं जिनमें से एक प्रजाति खर जो कि विलुप्त होने के कगार पर हैं। आज सिर्फ कच्छ के रण में पाई जाती हैं और कियांग जो पूर्वोतर राज्य सिक्किम और उत्तर में हिमालय के लद्दाख में पाई जाती है।

ये गहरे भूरे रंग के होते हैं और इनके पेट का भाग सफ़ेद होता है। कियांग जंगली गधे की आबादी तिब्बत, चीन, नेपाल और भारत के पर्वती क्षेत्रों में व्यापक रूप से वितरित है। जंगली गधे कियांग की विभिन्न श्रेणियो में तीन उप-प्रजतियाँ प्रभाषित की गई हैं;- हालांकि इनका वर्गीकरण अभी भी विवादास्पद और अनिश्चित है।

गधे के गुण सुधार के लिए वर्ष 1990 में विदेशी गधे पोइतु का फ्रांस से निर्यात किया गया था और 2010 में पोइतु गधे से एआई का मानकीकरण कर लिया गया। इसके अलावा देश में स्वदेशी नस्लों के घोड़े और गधों के लिए अभयारण्य का निर्माण 2010 में किया गया। हरियाणा, उत्तर प्रदेश और भारतीय सेना एक्वाइन प्रजनन फार्म में आज फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशों से प्राप्त विदेशी नस्ल की अच्छी गुणवत्ता वाले गधे के स्टैलियन पशुपालन विभाग द्वारा रखे जा रहे हैं। इंग्लैंड में स्थापित गधा अभयारण्य संस्था, इन जानवरों के मालिकों संवेदनशील बनाने में मदद के लिए कई देशों के साथ काम करती है और आज दिल्ली, अहमदाबाद, ग्वालियर, सोलापुर और सीकर में पांच परियोजनाएं संचालित कर रही है। लेह-लद्दाख में गधे के लिए एक अभयारण्य भी स्थापित किया गया है।

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स्पीति गधा, भारतीय गधे की एक मात्र पंजीकृत नस्ल है, जो हिमाचल प्रदेश के लाहौल और स्पीति क्षेत्र में पाई जाती है। इस नस्ल का उपयोग कम ऑक्सीजन वाले पर्वतीय वातावरण में काफी लाभकारी है। आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और अन्य राज्यों में गधे के पालन करने वाले लोगों के कुछ अलग गांव हैं। भारतीय मेले का महत्त्व गधों के बिना अधूरा है और कुछ विशेष मेले तो केवल गधों और घोड़ों के लिए ही आयोजित होते हैं, जैसे कि बाराबंकी मेला या देवा मेला जो हर वर्ष अक्टूबर में पूर्णिमा से लगभग एक सप्ताह पहले लखनऊ के पास देवा शरीफ शहर में आयोजित होता है।

धौलेरा के पास साबरमती और वाटरक नदियों के संयोजन पर वाउथा गांव में पांच दिनों के लिए मवेशी मेला आयोजित होता है जो भारत का सबसे बड़ा गधा मेला है। इसी प्रकार उज्जैन, सोनपुर, पुष्कर, नागौर, झालावाड़, गंगापुर(भीलवाड़ा), कलायत मेला और आगरा के पास बटेश्वर मेला। इसके अलावा भारत के अन्य कम ज्ञात मवेशी मेले जैसे कि काराउली पशु मेला, नलवारी पशु मेला, कुंडा मेला, रामदेव मवेशी मेला और कुलकुंडा पशु मेला आदि भी लगते हैं जहाँ गधों का विशेष महत्व है।

खच्चर

गधे और घोड़ी के संकरण से खच्चर पैदा होता है। अगर नर घोड़ा हो और मादा गधा हो तो खच्चर जैसा हिन्नी पैदा होता है। यह गधे और घोड़े दोनो की अपेक्षा अधिक ताकतवर होते हैं और ज्यादा बोझ ढो सकते हैं। खच्चर में जो अतिरिक्त ताकत व सहनशीलता पाई जाती है वह संकर ओज (हाइब्रिड विगर) का परिणाम है। खच्चर में कई विशेषताएं हैं जो घोड़ों से भिन्न होती हैं।

सबसे अधिक ध्यान देने योग्य विशेषताओं में से एक खच्चर के लंबे और बहुत बड़े कान हैं। यह गधों से ज्यादा बोझा ढोने में माहिर होते हैं। खास तौर से पहाड़ी इलाकों में खच्चर सवारी के काम भी आता है। आधुनिक पालतू खच्चर मुख्य रूप से न्यूबियन घोड़ों के वंशज हैं। गधे, खच्चर और घोड़े के बीच मुख्य अंतर आनुवंशिक हैं। घोड़ों में 64 गुणसूत्र हैं, गधे में 62 और खच्चर/ हिन्नी में 63 होते हैं। इसी कारण खच्चर और हिन्नी बाँझ होते हैं हालांकि कई उदाहरण है जहाँ खच्चर या हिन्नी ने घोड़े या गधे के साथ सफल गर्भधारण किया है।

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18वीं सदी से पहले और उसके बाद प्रजातियों की समझ में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। अरस्तू से लेकर कार्ल लीनियस के समय तक प्रजाति एक अपरिवर्तनीय श्रेणी थी। यह सजीवों के एक ऐसे समूह को परिभाषित करती थी जो चिर-स्थायी मानी जाती थी। अरस्तू मानते थे कि हर प्रजाति का एक मूल तत्व होता है और सन्तानोत्पत्ति की क्रिया के ज़रिए यह मूल तत्व अगली पीढ़ी को सौंपा जाता है। कार्ल लीनियस जिन्होंने सारे सजीवों को समानता के आधार पर समूहों में बांटने का प्रयास किया था और हमें आधुनिक वर्गीकरण प्रणाली दी थी, भी मानते थे कि प्रजाति एक स्थायी समूह है। इस तरह से देखें तो खच्चर उनके लिए एक बड़ी चुनौती थी। उसमें न तो घोड़े का मूल तत्व है, न गधे का, तो फिर खच्चर का मूल तत्व क्या है?

वर्तमान में गधा और खच्चर पालकों की अनेक समस्याएं हैं और इन समस्याओं का हल सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं को मिलकर ही करना होगा। पशुपालन विभाग अब तक दुधारू पशुओं और पालतू पशुओं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देता रहा है। जो लोग सबके भविष्य को संवारने के साथ प्रकृति के संरक्षण में कठिन श्रम कर रहे हैं, उनके हित के लिए शासन-प्रशासन के साथ आमजन को भी सोचना होगा, ताकि उन्हें गरीबी के जंजाल से बाहर निकाला जा सके।

(यह लेख राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो, करनाल में वैज्ञानिक कर्णवीर सिंह का है, जिसको पशुधन प्रकाशन से लिया गया है। )

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