फेसबुक की मदद से मुसहर बच्चों की अशिक्षा को पटखनी दे रहा कुश्ती का ये कोच

Mithilesh Dhar | Aug 18, 2017, 12:03 IST
देसी कुश्ती
लखनऊ। स्पोर्टस अथॉरटी ऑफ इंडिया (साई) में कुश्ती के कोच रहे अजित सिंह मुसहर जनजाति के बच्चों को पढ़ाना चाहते थे। उनके जीवन में बदलाव लाना चाहते थे। लेकिन अकेले संभव नहीं था। अब फेसबुक साथियों की मदद से वे अपने प्रयास को आगे बढ़ा रहे हैं।

पहले देश के पहलावानों को कुश्ती के दावपेंच सिखाता थे, और अब देश का भविष्य संवार रहे हैं। अजित समाज के सबसे पिछले तबके को शिक्षित कर रहे हैं। गाजीपुर जिले के माहपुर गाँव के रहने वाले अजित सिंह (52) और उनकी पत्नी ने 25 साल पहले जिले का पहला इंग्लिश मीडियम स्कूल खोला था। ये स्कूल गाँव के ही एक पेड़ के नीचे संचालित होता था। फीस मामूली रखी गई ताकि ताकि समाज के हर तबके को अच्छी शिक्षा मिल सके। एनआईओस में शिक्षक रहे अजित आगे चलकर कोच बने। लेकिन बच्चों को पढ़ाने का उनका मोह छूट नहीं पाया। हरियाणा से आकर उन्होंने अपने गाँव में स्कूल खोला। नौकरी के साथ-साथ उन्होंने स्कूल संचालित किया।

फेसबुक से उदयन की शुरुआत हुई

अजित सिंह ने बताया "समाज के सबसे उपेक्षित वर्ग मुसहरों के बीच उनका आना-जाना पहले से ही था। फेसबुक पर फोटो देखकर कुछ साथियों ने कहा कि उनको शिक्षित किया जाना चाहिए। कुछ लोगों ने आर्थिक सहायता भी देने की बात कही। और फिर शुरू हुआ उदयन का सफर। अजित सिंह बताते हैं कि अक्टूबर 2014 में जब मेरे घर में उदयन खुला और मुसहर बच्चों का हुजूम उमड़ा तो मेरे घर में ही विद्रोह हो गया। हमारी एक भाभी ठकुराइन छोड़ विशुद्ध ब्राह्मणी बन गईं, लेकिन मैं भी अड़ा रहा कि इस घर में मुसहर के बच्चे पढ़ेंगे। ब्राह्मण ठाकुर अपने लिए अलग व्यवस्था कर लें।

बच्चे घर में रहने लगे। उनके खाने का प्रबंध करना बड़ी चुनौती थी। कुछ दिनों तक तो बच्चों को दूध बिस्किट दिया गया, लेकिन खाना दिया जाना भी जरूरी था। खाने के लिए सबसे बड़ी समस्या ये आ रही थी कि उनके लिए खाना बनाएगा कौन। कोई तैयार ही नही हो रहा था। गांव की कई कोई महिला मुसहर बच्चों के लिए खाना बनाने को तैयार नहीं थी।

किसी तरह गांव की ही दो मुस्लिम महिलाएं जुबैदा और बानो ने खाना बनाने की जिम्मेदारी उठाने के लिए हामी भरी। जब पहली बार खाना बना तो सबने खाया। पेट भर खाया, लेकिन अजित को ये जरा भी पत नहीं था कि समस्या अभी रुकी नहीं है। अगले दिन जब बच्चे घर आए तो उनके साथ उनकी माताएं भी आयीं। फिर जो हुआ वो अजित के लिए आश्चर्यचिकत करने वाला था। मुसहर बच्चों की माओं ने कहा उनके बच्च मुस्लिम महिलाओं के हाथों से बना खाना नहीं खाएंगे "।

अजित ने किसी तरह मामले को संभाला, तब मामला किसी तरह शांत हुआ। कुछ बच्चों के साथ शुरू हुआ उदयन सफर अब 150 बच्चों तक पहुंच गया है। अजित बताते हैं कि फेसबुक के दोस्त हर महीने कुछ पैसै भेजते हैं। उन्हीं पैसों से सभी बच्चों का खाना बनता है। इन्हीं पैसों से बच्चों को कपड़े भी दिए जाते हैं। बच्चों को पूरा खर्च उदयन वहन करता है।

आधुनिक शिक्षा ले रहे बच्चे

उदयन में पूरी तरह आधुनिक कक्षाएं चलती हैं। बच्चों के लिए लैपटॉप और डेस्कटॉप की व्यवस्था है। सभी बच्चों को प्रतिदिन कंप्यूटर सिखाया जाता है। स्कूल में पढ़ाने के लिए 4 अध्यापक भी नियुक्त किये गए हैं। जिनका खर्च फेसबुक मित्र उठाते हैं। मुसहर के बच्चे स्कूल नहीं आना चाहते। उनकी माएं उन्हें नहीं भेजना चाहती हैं। एक घटना का जिक्र करते हुए अजित सिंह बताते हैं कि एक बार मैंने एक सात साल की बच्ची से पूछा कि तुम स्कूल क्यों नहीं आयी। बच्ची की गोद में उसका एक साल का भाई था। उसने उसकी ओर इशारा करते हुए बताया कि मेरी मम्मी इसे मेरे साथ छोड़कर मजदूरी करने जाती हैं। ऐसे में मैं इसे स्कूल लेकर कैसे आ सकती हूँ। ऐसी कई परेशानियां हैं जिस कारण बच्चे स्कूल नहीं आ पाते।

नाश्ते से लेकर खाने तक का प्रबंध

उदयन में जो भी बच्चे स्कूल आते हैं, उन्हें सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना दिया जाता है। इसके आलावा बच्चों को विभिन्न खेल भी खिलाये जाते हैं। इन सभी खर्चों का वहन फेसबुक साथी करते हैं। अजित बताते हैं कि ये सब फेसबुक के साथियों के कारण ही संभव हो पाया है। और आभासी होते हुए भी वे मुझपर विश्वास करते हैं। पैसों को लेकर थोड़ी परेशानी आती है लेकिन किसी तरह सब मैनेज हो जाता है। मुसहर लड़कियों के लिए सिलाई मशीन की भी व्यवस्था की ज रही है। ताकि वे अपनी आजीविका के लिए कुछ सीख पाएं। अब तक 100 से ज्यादा लड़कियां यहाँ से सिलाई सीख चुकी हैं।

ठकुरकई और समाज

अजित बताते हैं कि जब उन्होंने मुसहर के बच्चों को पढ़ाने की शुरुआत कि तो लोगों ने इसका विरोध किया। सभी बच्चे घर की थाली में ही खाना खाते थे। घर वाले और समाज के लोगों ने इसका विरोध किया। माँ ने कहा कि घर को मुसरान बना दिए हो। इन सबको मैनेज करना बहुत मुश्किल था। समाज में धारणा बन गयी कि ठुकरसाहेब खड़े होंगे। एक और घटना के बारे में अजित बताते हैं एक बार एक बच्चा मेरी गोदी में खेल रहा था। अचानक वो नीचे उतरा और बगल में बैठे ठाकुर साहेब के पास चला गया और उन्हें छू लिया। वे भड़क गए। अजित बताते हैं कि शुरुआत में ऐसी तमाम परेशानियां सामने आया , लेकिन उदयन का उदय रुका नहीं। धीरे-धीरे ही सही, समाज में बदलाव हो रहा है।

कौन है मुसहर

मुसहर दो शब्दों के मेल से बना है। मूस यानी चूहा और हर यानी उसका शिकार करने वाला। मुसहर आदिम जनजाति है। आज भी दूर-दराज के इलाकों में बसी मुसहर टोलियों में चूहा मारने-खाने का रिवाज जिंदा है। ब्रिटिश काल में इस जाति को डिप्रेस्ड क्लास की श्रेणी में रखा गया था। 1871 में पहली जनगणना के बाद पहली बार इस जाति को अलग श्रेणि में डालकर जनजाति का दर्जा दिया गया।

उदयन स्कूल में अजित सिंह, बाएं साइड

प्रदेश में ढाई लाख मुसहर

मुसहर समुदाय बिहार, झारखंड, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जाति में आता है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में इस समुदाय की जनसंख्या 2.5 लाख के करीब है, जिनमें से 1.23 लाख महिलाएं है। जनगणना के मुताबिक, इस समुदाय के कुल 49,287 लोग साक्षर हैं जबकि 2,07,848 अनपढ़ हैं। यह समुदाय पिछड़ा और सामाजिक रूप से हाशिये पर है। मुसहर समुदाय के लोग आमतौर पर कारखानों में मजदूर के तौर पर काम करते हैं और बड़ी आबादी अब भी दिहाड़ी मजदूर और खेतों में काम करने वाली है। इस क्षेत्र की मुसहर समुदाय की महिलाएं महुआ की पत्तियों से दोना बनाती हैं। इस समुदाय के कुछ लोग चूहे को पकड़ने का काम भी करते हैं। अयार ग्राम पंचायत में 200 लोगों में से 45 लोग चूहा पकड़ने का काम करते हैं।

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