जब गठरी पकड़े बादशाह ख़ान ने इंदिरा गांधी से कहा था - यही तो बचा है, क्या इसे भी ले लोगी

गाँव कनेक्शन | Feb 06, 2018, 15:14 IST
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सीमांत गांधी यानि ख़ान अब्दुल ग़फ्फार ख़ान उनके कई नाम हैं, कोई उन्हें बाच्चा ख़ान कहता है तो बादशाह ख़ान, कोई सीमांत गांधी तो मुस्लिम गांधी। 6 फरवरी 1890 जन्मे ख़ान अब्दुल ग़फ्फार ख़ान बलूचिस्तान के महान राजनेता थे। 98 साल की जिंदगी में 35 साल उन्होंने जेल में सिर्फ इसलिए बिताए ताकि इस दुनिया को इंसान के रहने की एक बेहतर जगह बना सकें। उन्हें दो बार नोबेश शांति पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया। 1987 में उन्हें भारत रत्न भी मिला था।

उनके दादा आबेदुल्ला खान ने पठानी कबीलाइयों भारत की आज़ादी के लिए कई लड़ाइयां लड़ी थीं। अज़ादी की लड़ाई लड़ने की वजह से उन्हें सज़ा-ए-मौत दी गई थी। उनके दादा सैफुल्ला ख़ान भी आज़ादी की लड़ाई के सिपाही थे। यानि आज़ादी की लड़ाई का जज़्बा बादशाहर ख़ान को विरासत में मिला था। उनका सिर्फ नाम ही सीमांत गांधी नहीं था बल्कि उनमें वे सभी गुण थे जो महात्मा गांधी में थे।

पेशावर में जब 1919 में फौज़ी क़ानून (मार्शल ला) लागू किया गया उस समय उन्होंने शांति का प्रस्ताव पेश किया, फिर भी वे गिरफ्तार किए गए, अंग्रेज सरकार उन पर विद्रोह का आरोप लगाकर जेल में बंद रखना चाहती थी इसलिए उसकी ओर से ऐसे गवाह तैयार करने की कोशिश की गई जो यह कहें कि बादशाह खान के भड़काने पर जनता ने तार तोड़े, लेकिन कोई ऐसा व्यक्ति तैयार नहीं हुआ जो सरकार की तरफ ये झूठी गवाही दे, फिर भी इस झूठे आरोप में उन्हें 6 महीने की सज़ा दी गई।

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एक समय उनका लक्ष्य संयुक्त, स्वतन्त्र और धर्मनिरपेक्ष भारत था, इसके लिये उन्होंने 1920 में खुदाई खिदमतगार नाम के संग्ठन की स्थापना की, यह संगठन 'सुर्ख पोश' यानि लाल कुर्ती के नाम से भी जाना जाता है। बादशाह ख़ान का कहना था कि हर ख़ुदाई ख़िदमतगार की यही कसम होती है कि हम ख़ुदा के बंदे हैं, दौलत या मौत की हमें क़दर नहीं है और हमारे नेता हमेशा आगे बढ़ते चलते है, मौत को गले लगाने के लिए हम तैयार हैं।

उनके बारे में एक क़िस्सा मशहरूर है। उनकी पैदाइश के वक्त भारत और पाकिस्तान एक थे लेकिन देश के बंटवारे के बाद वे पाकिस्तान चले गए। 1969 में भारत की प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के बुलाने पर इलाज़ के लिए वह भारत आए, हवाई अड्डे पर उन्हें लेने इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण गए। बादशाह ख़ान हवाई जहाज़ से बाहर आए तो उनके हाथ में एक गठरी थी जिसमें उनका कुर्ता पजामा था, मिलते ही इंदिर गांधी ने उनकी गठरी की तरफ हाथ बढ़ाकर कहा - "इसे हमें दीजिए, हम ले चलते हैं"। खान साहब ठहरे, बड़े ठंढे मन से बोले "यही तो बचा है, इसे भी ले लोगी"? जेपी नारायण और इंदिरा गांधी दोनों ने सिर झुका लिया, जयप्रकाश नारायण अपने को संभाल नहीं पाए उनकी आँख से आंसू गिर रहे थे, बंटवारे का पूरा दर्द ख़ान साहब की इस बात से बाहर आ गया था, क्योंकि वो बटवारे से बेहद दुखी थे, वे भारत के साथ रहना चाहते थे, लेकिन बलूचिस्तान पाकिस्तान के हिस्से में गया था इसलिए उन्हें भी वहीं जाना पड़ा।

साभार - टाइम्स कंटेंट उन्होंने भारत की आज़ादी की कई लड़ाइयां लड़ीं। 1930 में सत्याग्रह करने पर वे जेल भेजे गए। जेल में उनकी जान पहचान पंजाब के अन्य राजबंदियों से हुई। इसी दौरान उन्होंने सिख गुरुओं के ग्रंथ पढ़े और गीता का अध्ययन किया। हिंदु तथा मुसलमानों के आपसी मेल-मिलाप को जरूरी समझकर उन्होंने गुजरात के जेलखाने में गीता तथा कुरान के दर्जे लगाए, जहाँ योग्य संस्कृतज्ञ और मौलवी संबंधित दर्जे को चलाते थे, उनकी संगति से अन्य कैदी भी प्रभावित हुए और गीता, कुरान तथा ग्रंथ साहब आदि सभी ग्रंथों का अध्ययन सबने किया।

वे जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी सबके बहुत करीबी थे। 29 मार्च 1931 को लंदन दूसरे गोलमेज सम्मेलन के पहले महात्मा गांधी और तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन के बीच एक राजनैतिक समझौता हुआ जिसे गांधी-इरविन समझौता कहते हैं। इस समझौते के बाद बादशाह ख़ान को जेल से छोड़ दिया गया और फिर वह समाज सेवा में लग गए।

गांधीजी इंग्लैंड से लौटे ही थे कि सरकार ने कांग्रेस पर फिर पाबंदी लगा दी। इसके बाद व्यक्तिगत अवज्ञा का आंदोलन शुरू हुआ, सीमाप्रांत में भी सरकार की ज्यादतियों के खिलाफ मालगुजारी आंदोलन शुरू कर दिया गया और सरकार ने उन्हें और उनके भाई डॉ. ख़ान को आंदोलन का सूत्रधार मानकर पूरे घर को क़ैद कर लिया। 1934 में जेल से छूटने पर दोनों भाई वर्धा में रहने लगे और इस बीच उन्होंने सारे देश का दौरा किया। 1942 के अगस्त आंदोलन के सिलसिले में वे गिरफ्तार किए गए और 1947 में छूटे।

देश का बंटवारा होने पर उनका संबंध भारत से टूट सा गया लेकिन वे देश के विभाजन से किसी प्रकार सहमत न हो सके, इसलिए पाकिस्तान से उनकी विचारधारा बिल्कुल अलग थी। पाकिस्तान के खिलाफ उन्होने स्वतंत्र पख्तूनिस्तान आंदोलन पूरी ज़िंदगी जारी रखा। 1970 में वे भारत और देश भर में घूमे, उस समय उन्होंने शिकायत की भारत ने उन्हें भेड़ियों के समाने डाल दिया है और भारत से जो उम्मीद थी, एक भी पूरी न हुई, भारत को इस बात पर बार-बार विचार करना चाहिए, उन्हें वर्ष 1987 में भारत रत्न से सम्मनित किया गया। 1988 में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें पेशावर में उनके घर में नज़रबंद कर दिया गया। 20 जनवरी 1988 को उनकी मौत हो गई और उनकी आख़िरी इच्छानुसार उन्हें जलालाबाद अफ़ग़ानिस्तान में दफ़नाया गया।

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