गोवंश की दुर्दशा के कारण और निवारण: गोबर-गोमूत्र से जुड़े उत्पाद और उद्योगों को मिले बढ़ावा

गाँव कनेक्शन | Jun 28, 2019, 11:41 IST
छुट्टा गोवंश की बढ़ती समस्या से निपटने के उपाय बता रहे हैं भारत सरकार में पूर्व सचिव और उत्तर प्रदेश में गोसेवा आयोग के अध्यक्ष रह चुके राजीव गुप्ता (आईएएस)।
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किसानों के खेतों में घुसता हुआ भूखा-प्यासा गोवंश, कूड़े के ढेरों से कूड़ा व पॉलिथीन खाता हुआ गोवंश, वाहनों से दुर्घटनाग्रस्त होता हुआ गोवंश का दिखना आम बात हो गई है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान समेत कई राज्यों में गोवंश के अवैध वध और तस्करी पर प्रभावी नियंत्रण के साथ उनके रखरखाव और उपयोग की समानांतर व्यवस्था न होने के कारण छुट्टा गोवंश की समस्या बढ़ती जा रही है तथा यह जन आक्रोश का कारण भी बन रही है।

गोवंश के विकास के लिए सरकार का दृष्टिकोण दुग्ध उत्पादन तक ही सीमित रहा है। जैसे-जैसे रासायनिक खादों, कीटनाशकों और ट्रैक्टरों का उपयोग बढ़ा, वैसे वैसे गोवंश की उपयोगिता कम होती गई। गोचर भूमि पर अवैध कब्जों और चारागाह विकास न किए जाने के कारण किसान कम दूध देने वाली गाय, बैल का पालन पोषण करने में असमर्थ हो गया। जन सहयोग से बनी गौशालाऐं, गोसदन भी सभी गोवंश को आश्रय नहीं दे पाए और गोवंश के अवैध वध और तस्करी का धंधा खूब फला फूला।
यह अंतर्राज्यीय संगठित अपराध के रूप में संचालित किया जाने लगा जिसकी कमाई से आतंकी गतिविधियों के वित्तपोषण की भी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। वध और तस्करी पर रोक लगाने के बाद गोवंश की दूसरी प्रकार से दुर्दशा हो रही है, क्योंकि सरकारों द्वारा उस के रखरखाव और उपयोग की व्यवस्थाओं के लिए अपेक्षित प्रयास नहीं किए गए।

अगर सस्ता भूसा चारा उपलब्ध हो, जैविक कृषि में गोबर गोमूत्र का उपयोग हो, पंचगव्य से औषधियां और अन्य जीवनोपयोगी पदार्थ बनाए जाएं, बैलों का बेहतर उपयोग किया जाए तो गोवंश कभी भी आर्थिक दृष्टि से अलाभकारी नहीं है। कई संस्थाएं तो गोबर गोमूत्र का समुचित उपयोग कर खूब लाभ कमा रही हैं। इन तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2005 के निर्णय में गुजरात सरकार के पूर्ण गोवध बंदी के कानून का समर्थन किया।

सरकार द्वारा गोवंश की नस्ल सुधार, जैविक कृषि व चारा विकास के कार्य सीमित स्तर पर किए जा रहे हैं। बिना सरकारी सहायता के कुछ संस्थाओं द्वारा भी अपने स्तर पर उत्तम प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन कुछ उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर देना ही पर्याप्त नहीं है। कड़े फैसले लेते हुए समयबद्ध रूप से व्यापक स्तर पर प्रभावी कार्रवाई किए जाने की आवश्यकता है।

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गोवंश का मुद्दा दशकों से सरकारी अदूरदर्शिता से ग्रसित रहा है। अधिक दूध उत्पादन के लालच में हमने जर्सी, होल्सटीन फ्रिजियन जैसी विदेशी नस्लों को बढ़ावा देने से पहले यह नहीं सोचा कि छह-सात ब्यांत के बाद जब ये गाय दूध देना कम कर देंगी तो उनका क्या होगा, उनके नर बछड़ों का क्या होगा। विदेशों की नकल करते समय, जहां पर उनको दूध कम होने के बाद और नर बछड़ों को कत्लखाने भेज दिया जाता है, हमें ध्यान रखना चाहिए था कि हमारे देश के अधिकांश राज्यों में पूर्ण अथवा आंशिक गोवध बंदी है।

ऐसी स्थिति में अनुपयोगी गोवंश अवैध रूप से कत्लखाने जाएगा। किसानों और गोशालाओं के ऊपर भार बन कर रहेगा। देसी गोवंश को अगर उन्नत किया गया होता, तो उसके पूरे जीवन काल में 10 से लेकर 14 ब्यांतों में दूध भी कहीं अधिक होता और उसके उपचार, रखरखाव का खर्चा भी कहीं कम होता।

सरकार द्वारा नस्ल सुधार के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन अभी भी देशी नस्लों के सीमेन की उपलब्धता और उपयोग की मात्रा बहुत कम है। एक कड़ा निर्णय लिए जाने की आवश्यकता है कि आगामी 5 वर्षों में गाय के कृत्रिम गर्भाधान के लिए शत प्रतिशत उन्नत देसी नस्ल के सीमन का उपयोग किया जाएगा और क्षेत्र में पर्याप्त उन्नत देशी नस्लों के सांड उपलब्ध कराए जाएंगे।


वर्तमान में उपलब्ध विदेशी सांडों को गोशालाओं/गो सदनों में अवस्थित किया जाएगा और नए बछड़े, जो उन्नत देशी नस्ल के सांड नहीं बनेंगे, उनका शत-प्रतिशत बधियाकरण कर बैलों के रूप में उपयोग किया जाएगा। देसी नस्लों के वर्गीकृत वीर्य (sex-sorted semen) का उपयोग कर यह सुनिश्चित किया जाएगा कि मादा संतति अधिक जन्म ले।

दूसरा कड़ा निर्णय यह लेने की आवश्यकता है कि आगामी 5 वर्षों में अधिकाधिक गो-आधारित जैविक कृषि देश में कराना सुनिश्चित किया जाय। इसके लिए प्रत्येक वर्ष 20% यूरिया और कैमिकल फर्टिलाइजर्स, पैस्टिसाइड्स के रिप्लेसमेंट का लक्ष्य रखा जा सकता है। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का गोबर गोमूत्र से बने कंपोस्ट, बायोगैस की स्लरी व जैविक कीटनाशकों से आंशिक रिप्लेसमेंट करने पर न केवल फसल की गुणवत्ता में वृद्धि होगी बल्कि उत्पादन में भी वृद्धि होगी क्योंकि जैविक कृषि से भूमि को अतिरिक्त पोषक तत्व प्राप्त होंगे।

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मात्र यूरिया पर ही 70000 रुपए करोड़ का सरकारी अनुदान प्रतिवर्ष दिया जा रहा है। रासायनिक खाद, कीटनाशक का इस्तेमाल कम होने पर उसी मात्रा में अनुदान की राशि की बचत होगी और उस धनराशि का उपयोग गोवंश के रखरखाव और जैविक कृषि के विकास के लिए किया जा सकता है। इस प्रकार 5 वर्षों में संपूर्ण कृषि गो-आधारित बनाई जा सकती है। तत्पश्चात भी यदि कोई किसान रासायनिक खाद, कीटनाशक इस्तेमाल करना चाहता है तो उस पर सरकार की ओर से कोई अनुदान न दिया जाए।

दोनों कड़े निर्णयों के क्रियान्वयन के लिए काफी प्रचार प्रसार, प्रशिक्षण, अवस्थापना सृजन, अनुसंधान और विकास की आवश्यकता होगी लेकिन इसके लिए धनराशि की कमी आड़े नहीं आएगी क्योंकि रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर दिये जा रहे अनुदान में काफी बचत होगी।

तीसरी आवश्यकता सरकार द्वारा बैलों का उपयोग बढ़ाने की है। उन्नत बैल चालित यंत्रों यथा बैल चालित ट्रैक्टर, सिंचाई पंप, जनरेटर, आटा चक्की, कोल्हू, बैल गाड़ियों आदि के विकास एवं वितरण की आवश्यकता है। औसतन एक बैल की कर्षण शक्ति (draught power) 500 वाट मानी जा सकती है। इस प्रकार देश में उपलब्ध लगभग 10 करोड़ नर गोवंश की शक्ति 50000 मेगावाट होती है, जिसका सदुपयोग नहीं किया जा रहा है। उन्नत बैल चालित यंत्रों के विकास एवं उपयोग से न केवल बैलों की कार्यक्षमता बढ़ती है, बल्कि वे अपने जीवन की अधिकांश अवधि में कार्यशील भी रहते हैं।
डीजल ट्रैक्टर और अन्य उपकरणों पर सरकारी अनुदान को कम करते हुए बैल चालित यंत्रों पर अनुदान की व्यवस्था की जानी चाहिए तथा उनके व्यापक स्तर पर वितरण के लक्ष्य प्रति वर्ष निर्धारित किए जाने चाहिए। कम दूरी के सरकारी माल ढुलान को भी बैलगाड़ियों हेतु आरक्षित कर देना चाहिए।

चौथी बड़ी आवश्यकता सरकार द्वारा गोवंश के गोबर व गोमूत्र के व्यापक स्तर पर सदुपयोग को सुनिश्चित कराने की है। गो-आधारित जैविक कृषि में इनके उपयोग के अतिरिक्त इनसे विभिन्न औषधियों व अन्य कई जीवनोपयोगी वस्तुओं का निर्माण किया जा सकता है। देशी गाय के पंचगव्य (गोबर,गोमूत्र,दूध,दही व घी) से निर्मित औषधियों की प्रामाणिकता सिद्ध की जा चुकी है कि वे कैंसर, ब्लड प्रैशर, शुगर, गुर्दा, यकृत,फेफड़ों, आमाशय सहित पूरे शरीर के विभिन्न रोगों में काफी लाभकारी हैं।

पंचगव्य से न केवल शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है बल्कि उसके साथ ली जाने वाली अन्य औषधियों का प्रभाव भी कहीं अधिक बढ़ जाता है। सरकारी आयुर्वेदिक चिकित्सकों द्वारा अधिकाधिक पंचगव्य औषधियों को प्रैस्क्राइब कराया जाना चाहिए और उनके व्यापक स्तर पर निर्माण व वितरण की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए।

गोबर, गोमूत्र का उपयोग साबुन, धूप, अगरबत्ती, फिनाइल, मच्छर भगाने की कॉयल, कागज, गत्ता, टाइल आदि के बनाने हेतु भी किया जा सकता है। गोबर में थोड़ी मात्रा में बाईंडर मिलाकर गमले व लट्ठे बनाए जा सकते हैं। लट्ठों का लकड़ी की भांति उपयोग श्मशान घाट पर शव-दाह के लिए और सर्दियों में अलाव जलाने के लिए किया जा सकता है।

सरकारी उपयोग हेतु अधिक से अधिक पंचगव्य से निर्मित वस्तुओं का क्रय किया जाना चाहिए। बड़े बायोगैस प्लांट स्थापित कर उनसे सीएनजी व विद्युत के उत्पादन को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।



पांचवीं बड़ी आवश्यकता सरकार द्वारा व्यापक स्तर पर सस्ते चारे व भूसे की उपलब्धता सुनिश्चित कराने की है। गोचर भूमि को अवैध कब्जे से मुक्त कराना, गोचर और अन्य रिक्त भूमियों का विकास कर उन पर उन्नत चारा प्रजातियों का रोपण, वन क्षेत्रों को चराने के लिए उदारता से खोला जाना, संयुक्त वन प्रबंधन बढ़ाया जाना ताकि वन क्षेत्र में भी स्थानीय निवासी चारा उत्पादन कर सकें और पशुओं को चरा सकें, चारा प्रजाति के वृक्षों का वृक्षारोपण, राजमार्गों, नदियों, नहरों के किनारे खाली भूमियों पर चारा विकास आदि व्यापक स्तर पर किया जाना चाहिए।

चारा बैंकों की स्थापना, कृषि अवशेषों का संग्रहण और पशु आहार हेतु उपयोग, साइलेज आदि की भी बड़े पैमाने पर आवश्यकता है। भूसे का औद्योगिक उपभोग भी नियंत्रित किया जा सकता है। देश में खाद्यान्न की प्रचुर उपलब्धता है। कृषि उत्पादन में वृद्धि के कारण बहुधा खाद्यान्न का कुछ अंश प्रतिवर्ष खराब हो रहा है। खराब हुए खाद्यान्न को कैटल फीड ग्रेड कर बेचा जाता है। अगर शुरू में ही खाद्यान के उस अंश को पशुओं के लिए उपलब्ध करा दिया जाए तो उसके भंडारण पर भी खर्चा नहीं होगा तथा पशुओं के लिए भी पौष्टिक आहार की उपलब्धता बढ़ेगी।
खाद्यान्न की ऐसी प्रजातियों को उपजाना जाना चाहिए जिनमें तना लंबा हो ताकि अधिक मात्रा में भूसा उत्पादन हो सके। मनुष्य और पशु के भोजन की आवश्यकता को समेकित रूप से दृष्टिगत रखने से हम कहीं अच्छा कृषि का नियोजन कर सकेंगे। खाद्यान्न व भूसे के बीच पर्याप्त संतुलन बना रहेगा। किसान को अधिक कृषि उत्पादन होने के फलस्वरूप दाम कम मिलने की तथा पशुओं के लिए भूसा चारा अधिक कीमत पर खरीदने की व्यथा भी कम होगी तथा सभी के लिए समुचित मात्रा में आहार की उपलब्धता रहेगी। अधिक खाद्यान्न के भंडारण की आवश्यकता, भंडारण पर होने वाले व्यय तथा खाद्यान्न के खराब होने की समस्या में भी कमी आएगी।

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छठी आवश्यकता गोवंश के रखरखाव और उपयोग के लिए कार्यरत निजी क्षेत्र की संस्थाओं को समुचित सहायता प्रदान करने की है। अवनत वन भूमियों और गोचर, ऊसर, बंजर भूमियों को ऐसी संस्थाओं को गोवंश आश्रय स्थल विकसित करने तथा चारागाह विकास के लिए उदारता से उपलब्ध कराना चाहिए। यदि कहीं स्वामित्व हस्तांतरण में कठिनाई हो तो प्रबंधन के अनुबंध के आधार पर भूमि को संस्था को दिया जा सकता है।

इससे उन भूमियों का सदुपयोग तो होगा ही, गोवंश के गोबर व गोमूत्र से उनका रिक्लेमेशन भी हो जाएगा। इन संस्थाओं को याचक की दृष्टि से नहीं अपितु सरकार और स्थानीय निकाय के सहयोगी की दृष्टि से देख कर समुचित वित्तीय एवं तकनीकी सहयोग भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए। जहां भी आवश्यक हो, वहां गोवंश आश्रय स्थल की स्थापना व संचालन का मूल दायित्व सरकार एवं संबंधित स्थानीय निकाय का है। इन आश्रय स्थलों को जैविक कृषि, बायोगैस/ सीएनजी उत्पादन, पंचगव्य उत्पादों का निर्माण, उन्नत बैल चालित यंत्रों के उपयोग और प्रदर्शन एवं गो-आधारित क्षेत्रीय विकास के केंद्र के रूप में विकसित किया जाना चाहिए।

सभी बिंदुओं पर अभी तक सघन रूप से कार्य नहीं हुआ है। सरकार की ओर से यह बड़ी पहल करने की आवश्यकता है कि पांच वर्षों के अंदर हर वर्ष सटीक लक्ष्य निर्धारित कर सघन कार्यक्रम चला कर उपरोक्त विषयों पर प्रभावी कार्रवाई की जाए ताकि गोवंश किसान के लिए उपयोगी बन सके। तब किसान गोवंश को कसाई या तस्कर को नहीं बेचेगा, बहुत बूढ़ा हो जाने पर भी उसे कृतज्ञता के भाव से घर पर ही रखेगा और गोशाला भेज देगा। दोनों ही स्थानों पर उसके गोबर गोमूत्र के सदुपयोग से उसके रखरखाव का खर्चा निकल सकेगा।

भारतीय गोवंश मानव जाति के लिए प्रभु की अनुपम देन है। उसके दूध, दही व घी का सेवन मनुष्य के ओज और तेज की वृद्धि करता है, बुद्धि को कुशाग्र बनाता है तथा शरीर को स्फूर्ति व सात्विक ऊर्जा प्रदान करता है। उसका गोबर, गोमूत्र औषधीय गुणों से युक्त है तथा जैविक कृषि का आधार है।

देशी गोवंश का प्रभामंडल (aura) सामान्य मनुष्य के प्रभामंडल से कहीं अधिक बड़ा लगभग 26 फीट का होता है। उसके प्रभामंडल में रहने से मनुष्य में शांति, प्रेम, वात्सल्य, आनंद, सहिष्णुता, धर्मपरायणता जैसे दैवीय गुणों का संचार होता है। उसके पंचगव्य का सेवन मनुष्य के अस्थिगत पापों को भी हर लेता है तथा उसे शारीरिक व मानसिक रोगों से मुक्त कर जीवन के उच्चतर लक्ष्यों की ओर प्रवृत्त करता है।

गोवंश की प्रसन्नता एवं आशीर्वाद से प्रकृति और परमात्मा दोनों ही अनुकूल हो जाते हैं। विज्ञान ने इन विषयों पर अधिक शोध और अनुसंधान नहीं किया है लेकिन इनके जीवंत प्रमाण उपस्थित हैं। हमारे शास्त्रों, ऋषि-मुनियों और व्यापक जनमानस ने अकारण ही गोवंश के वध का निषेध व गोसेवा की महत्ता नहीं बताई है। अपनी अदूरदर्शिता व तुच्छ लाभ के कारण ही हमने अपने गोवंश की नस्ल खराब की, रासायनिक कृषि के द्वारा अपनी भूमि व अपना स्वास्थ्य खराब किया, जल को प्रदूषित किया, छोटी जोतों पर ट्रैक्टरों से खेती कर न केवल बैलों को बेकार कर दिया बल्कि किसानों को कर्ज में डुबा कर आत्महत्या की ओर ढकेल दिया, चारागाहों का विनाश कर व गोवंश को अनुपयोगी बनाकर उसे दुर्दशा, तस्करी व वध की ओर धकेल दिया तथा स्वयं भी शारीरिक, बौद्धिक एवं आत्मिक विकास से वंचित रह गए।

गोवंश के समुचित रखरखाव, उपयोग, संरक्षण एवं संवर्धन के लिए सरकार की निश्चयपूर्ण सटीक समयबद्ध कार्यवाही से किसान भी समृद्ध होगा और सामान्य जन के स्वास्थ्य, पर्यावरण, आनंद, अर्थव्यवस्था, सामाजिक शांति व समरसता पर भी उत्कृष्ट प्रभाव पड़ेगा। गोवंश के गव्यों से पुष्ट एवं आशीर्वाद से युक्त भारत के नागरिक कला, संस्कृति, विज्ञान, अध्यात्म और विकास के सभी क्षेत्रों में नई ऊँचाईयों को प्राप्त करेंगे तथा भारत को विश्वगुरु के रूप में पदस्थापित करेंगे।

(लेखक पूर्व में सचिव, भारत सरकार तथा अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश गोसेवा आयोग रह चुके हैं।)

सनब


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