गांव कनेक्शन सर्वेः 93 फीसदी लोगों ने कहा- बेरोजगारी उनके गांव की प्रमुख समस्या, प्रवासी मजदूरों के रिवर्स पलायन ने बढ़ाई और मुश्किलें

गांव कनेक्शन के इस सर्वे में 10 में से 9 ग्रामीणों ने बताया कि बेरोजगारी उनके गांव या उनके क्षेत्र की बहुत बड़ी समस्या है। गौरतलब है कि लॉकडाउन लगने के बाद बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर शहरों से अपने गांवों की तरफ लौटे थे, जिनमें अधिकतर के पास अब कोई काम नहीं है।

Daya SagarDaya Sagar   14 Aug 2020 8:26 AM GMT

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लॉकडाउन से पहले पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले के श्यामलाल प्रमाणिक मुंबई में रहकर मजदूरी करते थे। लॉकडाउन जब लगा तब वह लगभग एक महीने तक मुंबई में ही फंसे रहे और फिर किसी तरह घर वापस आए। वह घर वापस आ गए हैं इसकी संतुष्टि तो उन्हें है लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा कि वह आगे क्या करेंगे। निराश प्रमाणिक कहते हैं, "यहां गांव में कुछ करने को नहीं है और उधर मुंबई में हमारी कंपनी में काम शुरू हो गया है। अब लगता है कि फिर से मुंबई वापिस जाना होगा।"

बिहार के नवादा जिले की नुसर्रत जहां भी श्यामलाल प्रमाणिक की तरह ही काम या कहें रोजगार की कमी से जूझ रही हैं। हालांकि वह कहीं बाहर बड़े महानगरों में कमाने नहीं जाती बल्कि नवादा या आस-पास के जिलों में ही रहकर दिहाड़ी मजदूरी या घरेलू सहायक का काम करती हैं। लेकिन लॉकडाउन के बाद उनका काम छीन गया और फिर तब से आज तक नहीं मिला। अपने पति को बहुत पहले ही खो चुकी नुसर्रत को अपने साथ-साथ अपने एक छोटे से बेटे का भी पेट पालना है, लेकिन लॉकडाउन की इस घड़ी में ऐसा करना उनके लिए बहुत ही मुश्किल हो रहा है।

यह कहानी सिर्फ श्यामलाल या नुसर्रत की नहीं बल्कि अल्मोड़ा (उत्तराखंड) के विक्की कुमार आर्या, देवास (मध्य प्रदेश) के कैलाश पाठक, गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) के उमेश शर्मा, बलोदा बाजार (छत्तीसगढ़) के राकेश कुमार मन्हाड़े, मोगा (पंजाब) की जगदीश कौर, हजरतबल (जम्मू कश्मीर) के मोहम्मद रियाज, बोलांगीर (ओडिशा) की अनीता बारिक जैसे लाखों लोगों की है, जिनको कोरोना लॉकडाउन के कारण अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा और उन्हें अब अपना रोज का खर्चा चलाने में खासी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है।

देश के सबसे बड़े ग्रामीण मीडिया संस्थान गांव कनेक्शन ने कोरोना लॉकडाउन के बाद उपजी स्थिति का जायजा लेने के लिए देश भर के 20 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों के 179 जिलों में 25,000 से ज्यादा ग्रामीणों के बीच एक सर्वे किया। यह सर्वे 30 मई से 16 जुलाई के बीच चला, जिसमें 25,371 लोग भाग लिए। इस सर्वे में ग्रामीणों ने लॉकडाउन से उपजे मुश्किलों को गांव कनेक्शन के साथ साझा किया।

गांव कनेक्शन के इस सर्वे में लगभग 93 फीसदी ग्रामीणों ने माना कि बेरोजगारी उनके गांव या उनके क्षेत्र की बहुत बड़ी समस्या है और लॉकडाउन के कारण इसमें इजाफा ही हुआ है। 37 फीसदी लोग इस समस्या को बहुत ही गंभीर, 40 फीसदी लोग गंभीर और 16 प्रतिशत लोग कुछ हद तक गंभीर मानते हैं।

गरीब और निम्न मध्यम वर्ग में यह समस्या और भी बड़ी है, जो कि मध्यम और अमीर वर्ग तक आते-आते थोड़ी कम होती जाती है। हालांकि इस वर्ग में भी बेरोजगारी को एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में देखा जा रहा है और लगभग 90 फीसदी से अधिक मध्यम और अमीर वर्ग के लोग भी बेरोजगारी को वर्तमान समय की एक बहुत बड़ी समस्या मान रहे हैं।


कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन लगते ही देश में आजादी के बाद का दूसरा सबसे बड़ा रिवर्स माइग्रेशन हुआ और एक करोड़ से अधिक लोग दिल्ली, मुंबई, सूरत, चेन्नई जैसे महानगरों को छोड़कर अपनी गांवों की तरफ लौट आए।

हालांकि यह एक करोड़ का आंकड़ा अलग-अलग सोर्सेज से है। लॉकडाउन के दौरान देश के मुख्य श्रम आयुक्त ने कहा कि लगभग 26 लाख प्रवासी मजदूर रिवर्स पलायन किए। जबकि भारत सरकार के ही सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि लगभग 97 लाख प्रवासी मजदूर लॉकडाउन के दौरान वापस घर गए। वहीं प्रवासी मजदूरों पर शोध करने वाले शोधार्थियों का कहना है कि ऐसे प्रभावित मजदूरों की संख्या 2 करोड़ से 2.2 करोड़ तक रही। गौरतलब है कि द इकोनॉमिक सर्वे, 2017 के अनुसार देश भर में प्रवासी मजदूरों की कुल संख्या 6 करोड़ से अधिक है, जो रोजी-रोटी की तलाश में ग्रामीण भारत से शहरों की तरफ जाते हैं।

इसके अलावा जो अपने गांव या आस-पास के जिलों में भी मजदूरी, नौकरी या दुकान करते थे, उनका भी काम तालाबंदी के कारण प्रभावित हुआ और यह सिलसिला बदस्तूर (अभी तक) जारी है। यही कारण है कि कई मजदूर जो बहुत ही मजबूरी और बेवशी में अपने गांव लौट कर आए थे और फिर से बड़े शहरों की ओर वापिस ना जाने की कसमें खा रहे थे, वे फिर से वापिस जाने की सोच रहे हैं। कई तो फिर से वापिस कमाने परदेस जा भी चुके हैं।

ऐसे ही एक मजदूर झारखण्ड के बोकारो जिले के कोठी गांव के दिलीप कुमार महतो हैं, जो मुंबई से किराये की मोटरसाइकिल लेकर मई में अपने गांव पहुंचे थे। मगर एक महीने के बाद ही उन्हें फिर से मुंबई के लिए निकलने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि गांव में कोई काम नहीं था।

दिलीप कहते हैं, "मेरी चार बेटियां हैं और घर में कमाने वाला मैं अकेला हूं, तो इतने दिनों तक खाली नहीं बैठ सकता हूँ। क्या करूं कोरोना का डर तो है मगर हमारी मजबूरी भी है।"

दिलीप महतो जैसे हजारों लोग फिर से वापिस महानगरों की ओर जा चुके हैं या फिर जाने की तैयारी में हैं। लेकिन अभी भी ऐसे लोगों की संख्या लाखों में है, जो लॉकडाउन के कटु अनुभवों के कारण कम से कम कोरोना महामारी के विकराल रहने तक फिर से बड़े शहर वापिस नहीं जाना चाहते। गौरतलब है कि भारत में देशव्यापी लॉकडाउन तो खत्म हो चुका है लेकिन कोरोना मरीजों की संख्या हर रोज नए रिकॉर्ड और रफ्तार के साथ आगे बढ़ रही है।

गांव कनेक्शन के इस सर्वे में 25000 में से लगभग 1000 प्रवासी मजदूर भी शामिल हुए। इन मजदूरों में से 28 प्रतिशत मजदूरों ने कहा कि वह अब फिर से वापिस बड़े शहरों की ओर नहीं जाएंगे और अपने गांव और जिले में ही रोजगार के अवसर तलाश करेंगे। जबकि 15 फीसदी लोग अभी भी असमंजस में हैं कि वह सब कुछ ठीक होने के बाद फिर से वापिस जाएं या नहीं।

वहीं 33 फीसदी लोगों ने कहा कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है और पेट व परिवार पालने के लिए उन्हें वापिस महानगरों की ओर जाना होगा, जबकि 8 फीसदी ने कहा कि वह शहर तो जाएंगे लेकिन उस शहर में नहीं जाएंगे, जहां वह पहले रहते थे। वह अब किसी दूसरे शहर का रूख करेंगे। जबकि 16 फीसदी लोगों ने इस सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया।


इसमें गौर करने वाली बात यह है कि जो प्रवासी मजदूर अन्य राज्यों से अपने गांव लौटे हैं, वे फिर से वापिस जाने को लेकर अधिक प्रतिबद्ध हैं। वहीं अपने राज्य के ही किसी बड़े शहर में रहकर रोजगार करने वाले लोग अब अपना घर-गांव छोड़कर नहीं जाना चाहते। संबंधित ग्राफ में आप ऐसे लोगों का आंकड़ा देख सकते हैं।

उत्तराखंड के अल्मोड़ा के पांडे खोला के विकी कुमार आर्या ऐसे ही एक प्रवासी हैं, जो दिल्ली में रहकर रोजगार करते थे। वह पिछले दो महीने से अपने घर पर हैं और अल्मोड़ा सहित आस-पास के जिलों में रोजगार ढ़ूंढ़ने जाते हैं, लेकिन उन्हें कोई रोजगार अभी तक नहीं मिला है। वह कहते हैं कि ऐसा ही रहा, तो उन्हें फिर से वापिस दिल्ली ही जाना पड़ेगा।

यह बात इसलिए भी जरूरी है क्योंकि प्रवासी मजदूरों के वापिस आने के बाद कई राज्य सरकारों ने कहा था कि वह वापिस आने वाले प्रवासी मजदूरों का स्किल मैपिंग करेंगे और उन्हें घर पर ही रोजगार देने की कोशिश की जाएगी। इसमें से उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तराखंड प्रमुख राज्य हैं।

स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने भी राज्य सरकारों से मजदूरों की स्किल मैपिंग कर उन्हें संबंधित रोजगार देने की अपील की थी। लेकिन अभी तक ये योजनाएं जमीन पर नहीं उतर पाई हैं और मजदूरों को मनरेगा के अलावा किसी भी सरकारी योजना के तहत प्रमुखता से रोजगार नहीं मिल पाया है।


पंजाब के बड़े फार्म हाउसों में खेतिहर मजदूरी करने वाले उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के बैजनाथ कहते हैं, "सोचा था कि अपने मूल राज्य लौटेंगे तो सरकार सुध लेगी लेकिन दूर-दूर तक कोई पूछने वाला नहीं था। इसलिए वापस आना पड़ा। पंजाब में धान के सीजन में ठीक-ठाक कमाई मजदूरी करके मिल जाती है। उसके बाद गेहूं की फसल भी है। दोनों फसलों के दौरान मजदूरी करके साल भर के पूरे परिवार का खर्चा निकल आता है।"

कुछ इसी तरह की बातें बिहार जिले के मोतिहारी के रहने वाले खेतिहर किसान रामेश्वर प्रसाद कहते हैं, जो वापस मजदूरी के लिए जालंधर लौट गए हैं। उन्होंने कहा, "लॉकडाउन के दौरान परदेस में भुखमरी की नौबत आई तो वापस गांव चले गए लेकिन वहां भी हालात जस के तस रहे। इसलिए किसी तरह वापस आना पड़ा। गांव में न काम है और न रोटी, सरकार भी अभी तक कुछ नहीं कर रही। चार बच्चे, पत्नी और माता-पिता का परिवार पालने के लिए मेरे पास पंजाब लौटने के अलावा चारा ही नहीं था।"

मजदूरों के वापिस दूसरे राज्यों के बड़े शहरों में जाने की एक प्रमुख वजह रोजगार की पर्याप्त उपलब्धता के साथ-साथ बढ़ी हुई मजदूरी भी है।

गांव कनेक्शन के इस सर्वे में 62 फीसदी लोगों ने कहा कि उनके गांव और जिले में रोजगार के कोई साधन नहीं हैं इसलिए वह पलायन करते हैं जबकि 19 फीसदी ने कहा कि बड़े शहरों में अच्छा पैसा या मजदूरी मिलती है, इसलिए वे जाते हैं। जबकि 16 फीसदी लोग ऐसे हैं जो लोग बेहतर अवसर या बेहतर जीवन-शैली को प्राप्त करने के लिए शहरों की तरफ पलायन करते हैं।

मध्य प्रदेश के देवझिरी के प्रवासी मजदूर गल सिंह भूरिया कहते हैं, "लॉकडाउन के दौरान हम गुजरात के गांधीनगर से वापस अपने गांव आए थे। यहां पर मजदूरी तो मिली लेकिन पैसा बहुत कम मिलता है। वहां के रोज के 400 रूपये के मुकाबले हमें यहां सिर्फ 190 रुपए ही काम के मिल रहे हैं। इसलिए हालात कुछ ठीक होने के बाद हम वापस गांधीनगर अपने ठेकेदार के पास चले जाएंगे।"

बिहार के मोतिहारी जिले के श्रमिक दिनेश कुमार यादव ने भी बताया कि उन्हें पंजाब-हरियाणा में धान रोपाई के लिए 4600 रुपए प्रति एकड़ मिलते हैं, इसके अलावा रहने-खाने की सुविधाएं अलग से दी जाती हैं। इसलिए वह वापस हरियाणा जा रहे हैं।

ग्राफ- 5 में से 3 लोगों ने माना कि उनके गांव में नहीं हैं रोजगार के पर्याप्त अवसर, इसलिए करते हैं पलायन

गांव लौटकर वापस नहीं जाने की चाह रखने वाले प्रवासी मजदूर खेती को रोजगार का सबसे बड़ा विकल्प मानने लगे हैं। गांव कनेक्शन के सर्वे में लगभग 37 फीसदी लोगों ने कहा कि वह अपने गांव में ही खेती का काम करेंगे लेकिन वापस शहर नहीं जाएंगे। जैसे मुंबई के वसई में रहकर पैकिंग बॉक्स बनाने का काम करने वाले यूपी के संत कबीर नगर के आकाश निषाद (18 वर्ष) कहते हैं कि वह गांव में रहकर सब्जी-अनाज उगाकर उसे बेच लेंगे, दूसरे की खेतों में मजदूरी कर लेंगे लेकिन कभी बम्बई (मुंबई) नहीं जाएंगे।

वहीं 24 फीसदी लोगों ने कहा कि वह वापिस शहर तो नहीं जाएंगे लेकिन खेत ना होने के कारण जो काम शहर में करते थे, वही आस-पास में ढूढ़ने की कोशिश करेंगे। जबकि 8 प्रतिशत लोग अपना खुद का काम शुरू करना चाहते हैं। इनमें से वही लोग हैं, जिनके पास थोड़ी सी पूंजी बची हुई है। जबकि 11 प्रतिशत लोग मनरेगा को अपने रोजगार का सबसे बड़ा विकल्प मानते हैं।


हालांकि गांव कनेक्शन ने अपने इस सर्वे में यह भी पाया कि सरकार द्वारा रोजगार का सबसे बेहतर विकल्प बताये जाने और मनरेगा की कार्य-क्षमता और बजट बढ़ाए जाने के बावजूद भी 80 प्रतिशत ग्रामीणों ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें या उनके परिवार के किसी भी सदस्य को मनरेगा में काम नहीं मिला। जबकि सिर्फ 20 प्रतिशत लोगों ने माना कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें मनरेगा के तहत कोई काम मिला।


अर्थशास्त्री डीएम दिवाकर कहते हैं कि वापसी किए प्रवासी मजदूरों में से उनके लिए स्थितियां सबसे खराब है जिनके पास कोई खेत, पूंजी या कोई स्किल सीख कर नहीं आए हैं। "जिनके पास इन तीनों चीजों में से एक भी नहीं है, उनके लिए काफी मुश्किल होने वाली है और उन्हें ना चाहते हुए भी फिर से वापिस शहर पलायन करना पड़ेगा।"

वह आगे कहते हैं कि यह स्थानीय राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि जो मजदूर शहरों से कुछ स्किल सीखकर आए हैं, उन्हें राज्य संसाधन के रूप में उपयोग करे ताकि मजदूरों के पलायन का सिलसिला कम से कम हो।

हालांकि वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार अरविंद सिंह ने कहा, "सरकार कितना भी दावा कर लें लेकिन यह सच्चाई है कि ग्रामीण भारत के पास रोजगार के संसाधन और अवसर कम है, इसलिए हम देख रहे हैं कि जो मजदूर काफी कठिनाई सह के अपने घर वापस आए थे और कभी शहर ना जाने की बातें कर रहे थे, वे तीन महीने के भीतर ही फिर से शहर जाने लगे हैं। दरअसल स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा करने के लिए सरकारों को एक विस्तृत रोडमैप तैयार करना होगा और यह कोई एक दिन या एक महीने का काम नहीं है। इसलिए जो मजदूर फिर से बाहर जा रहे हैं, उन्हें झूठे उम्मीद देकर रोके रहना बेमानी है। उन्हें जाने देना चाहिए और सरकार को उनके लिए फिर से ट्रेन या बसों की व्यवस्था करनी चाहिए जैसे उनके आने के लिए ही देर से ही सही लेकिन किया गया था।"

पलायन के पीछे की कहानी

5 में से 3 लोगों (60%) ने माना गांव में रोजगार नहीं इसलिए जाते हैं शहर

19 % यानि हर पांचवें व्यक्ति ने कहा पलायन की वजह शहर में अच्छी मजदूरी

33 % लोगों ने कहा पेट पालने के लिए वापस शहर जाना ही होगा

28 % लोगों ने कहा अब कमाने के लिए बड़े शहरों को नहीं जाएंगे

37 % लोगों ने कहा कि वो शहर जाने की बजाय गांव में खेती कर पेट पालेंगे

80 % लोगों ने कहा लॉकडाउन में मनेरगा में नहीं मिला काम

56 % प्रवासी जो गांव लौटे 35 वर्ष से कम उम्र की थे

सर्वेक्षण की पद्धति

भारत के सबसे बड़े ग्रामीण मीडिया संस्थान गांव कनेक्शन ने लॉकडाउन का ग्रामीण जीवन पर प्रभाव के लिए कराए गए इस राष्ट्रीय सर्वे को दिल्ली स्थित देश की प्रमुख शोध संस्था सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के लोकनीति कार्यक्रम के परामर्श से पूरे भारत में कराया गया। देश के 20 राज्यों, 3 केंद्रीय शाषित राज्यों के 179 जिलों में 30 मई से लेकर 16 जुलाई 2020 के बीच 25371 लोगों के बीच ये सर्वे किया गया। जिन राज्यों में सर्वे किया गया उनमें राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, सिक्किम, असम, अरुणांचल प्रदेश, मनीपुर, त्रिपुरा, ओडिशा, केरला, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश और चंडीगढ़ शामिल थे, इसके अलावा जम्मू-कश्मीर, लद्धाख, अंडमान एडं निकोबार द्वीप समूह में भी सर्वे किया गया। इन सभी राज्यों में घर के मुख्य कमाने वाले का इंटरव्यू किया गया साथ उन लोगों का अलग से सर्वे किया गया जो लॉकाडउन के बाद शहरों से अपने गांवों को लौटे थे। जिनकी संख्या 963 थी।

सर्वे का अनुमान 25000 था, जिसमें राज्यों के अनुपात में वहां इंटरव्यू निर्धारित किए गए थे। इसमें से 79.1 फीसदी पुरुष थे और और 20.1 फीसदी महिलाएं। सर्वे में शामिल 53.7 फीसदी लोग 26 से 45 साल के बीच के थे। इनमें से 33.1 फीसदी लोग या तो निरक्षर थे या फिर प्राइमरी से नीचे पढ़े हुए सिर्फ 15 फीसदी लोग स्नातक थे। सर्वे में शामिल 43.00 लोग गरीब, 24.9 फीसदी लोवर क्लास और 25. फीसदी लोग मध्यम आय वर्ग के थे। ये पूरा सर्वे गांव कनेक्शन के सर्वेयर द्वारा गांव में जाकर फेस टू फेस एप के जरिए मोबाइल पर डाटा लिया गया। इस दौरान कोविड गाइडलाइंस (मास्क, उचित दूरी, हैंड सैनेटाइजर) आदि का पूरा ध्यान रखा गया।


गांव कनेक्शन के संस्थापक नीलेश मिश्रा ने इस सर्वे को जारी करते हुए कहा, "कोरोना संकट की इस घड़ी में ग्रामीण भारत, मेनस्ट्रीम राष्ट्रीय मीडिया के एजेंडे का हिस्सा नहीं रहा। यह सर्वे एक सशक्त दस्तावेज है जो बताता है कि ग्रामीण भारत अब तक इस संकट से कैसे निपटा और आगे उसकी क्या योजनाएं है? जैसे- क्या वे शहरों की ओर फिर लौटेंगे? क्या वे अपने खर्च करने के तरीकों में बदलाव करेंगे, ताकि संकट की स्थिति में वे तैयार रहें और फिर से उन्हें आर्थिक तंगी का सामना नहीं करना पड़े।"

सीएसडीएस, नई दिल्ली के प्रोफेसर संजय कुमार ने कहा, "सर्वे की विविधता, व्यापकता और इसके सैंपल साइज के आधार पर मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि यह अपनी तरह का पहला व्यापक सर्वे है, जो ग्रामीण भारत पर लॉकडाउन से पड़े प्रभाव पर फोकस करता है। लॉकडाउन के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क और अन्य सरकारी नियमों का पालन करते हुए यह सर्वे गांव कनेक्शन के द्वारा आयोजित किया गया, जिसमें उत्तरदाताओं का फेस टू फेस इंटरव्यू करते हुए डाटा इकट्ठा किए गए।"

"पूरे सर्वे में जहां, उत्तरदाता शत प्रतिशत यानी की 25000 हैं, वहां प्रॉबेबिलिटी सैम्पलिंग विधि का प्रयोग हुआ है और 95 प्रतिशत जगहों पर संभावित त्रुटि की संभावना सिर्फ +/- 1 प्रतिशत है। हालांकि सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से उनके जनसंख्या के अनुसार एक निश्चित और समान आनुपातिक मात्रा में सैंपल नहीं लिए गए हैं, इसलिए कई लॉजिस्टिक और कोविड संबंधी कुछ मुद्दों में गैर प्रॉबेबिलिटी सैम्पलिंग विधि का प्रयोग हुआ है और वहां पर हम संभावित त्रुटि की गणना करने की स्थिति में नहीं हैं," संजय कुमार आगे कहते हैं।

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