हदें तोड़ता वायु प्रदूषण, काम के हैं दूसरे देशों के सबक

Suvigya JainSuvigya Jain   14 Nov 2019 6:31 AM GMT

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हदें तोड़ता वायु प्रदूषण, काम के हैं दूसरे देशों के सबक

दिल्ली एनसीआर का दम एक बार फिर घुट रहा है। पिछले दो वर्षों से ये समस्या बढ़ी है। और उसके पहले भी कई साल से दिल्ली प्रदूषण air pollution झेल रही है। इसीलिए पिछले साल वायु प्रदूषण कम करने के लिए कुछ ज्यादा ही भागमभाग दिखाई गई थी। दिल्ली की सड़कों पर वाहनों की संख्या कम करने के लिए सम-विषम की तरकीब लगी। ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान लागू हुआ। लगा था कि प्रदूषण कम करने की तरकीब मिल गई है। लेकिन इस साल फिर वही हालत होने से साबित हुआ है कि तमाम कोशिशें लगभग बेअसर रहीं। जाहिर है कि अब फिर नए सिरे से सोचना पड़ेगा। यह भी देखना पड़ेगा कि जो कुछ किया जा रहा है वह उतना कारगर क्यों नहीं है? नया क्या किया जाए?

वो तो शुकर है कि वायु प्रदूषण का पता एक सूचकांक से लग जाता है। एक्यूआई यानी एअर क्वालिटी इंडेक्स air quality index यानी वायु गुणवत्ता सूचकांक के आधार पर प्रदूषण की श्रेणियां हैं। पिछले कुछ साल से छह श्रेणियों का यह पैमाना छोटा पड़ने लगा है। एक्यूआई के मुताबिक शून्य से 50 अंक तक वायु की गुणवत्ता को अच्छा माना जाता है। उसके बाद 51 से 100 तक संतोषजनक, 101 से 200 मध्यम तीव्र और 201 से 300 के सूचकांक को खराब श्रेणी में रखा जाता है।

तीन सौ से चार सौ के बीच की स्थिति बेहद खराब होती है। वायु प्रदूषण की तीव्रता अगर 401 से 500 तक पहुंच जाए तो उसे अंग्रेजी में सीवियर यानी वायु प्रदूषण की तीव्रता का सबसे भयावह स्तर माना जाता है। इस साल इन दिनो वही छठे दर्जे का प्रदूषण है। कई बार प्रदूषण छठी श्रेणी को भी पार कर जा रहा है। जिसे आपातकाल की स्थिति की तरह देखा जा रहा है। ऐसा तब है जबकि वे सारे उपाय लागू हैं जिनसे वायु प्रदूषण कम करने का दावा किया गया था।

दरअसल किसी समस्या का समाधान ढूंढना एक विशेषज्ञ प्रक्रिया है। अंग्रेजी में इसे प्राब्लम सोल्विंग प्रोसेस कहते हैं। इस प्रक्रिया में सबसे पहले उस समस्या को परिभाषित कर के उसके कारणों को ढूंढा जाता है। वैसे तो प्रदूषण जैसी समस्याओं के लिए देश की बढ़ती जनसंख्या को ही एक बड़ा कारण माना जाता है। लेकिन आर्थिक विकास की दौड़ के चक्कर में भी पर्यावरण से समझौता होता ही आया है। अगर वायु प्रदूषण से निजात के सारे उपलब्ध उपाय बेअसर दिखने लगे हैं तो अब जनसंख्या वृद्धि और आर्थिक विकास की दौड़ पर भी गौर शुरू हो जाना चाहिए।

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वैसे तो यह समस्या देश में हर शहरी इलाके में महसूस की जाने लगी है लेकिन दिल्ली और इसके इर्द गिर्द के इलाके बाकी देश की तुलना में थोड़े ज्यादा लम्बे समय से ऐसे भयावह प्रदूषण से जूझ रहे हैं। राजधानी होने के नाते इस इलाके की चिंता वाजिब भी है। हर साल इन दिनों बढ़ने वाली इस समस्या के मुख्य कारणों में एक बड़ा कारण पराली का जलाया जाना भी है।

आरोप है कि हरियाणा, पंजाब और राजधानी से सटे उप्र के इलाकों में पराली जलाने से दिल्ली में काला कोहरा छा जाता है। हालांकि यह अकेला कारण नहीं था। तभी तो दिल्ली में समस्या वाले दिनों में सम विषम तरीके से वाहनों की संख्या कम करने की कवायद हुई थी। भले ही यह उपाय आयातित है लेकिन प्रदूषण कुछ कम करने का यह एक जांचा परखा उपाय है। लेकिन बहुकारकीय सिद्धांत के मुताबिक प्रदूषण के एकसाथ कई कारण होने के कारण आज तक यह आकलन नहीं हो पाया कि सम-विषम का असर कितना पड़ता है। बहरहाल मान कर चला जा सकता है कि कुछ न कुछ असर जरूर हुआ होगा।

समस्या इतनी भयावह है कि थोड़े असर को भी बहुत माना जाना चाहिए। इसी बीच दीवाली पर पटाखों का इस्तेमाल कम होने का भी कुछ न कुछ असर जरूर पड़ा ही होगा। ये बिल्कुल अलग बात है कि पिछले साल पटाखों के खिलाफ ताबड़तोड़ अभियान चला था लेकिन उसका असर ज्यादा नहीं पड़ा था। और इस बार पटाखे विरोधी अभियान उतना ज्यादा दिखाई नहीं दिया लेकिन दीवाली की रात पटाखों की आवाज़ तुलनात्मक रूप से कमी आई। पटाखे कम जरूर इस्तेमाल हुए हों लेकिन प्रदूषण लम्बे अन्तराल में जस का तस बना है।

तमाम कोशिशों के बावजूद अगर दिल्ली को अभी भी प्रदूषण से निजात नहीं मिल पा रही है तो प्रदूषण के दूसरे बड़े कारणों को जरूर तलाशा जाना चाहिए। और उन कारणों को दूर करने के लिए विशेषज्ञों की मदद ली जानी चाहिए क्योंकि अभी जो उपाय हो रहे हैं वे हर तरह से नाकाफी साबित हो रहे हैं। लाख दावों और कथित उपायों के बावजूद दिल्ली में वायु प्रदूषण की समस्या जस की तस है। जाहिर है कि पुख्ता इंतजाम बाकी है। अदालतें फिर चिंता जाता रही हैं। अदालत की तरफ से भी जानकारों से सुझाव देने की बात कही जा रही है कि विशेषज्ञ आयें और तरीके बताएं ताकि सरकार को वैसा करने के निर्देश दिए जा सकें।

फिलहाल अगर और कुछ नहीं सूझ रहा हो तो कम से कम यह तो देखा ही जा सकता है कि विश्व के दुसरे देश जो विगत में ऐसी ही समस्या से जूझ चुके हैं उन्होने इस समस्या से निजात पाने के लिए आखिर क्या किया? कई देश विगत में ठीक इन्हीं हालातों से गुज़रे हैं और व्यवस्थित और विश्वसनीय उपायों से इस समस्या पर काबू पाने में सफल भी हुए हैं। ऐसे में प्रदूषण नियंत्रण के लिए नीतियां बनाने वाली भारतीय एजंसियों और सरकारी विभागों को पता करने में लग जाना चाहिए कि विश्व के बाकी देशों ने ऐसी स्थितियों से कैसे निपटा? भुक्तभोगी दूसरे देशों के किए उपाय हमारे लिए भी मददगार हो सकते हैं।

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मसलन दिल्ली जैसी ही हालत कुछ साल पहले चीन के बीजिंग में पैदा हुई थी। तब चीन ने एक राष्ट्रीय एअर क्वालिटी एक्शन प्लान बनाया था। इसमें सबसे पहला कदम आर्थिक विकास की रफ़्तार को कम करके पर्यावरण सुधार के काम पर लगने का उठाया गया था। तब वहां बीजिंग के आस-पास कोयले से संचालित सभी संयंत्र बंद करा दिए गए। वाहनों पर क्रमिक पाबंदी लगा दी गई। जन परिवहन को और बेहतर बनाने में निवेश किया गया। प्रदूषण स्तर बढ़ने पर स्थानीय सरकारों से जुर्माना लिया जाना शुरू किया गया और उद्योगों को पर्यावरण संगत तरीके अपनाने के लिए प्रोत्साहन देने के कार्यक्रम बनाए गए।

इसी तरह फ्रांस की राजधानी पेरिस में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कई एतिहासिक और केन्द्रीय स्थानों पर वाहनों के जाने पर पाबंदी लगाई गई। आज भी वहां नियमित रूप् से ओड इवन के उपाय को उपयोग में लाया जाता है। प्रदूषण बढ़ाने वाले कार्यक्रमों और त्योहारों के दौरान जन यातायात को मुफ्त कर दिया जाता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे टोकन पद्धति कहते हैं। इसी तरह नीदरलैंड्स में राजनीतिकों द्वारा एक प्रस्ताव दिया गया जिसके तहत 2025 तक सभी डीजल और पेट्रोल से चलने वाली गाड़ियों की बिक्री पूरी तरह से बंद कर देने की बात है। इसके क़ानून बनते ही सिर्फ हाइड्रोजन और बिजली से चलने वाली नई गाड़ियाँ ही खरीदी जा सकेंगी।

उधर जर्मनी के फ्राईबर्ग शहर में 500 किलोमीटर लंबे बाइकवेज़ और ट्रेमवेज़ लोगों के लिए बनाये गए हैं। पनिशमेंट यानी दंड की बजाए टोकन यानी पुरस्कार पद्धति से वहां जन यातायात बेहद सस्ता है। फ्राईबर्ग में जिस व्यक्ति के पास गाड़ी नहीं होती है उसे सस्ते घर, मुफ्त सरकारी यातायात जैसे लाभ दिए जाते हैं।

डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन ने 2025 तक खुद को कार्बन न्यूट्रल बनाने का लक्ष्य तय किया है। जिसके लिए वहां की सरकार और लोग पूरी गंभीरता से लगे हुए हैं। वहां इस समय साइकिलों की संख्या वहां की जनसंख्या से ज्यादा है। फ़िनलैंड की राजधानी अपने सरकारी यातायात को बेहतर बनाने में भारी निवेश कर रही है जिससे नागरिकों को निजी गाड़ियों के इस्तेमाल की जरूरत ही ना महसूस हो।

ज़्यूरिक में एक समय में शहर की सभी पार्किंग की जगहों में कितनी गाड़ियाँ दाखिल हो सकती हैं इसकी एक सीमा निर्धारित है। उनके भरते ही नयी गाड़ियों को न शहर में प्रवेश दिया जाता है ना शहर के अंदर की गाड़ियों को कहीं पार्क करने की जगह दी जाती है। इस उपाय से वहां चमत्कारिक रूप से प्रदूषण के स्तर और ट्रैफिक जैम में गिरावट देखी गयी है।

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दक्षिणी ब्राज़ील के शहर क्युरिचीबा (curitiba) में इस समय दुनिया की सबसे लंबी और सबसे सस्ती बस प्रणाली जनता के लिए उपलब्ध है। वहां की 70 फीसद आबादी आवागमन के लिए जन यातायात का उपयोग कर रही है। ऐसे कई देशों के उदहारण और जांचे परखे हुए उपाय विश्व के सामने उपलब्ध हैं। हम भी अगर चाहे तो अपनी समस्या के लिए विश्व के इन देशों के अनुभवों का लाभ उठा सकते हैं। वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए दुनिया के तमाम देशों के उपायों को गौर से देखें तो उनमें एक समानता देखी जा सकती है। प्रदूषण से निपटने के लिए इन सभी भुक्तभोगी देशों ने सबसे पहले आर्थिक वृद्धि और विकास की दर के आंकड़े की चिंता को पीछे छोड़ा और प्रदूषण से निपटने के लक्ष्य को अपनी प्राथमिकता बनाया। तभी वे लोग सख्त कदम उठा पाए।

इसीलिए यह बहुत ज़रूरी है कि आर्थिक विकास और सतत विकास के फ़र्क को समझा जाए। इसे समझे बिना प्रदूषण से निपटना हमेशा मुश्किल बना रहेगा। इन देशों के उपायों में अपने लिए देखने की बात यह है कि उन देशों में इस समस्या को आर्थिक रूप से प्राथमिकता की सूची में किस स्थान पर रखा गया? और इससे निजात पाने के लिए किस स्तर का निवेश इन देशों ने किया?

मसलन वहां उद्योग संयंत्रों को बंद करने, सरकारी यातायात को बेहतर बनाने या डीजल पैट्रोल के वाहन न इस्तेमाल करने पर सस्ते घर और दूसरी आर्थिक सुविधाओं जैसे लाभ देने के लिए भारी सरकारी निवेश की ज़रूरत पड़ी। इसके अलावा समझने की बात यह भी है कि जन भागीदारी के बिना प्रदूषण नियन्त्रण का कोई भी उपाय कारगर नहीं हो सकता। और सिर्फ कड़े कानून और सजा के प्रावधान से जन भागीदारी नहीं बढ़ाई जा सकती। उसके लिए कुछ रीइन्फोर्समेंट यानी अतिरिक्त लाभ या सुविधाएं देना ज्यादा कारगर होता देखा गया है।


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