जल संकट : सरकारों के लोक लुभावन प्रयासों का दुष्परिणाम
Dr SB Misra 24 March 2018 10:52 AM GMT
जल उपयोग उतना ही महत्वपूर्ण है जितना जल संचय । यदि समझदारी से जल का उपयोग किया जाय तो मानव जाति के लिए हमेशा ही जल उपलब्ध रहेगा। लेकिन दुरुपयोग करने से बूंद बूंद पानी के लिए मनुष्य तरस जाएगा । वास्तव में वर्तमान जल संकट विभिन्न सरकारों के लोक लुभावन प्रंयासों का दुष्परिणाम है।
इन सरकारों ने वैज्ञानिकों के सचेत करने पर भी ध्यान नहीं दिया। ऐसे स्थानों पर भी अनगिनत सरकारी ट्यूबवेल बनाए गए और मुफ्त बोरिंग का मौका दिया गया जहां भूमिगत जल दस से बारह मीटर की गहराई पर है। भूवैज्ञानिकों की सलाह है कि जहां 6 मीटर से अधिक गहराई पर जल स्तर पहुंच गया हो वहां सिंचाई के लिए भूमिगत जल का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे कम गहराई पर वाटर लेबल हो तो ही करना चाहिए।
सरकारें तालाब खोदकर मछली पालन को प्रोत्साहित करती हैं और उन तालाबों में पानी की कमी को भूमिगत जल से पूरा किया जाता है। मुफ्त बिजली पाकर यह काम और भी आसान हो जाता है। इसी तरह मेंथा की खेती में भूमिगत जल का बहुत दुरुपयोग होता है जब कि चीन जैसे देशों ने मेंथा की खेती पर रोक लगाई है। यह फसल दाल और सब्जियों के बदले उगाई जाती है इसलिए और भी समस्याएं पैदा होती है। पानी की अधिक खपत वाली फसलों को उन क्षेत्रों में उगाया जाना चाहिए जहां जल संकट नहीं है।
सीरीज का पहला भाग यहां पढ़े- विश्व जल सप्ताह विशेष : पानी बना नहीं सकते, बचा तो लीजिए
जल की कमी की पूर्ति के लिए दो उपाय सरकार ने सोचे हैं, एक तो सतह पर वर्षा जल का संचय और दूसरे भूमिगत जल को रीचार्ज करके भूजल में इजाफा। दोनों ही विधियां दूरगामी परिणाम ला सकती हैं। असली संकट इसलिए नहीं है कि पानी नहीं बरसता बल्कि इसलिए है कि हम पानी की फसल को संभालते ही नहीं। उत्तर प्रदेश के लगभग 98 हजार गाँवों में जलसंग्रह के लिए तालाबों की कमी नहीं है परन्तु उनका रखरखाव नहीं होता और वे अनुपयोगी हो रहे हैं।
शायद ही किसी पंचायत के पास आंकडे़ होंगे कि मनरेगा में तालाबों की खुदाई आरम्भ होने के पहले तालाबों में कितने पानी का संचय हो सकता था और उनकी सफाई खुदाई करने के बाद जलधारक क्षमता में कितनी वृद्धि हुई। यदि तालाबों की क्षमता बढ़ेगी और वनस्पति खूब होगी तो धरती पर वर्षा जल का प्रवाह धीमा होगा और भंडारण के लिए प्रकृति को समय मिलेगा, जल भंडारण अधिक होगा
शहरी पानी की हार्वेस्टिंग और भूजल के कृत्रिम रीचार्ज पर विशेष ध्यान दिया जा रहां है। कठिनाई तब हो सकती है जब वर्षा जल में वायु प्रदूषण के कारण एसिड रेन यानी अम्लीय वर्षा होती है। शहरी इलाकों में प्रदूषण अधिक है इसलिए वर्षा जल भी अधिक प्रदूषित होता है जो पीने योग्य नहीं रहता। जमीन के अन्दर टैंक बनाकर वाटर हार्वेस्टिंग करने से वर्षा जल के स्वाभाविक भूमि प्रवेश जैसी शुद्धता नहीं रहेगी। अतः शहरी वाटर हार्वेस्टिंग और कृत्रिम रीचार्ज से जलाभाव का एक छोटा अंश ही पूरा होगा।
भूजल का प्राकृतिक रीचार्ज होना चाहिए जिसके लिए वनस्पति आच्छादित भूमिं पर वर्षाजल धीरे धीरे बहे और उसे जमीन के अन्दर जाने का समय मिले। इस तरह वर्षा जल का कुछ भाग जमीन के अन्दर जाकर पहाड़ी और मैदानी इलाकों में संचित हो सकेगा और उसी प्रकार उपलब्ध रहेगा जैसे किसान अपने लिए बक्खारी में फसल के बाद अनाज बचाकर रखता है। यह पानी शुद्ध होता है क्योंकि जमीन के अन्दर जाते हुए छन छन कर जाता है। इस प्रकार मनुष्य के पीने के लिए पानी का यह एकमात्र श्रोत है क्योंकि समुद्र का पानी खारा है जिसका खारापन दूर करना वर्तमान में महंगा है और सतह पर पानी प्रदूषित हो रहा है।
उत्तर भारत के अनेक भागों में जल रीचार्ज में बाधक है कंकड़ की वह परत जो जमीन के नीचे तीन चार फिट की गहराई पर चादर की तरह मौजूद है। यह परत वर्षा जल को जमीन के अन्दर घुसने नहीं देती और गर्मी के दिनों में अन्दर का पानी ऊपर आने नहीं देती। यदि इसे पंक्चर न किया गया तो बरसात में पानी नीचे नहीं घुसेगा और गर्मियों में नीचे से पानी पौधों की जड़ों तक ऊपर नहीं आ पाता है। जलभराव और सूखा की जड़ में यही कंकड़ की परत है ।
देश के पारम्परिक पेड़ जैसे आम, जामुन, महुआ, पीपल, पकरिया, गूलर और अर्जुन की जगह अब लिप्टस और पापुलर के तेज बढ़ने वाले विदेशी पेड़ लगाए जाते हैं। जिनकी जड़ें जमीन को उतना पंक्चर नहीं करतीं कि जमीन पानी को अन्दर जाने दे और गर्मियों में पेड़ पौधों के लिए पानी उपलब्ध रहे। यदि वर्षा जल द्वारा प्राकृतिक रीचार्ज हो सके और तालाबों, झीलों आदि में वाटर हार्वेस्टिंग हो सके तो समस्या का समाधान सम्भव है।
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