सुभाष चंद्र बोस पर विशेष : आज़ाद हिन्द फौज का दिल्ली मुक़दमा
Nalin Chauhan | Jan 23, 2018, 10:45 IST
लालकिले में पहला मुकदमा 5 नवंबर 1945 को शुरू हुआ। इस बीच 30 नवंबर 1945 को गवर्नर जनरल ने जनता में बढ़ती लोकप्रियता और उत्साह को भांपते हुए मुकदमे के लिए पेश नहीं किए गए आजाद हिंद फौज के गिरफ्तार सैनिकों को रिहा करने का फैसला लिया।
कमजोर व्यक्तियों को समूह बताते थे वायसराय वावेल
वावेल व मार्शल ऑचिनलेक दोनों निराश व्यक्ति थे
आजाद हिन्द फौज के सैन्य अिधकािरयों का कोर्ट मार्शल
अंग्रेज़ सरकार ने एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से 27 अगस्त 1945 को इस आशय की घोषणा की। आज़ाद हिंद फौज के सभी शीर्ष सैन्य अधिकारियों और जवानों के कोर्ट मार्शल के लिए फौजी अदालत में पेशी की बात तय हुई। इस पेशी का मुख्य उद्देश्य, देश की जनता को यह जतलाना था कि वे गद्दार, कायर, अड़ियल और जापानियों की चाकरी में लगे गुलाम थे। यह कदम सरकार की एक बड़ी भूल थी, जिसके दूरगामी परिणाम हुए।
ऑचिनलेक, वावेल को इस बात का भरोसा देता रहा कि भगोड़ों (वह आज़ाद हिंद फौज के सैनिकों को इसी नाम से पुकारता था) के वफादार सैनिकों को यातना देने के कुछ संगीन मामले हैं। वावेल का भी मानना था कि आज़ाद हिंद फौज के अधिकारियों के कोर्ट मार्शल से भारतीय जनता को झटका लगेगा। वावेल से भी अधिक ऑचिनलेक को इस बात का भरोसा कि जब आज़ाद हिंद फौज की क्रूरता के कुकृत्य सार्वजनिक होंगे तो आज़ाद हिंद फौज के लिए सहानुभूति स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी।
अंग्रेज सरकार का मानना था कि देश के प्रति वफादार भारतीय जनता के लिए हत्या-यातना देने वाले स्वदेशी सैनिकों का समर्थन करना सहज नहीं होगा। इसके लिए ऑल इंडिया रेडियो से आज़ाद हिंद फौज के भगोड़ों सैनिकों की पूछताछ में अंग्रेज़ सेना में शामिल सैनिकों के चोटिल होने और मरने की मिथ्या तथा सनसनीखेज कहानियां प्रसारित की गई।
नेताजी के साथ जापानी सेना के विरूद्ध संघर्ष को तैयार थे नेहरू
26 जुलाई 1945, ब्रिटेन में हुए आम चुनावों में प्रधानमंत्री चर्चिल को मुंह की खानी पड़ी और क्लीमेंट एटली प्रधानमंत्री बना। इस समय तक कांग्रेसी नेताओं को नेताजी और उनकी आजाद हिंद फौज के बारे में पता लग चुका था। कांग्रेस नेतृत्व और अंग्रेज सरकार दोनों ही एक-समान दुविधा के शिकार थे। नेताजी के साथ कैसा व्यवहार हो। क्या उन्हें बंदी बनाकर भारत लाया जाए? नेताजी ने भारत की पहली राष्ट्रीय सशस्त्र सेना गठित करने के साथ अपनी भूमिका इतनी कुशलता से निभाई कि जापानी सेना को भारतीयों सैनिकों को सहयोगी के रूप में स्वीकारना पड़ा।
लालकिले में पहला मुकदमा
उस समय अभियोजन पक्ष के मुख्य वकील और एडवोकेट जनरल सर नौशिरवन पी इंजीनियर अदालत में अपनी समापन जिरह में यातना संबंधी आरोप को प्रभावी रूप से सिद्व नहीं कर पाएं। भूलाभाई देसाई ने इस संबंध में सबूत मांगे। जब 3 कैवेलरी के दो अफसरों धारगलकर और बधवार को गवाह के रूप में पेश किया गया तो यह बात जाहिर हुई कि जापानी सेना का आचरण विधि सम्मत नहीं था न कि उनके साथी आज़ाद हिंद फौज के भारतीय सैनिकों का। मुकदमे में अभियोजन पक्ष के पहले गवाह एक पूर्व मजिस्ट्रेट डीसी नाग ने ही सरकार के पक्ष को सबसे ज्यादा नुकसान किया। भारतीय सेना की एडजुटेंट जनरल की शाखा में शामिल नाग को सिंगापुर में कैदी बनाया गया था। उसके साथ जिरह में आज़ाद हिंद फौज के विश्वसनीय संगठन होने की बात का पता चला। आज़ाद हिंद फौज एक संगठित, कुशल प्रशासन वाली सक्षम सेना के रूप में सबके सामने आई।
- 14वीं टुकड़ी ने वर्ष 1943 में बर्मा को जापानी सेना से दोबारा जीत लिया।
- 15 अगस्त 1946 को हथियार डाल दिए। तभी 23 अगस्त 1945 को नेताजी की विमान दुर्घटना में मृत्यु होने की घोषणा हुई।
- 1945 को अंग्रेज सरकार ने आजाद हिंद फौज के लगभग 600 सैनिकों पर अदालत में मुकदमा चलने और बाकियों के बर्खास्त होने की बात कही।
- 20 सितंबर 1945 को यह फैसला लिया कि भारतीयों को मारने वाले या यातना देने वाले दोषियों को ही मौत की सजा होगी।
- 1946 में एक छोटी प्रेस विज्ञप्ति में, आज़ाद हिंद फौज पर और अधिक मुकदमों के न होने की बात की घोषणा की गई। इसके साथ ही आज़ाद हिंद फौज के हिरासत में लिए गए सभी सैनिकों को रिहा कर दिया गया।
आजा़द हिंद फौज की जीत
ये केवल अपनी देश की आजादी के लिए लड़ने वाले सैनिक थे। इस मुकदमे में अनेक गवाहों ने उनके साथ हुए दुर्व्यवहार की दास्तां सुनाई लेकिन दिलचस्प बात यह है कि उनका इन तीन आरोपित अफसरों से कोई संबंध नहीं था। भूलाभाई देसाई ने आरोप लगाया कि ऐसा इस अफसरों के खिलाफ एक पूर्वाग्रह पैदा करने के लिए किया गया था। एक तरह से अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयानों ने ही आजाद हिंद फौज के अच्छे चाल-चरित्र और चिंतन को जाहिर किया। इस सब का कुल नतीजा जनता में आजाद हिंद फौज को लेकर उत्साह के रूप में सामने आया। बेशक यह वास्तव में आज़ाद हिंद फौज के लिए एक जीत थी।
- मई 1946 में एक छोटी प्रेस विज्ञप्ति में, आज़ाद हिंद फौज पर और अधिक मुकदमों के न होने की बात की घोषणा की गई। इसके साथ ही आज़ाद हिंद फौज के हिरासत में लिए गए सभी सैनिकों को रिहा कर दिया गया। इससे तत्कालीन अंग्रेज सरकार के नजरिए से यह बात को पूरी तरह साफ हो गई कि यह मुकदमा एक आला दर्जे की भूल था। इस बात को लेकर कोई निश्चिंतता नहीं है कि आखिर में कुल कितने मुकदमे चलाए गए। आज़ाद हिंद फौज का इतिहास पुस्तक के अनुसार, मार्च 1946 के अंत तक केवल 27 मुकदमें शुरू किए गए थे या विचाराधीन थे।
- आज़ाद हिंद फौज और उसके मुकदमों ने अंग्रेज सरकार को यह स्पष्ट संदेश दे दिया कि अब उनकी विदाई की घड़ी आ गई है। वाइसरॉय ने अंग्रेज सरकार को चेताते हुए कहा कि पहली बार पराजय का भाव न केवल सिविल सेवाओं बल्कि भारतीय सेना पर नजर आया। लाल किले में मुकदमों के शुरू, होने से पहले ऑॅचिनलिक ने सरकार को बताया था कि भारतीय सैनिकों की टुकड़ियां गदर होने की हालात को काबू कर लेंगी। जबकि मुकदमों के अंत में उसका आत्मविश्वास भी बुरी तरह डगमगा गया था। शाह नवाज, प्रेम सहगल और गुरबख्श ढिल्लों भारतीय जनता की आंखों में खलनायक नहीं, नायक थे।
- इन अफसरों को देशद्रोही बताने से, उनकी लोकप्रियता में ही वृद्धि हुई। इन मुकदमों से बने राष्ट्रवादी माहौल से सशस्त्र सैनिक भी अछूते नहीं रहे। सेना मुख्यालय ने आजाद हिंद फौज के मुकदमों की भारतीय सेना पर प्रभाव और सैनिकों की भावनाओं का आकलन करने के लिए एक विशेष दल गठित किया। अब देश में विद्रोह की स्थिति में भारतीय सेना के लिए इस्तेमाल पर गहरा सवालिया निशान था। ऑचिनलेक ने पहली बार यह बात महसूस कि जावा को दोबारा जीतने के लिए डच सेना की मदद के लिए भारतीय सैनिक टुकड़ियों के उपयोग का निर्णय खासा अलोकप्रिय रहा।
- शाह नवाज, सहगल और ढिल्लो की सजा की माफी के बारे में ऑचिनलेक ने सभी वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों को लिखे एक पत्र में कहा कि इनको सजा देने का कोई भी प्रयास देश में बड़े पैमाने पर अराजकता और शायद सेना में विद्रोह और कलह को जन्म दे सकता है। जो कि सेना के विघटन के रूप में सामने आ सकता है। एक लंबे समय तक अंग्रेजी राज के लिए तलवार का काम करने वाली भारतीय सेना अब एक दोधारी हथियार बन चुकी थी जो कि उसके धारक के लिए प्राणहंता बन सकती थी। ऑचिनलिक के आदेश से सेना में हुए अध्ययन से साफ हो गया कि अब भारतीयों के विरूद्ध भारतीय सेना का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
- आज़ाद हिंद फौज के हैरतअंगेज कारनामों ने सभी भारतीयों को झकझोर दिया और उनमें देशभक्ति की भावना को पहले से अधिक प्रबल कर दिया। इसी का परिणाम 1946 में बंबई में भारतीय नौसेना में विद्रोह के रूप में सामने आया। इस तरह, आज़ाद हिंद फौज ने हारकर भी अंग्रेजी उपनिवेशवाद के कफन में अंतिम कील गाड़ने में सफल रही।
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23 अगस्त 1945
नेताजी की विमान दुर्घटना
दूसरे तरह का था अंग्रेजों का धर्मसंकट
50 सैनिकों को मौत की सजा होने का था अनुमान
आजाद हिंद फौज की जीत, अंग्रेजों के विरुद्ध हो गई
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कांग्रेस ने आरोपी सैनिकों की जिम्मेदारी अपने ऊपर पर ली
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