उम्मीदों की अर्थव्यवस्था के बीच कुछ संशय

गाँव कनेक्शन | Jan 08, 2018, 17:34 IST
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वर्ष 2017 में भारत ने जो कदम रखा था वह विमुद्रीकरण की भारी-उथल वाली जमीन पर प्रधानमंत्री के 50 दिन की मोहलत के बाद भारी आशावाद के साथ रखा था। हालांकि मेरे जैसा व्यक्ति भ्रम के साथ प्रवेश कर रहा था क्योंकि प्रधानमंत्री, जो कि अर्थशास्त्री नहीं हैं, ने दावा किया था कि, ‘‘ हम जनवरी में एक भिन्न और बेहतर दुनिया में प्रवेश करेंगे’’, लेकिन उनके ठीक विपरीत पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, जो एक अर्थशास्त्री भी हैं, ने कहा था कि,‘‘आने वाले कुछ महीनों में विमुद्रीकरण एक विशाल त्रासदी में परिणत हो सकता है।’’ उस समय एक प्रधानमंत्री से अधिक एक अर्थशास्त्री की बात मानने के मेरे पास भी बहुत तर्क और तथ्य थे, इसलिए हमने बहुत से संशयों के साथ वर्ष 2017 में प्रवेश किया था और हमारे देश ने भी।

दरअसल वर्ष 2016 के 8 नवम्बर को प्रधानमंत्री द्वारा लिए गये निर्णय को जो नाम दे दिया जाए लेकिन वह सही अर्थों में न तो विमुद्रीकरण था और न ही नोटबंदी। इसलिए आशावाद पर निराशा ज्यादा प्रभावी हो रही थी। वर्ष 2017 में धीरे-धीरे भारतीय रिजर्व बैंक ने जब धंध साफ की तो संशय बहुत हद तक व्यवहारिक रूप लेते दिखे। इसके बाद आधा साल बीतते-बीतते वस्तु और सेवा कर यानि जीएसटी आ गया, जिसमें एक नयापन था और अर्थव्यवस्था को धार देने की ताकत भी, लेकिन इसके लिए सरकार ने होमवर्क नहीं किया था इसलिए आधी-अधूरी तैयारी के साथ वह लागू किया गया। स्वाभाविक है विसंगतियां और कुप्रभाव सामने आते। कुल मिलाकर इन दोनों कदमों और वित्तमंत्री की नामसमझी ने भारतीय अर्थव्यवस्था की नब्ज समझे बगैर जिस तरह के निर्णय लिए उससे वर्ष 2017 भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेहद असामान्य साबित हुआ।

जब विमुद्रीकरण किया गया और जो तर्क सरकार द्वारा दिए गये, उन पर सरकार स्वयं टिक नहीं पायी इसलिए उसे कई बार अपने निर्णय और गोल पोस्ट बदलने पड़े। इससे यह बात तो स्पष्ट थी कि सरकार की मंशा जो रही हो लेकिन उसका विज़न और उद्देश्य स्पष्ट नहीं थे। यही नहीं आर्थिक समीक्षा 2016-17 में (जो कि एक तरह से भारत सरकार का दस्तावेज होता है) इस संदर्भ में जो कार्य-कारण दिया गया वह सरकार के निर्णय में खोट सिद्ध करता है। समीक्षा में प्रस्तुत एक सिद्धांत गंदे नोट को लेकर है जिसमें कहा गया है कि जो नोट कम गंदे होते हैं वे बाजार में चलन का हिस्सा नहीं रहे होते हें। उसके अनुसार 1000 रुपये के नोट 13 प्रतिशत ही गंदे थे।

इसका मतलब हुआ कि उनकी भारी मात्रा चलन से बाहर रही थी। शायद इसी को सरकार ने अवैध मुद्रा मान लिया। लेकिन समीक्षा में यह सूत्र भी पेश किया गया है कि बड़े नोट और अवैध मुद्रा के मध्य सीधा अनुपात होता है। 1000 रुपये का नोट बंद कर 2000 रुपये के नोट के चलन किस तरह से देखा जाए ? इस निर्णय ने यह भी ध्यान नहीं दिया कि भारत एक बाजार और ग्रामीण अर्थव्यवस्था वाला देश है, जहां नकदी उसकी रीढ़ है। नकदी के गायब होते ही दोनो अर्थव्यवस्थाओं की रीढ़ टूट जाएगी जिससे आर्थिक संवृद्धि दर तो गिरेगी ही साथ ही असंगठित क्षेत्र, अनौपचारिक क्षेत्र और ग्रामीण कृषि व शिल्प क्षेत्र में रोजगार समाप्त हो जाएंगे। इसका एक दूसरा पक्ष भी था, जिसकी भारत के बहुत से अर्थविद्ों ने भी अनदेखी की। अर्थात यदि ग्रामीण और अनौपचारिक क्षेत्र टूटा तो समग्र मांग प्रभावित होगी जिससे उत्पादन व विनिर्माण क्षेत्र की रीढ़ यदि नहीं भी टूटी तो उसका स्नायुतंत्र अवश्य ही असंतुलित हो जाएगा। यही हुआ भी।

एक बात और, वर्ष 2017 में वर्ष 2016 की जल्द निकासी और पुनर्भंडारण जैसी गतिविधियां प्रभावशाली रहीं, इसलिए आर्थिक क्रियाकलापों की वास्तविक तस्वीर पता नहीं चल पाईं। लेकिन वर्ष के बीच में तस्वीर काफी हद तक साफ हो गयी थी और पता चल चुका था कि अर्थव्यवस्था पटरी से उतर चुकी है। दुनिया भर की रेटिंग एजेंसियों ने भारत की रेटिंग को जिस श्रेणी में रखा उससे यह तो बिल्कुल साबित नहीं हुयी कि दुनिया हमारी अर्थव्यवस्था की साख को लेकर आश्वस्त है। लेकिन वर्ष बीतते-बीतते उम्मीद की कुछ किरणें दिखीं, जब मूडीज ने सकारात्मक संकेत दिया और ईज ऑफ बिजनेस डूइंग में भारत की रैंक एकदम 34 पायदान उछल गयी। यह इस बात का संकेत है कि यदि अर्थव्यवस्था को को सही ट्रैक पर डाला गया और उसे अपने निम्नतम बिंदु से उबारा गया तो सतत और तीव्र विकास हासिल किया जा सकता है। लेकिन अभी तक निजी निवेश में पुरानी वाली तेजी नहीं लौट पायी है भले ही सरकार ने वर्ष के जाते-जाते जीएसटी और इनसालवेंसी कोड जैसे पूर्व-घोषित सुधारों पर अमल करने सम्बंधी उत्साह दिखाने की कोशिश की हो।

यदि राजनीतिक-अर्थशास्त्र को देखें तो भले ही भारतीय जनता पार्टी ने बहुत से राज्यों में जीत हासिल कर इस बात का प्रचार किया हो कि जनता ने उसके कार्यों पर मुहर लगायी है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। यदि गुजरात होते हुए आर्थिक-राजनीतिक आइन को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि गुजरात की जनता को दिखाने के लिए सरकार के पास वह आर्थिक मॉडल नहीं था, जिसने नरेन्द्र मोदी को एकदम से राष्ट्रीय फलक प्रदान कर दिया था। इसका मतलब यह हुआ कि मोदी सरकार को अब अर्थव्यवस्था का कोई नया मॉडल लाना होगा, लेकिन अब उसके पास प्रयोग के लिए समय नहीं बचा है क्योंकि अब प्रेक्षण और निष्कर्ष का काल चल रहा है। यह तो अच्छा है कि भारत देश की जनता अर्थव्यवस्था के विषय में न तो कुछ जानती है और न ही कोई दिलचस्पी रखती है अन्यथा सरकार के लिए काउंटडाउन शुरू हो जाता। ग्रामीण गुजरात ने तो इसका सीधा संदेश भी दे दिया है। यानि अब सरकार कोई रू-रो-अर्बन इकोनॉमिक मॉडल लाना होगा, केवल डिजिटो-अर्बन मॉडल भारत के अनुकूल नहीं है।

वर्ष 2015, 2016 और 2017 में सरकार को सबसे ज्यादा साथ दिया कच्चे तेल की कीमतों ने। लेकिन डेस्टिनी हमेशा तो काम नहीं आएगी क्योंकि कच्चे तेल की कीमतों में वर्ष 2017 के अंत तक तेजी का सिलसिला दिखने लगा था। अगर नए साल में भी कच्चे तेल की कीमतों में तेजी का यही दौर बना रहा तो भारत के मैक्रो-इकोनॉमिक परिदृश्य पर उसका बड़ा असर देखने को मिल सकता है। हालांकि हाल ही में आए आंकड़ों से यह संकेत तो मिलता है कि निर्यात में तीव्र वृद्धि की विशेषताएं हैं जो वैश्विक मांग बढ़ने से और अधिक हो सकती है। अगर ऐसा हुआ तो जीएसटी की खौफनाक तस्वीर नहीं बन पाएगी लेकिन यदि ऐसा नहीं हुआ तो स्थितियां कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण होंगी। लेकिन एक बात को ध्यान में रखना होगा।

जीएसटी की जो विशेषता है और जिस तरह से अधिकारी तंत्र, विशेषकर राज्यों के वाणिज्य विभागों का, छोटे कारोबारियों पर प्रभाव जमा रहा है उससे लगता है कि जीएसटी छोटे कारोबारियों के लिए सर्पदंश साबित होगा। इससे रूरल और कस्बाई रोजगार और आर्थिक दशा कमजोर पड़ेगी, जिसे पहले से ही विमुद्रीकरण ने अधमरा कर रखा है। इसके मुकाबले जीएसटी नेशनल चेन रिटेलर और मल्टीनेशनल्स के लिए बेहद अनुकूल साबित होगा। तो क्या वास्तव में भारत और इण्डिया एक स्पष्ट तस्वीर के साथ सामने आएंगे। यदि ऐसा हुआ तो देश में बहुत से क्षेत्र कोरेगांव-भीमा बनेंगे।

अंतिम बात राजकोषीय स्थिति के संदर्भ में है। हम वर्ष 2005 से ही राजकोषीय प्रबंधन की दक्षता या राजकोषीय सशक्तीकरण और कल्याणकारी राज्य के बीच डायनामिक-प्रोग्रेसिव बैलेंसिंग एक्ट का सम्बंध ढूंढ रहे हैं जो अब तक नहीं दिखा है। सभी सरकारें सारे पक्षों को दरकिनार कर सिर्फ राजकोषीय सशक्तीरकण पर अटक जाती हैं लेकिन उसकी राह भी अब आसान नहीं दिख रही है। वित्त वर्ष 2017-18 में राजकोषीय घाटे को 3.2 प्रतिशत रखने का जो लक्ष्य रखा गया था, उसे पार करने का अब जोखिम बढ़ गया है। इसका कारण यह है कि पूरे वर्ष के लक्ष्य का 112 प्रतिशत खर्च नवंबर के अंत तक ही हो चुका है और राज्य सरकारों ने भी अपने साधनों से आगे बढ़कर खर्च करने की मंशा जताई है। इसके अतिरिक्त सरकारी और सरकार-समर्थित ऋणों के कई स्रोत भी बाजार में उपलब्ध हैं लेकिन म्युचुअल फंडों के जरिये इसकी भरपाई आंशिकता की सीमा से आगे निकलने की संभावना नहीं है। कुल मिलाकर गुलाबों के आकर्षी रंगों के साथ अदृश्य कांटों की मात्रा बेहद प्रभावशाली है, देखना यह है कि सरकार क्या करती है, क्या बताती है और क्या छुपाती है।

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