शिक्षा की बुनियाद तोड़ रहा है शिक्षा विभाग
Dr SB Misra | Sep 14, 2019, 12:35 IST
पराधीन भारत में मैकाले को पता था कि उसें क्लर्क पैदा करने हैं यानी सही अंग्रेजी और हिन्दी लिखने वाले बाबू बनाने हैं। आज शिक्षा विभाग को पता नहीं कि क्लर्क भी तैयार हो पाएंगे अथवा नहीं। अच्छी लिखावट और शुद्ध लेख तो अध्यापकों का ही नहीं है तो बच्चों का कैसे होगा।
प्राइमरी शिक्षा हमारी शिक्षा की बुनियाद है फिर भी शिक्षानीति के नाम से इसमें कुछ भी स्थायी नहीं है। यदि बुनियाद ही स्थायी नहीं तो इमारत का क्या हश्र होगा भगवान जाने।
शिक्षा सत्र 31 मई को समाप्त होता था और ग्रीष्म अवकाश हो जाता था। अवकाश में कॉपी-किताबों आदि की व्यवस्था हो जाती थी और जुलाई से नए सत्र में नई किताबें लेकर बच्चे पढ़ने आते थे। अब 31 मार्च को सत्र समाप्ति के बाद दूसरे ही दिन पहली अप्रैल को नया सत्र आरम्भ हो जाता है, बिना कॉपी-किताबों और तैयारी के।
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स्कूलों का समय कभी 7 से 11 तो कभी 8 से 12 यानी 4 घन्टे की पढ़ाई, भले ही जाड़े के दिनों में 9 से 3 तक 6 घन्टे मिल जाते हैं। परीक्षाफल बनाने और परिणाम निकालने में सत्र की अवधि छोटी हो जाती है। पहले की ही भांति जून में ग्रीष्मावकाश और एक जुलाई को स्कूल खुलते हैं। पता नहीं सत्र को तितर-बितर करने, सत्र छोटा करने, पढ़ाई के घन्टे घटाने से क्या हासिल हुआ।
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गाँव के स्कूलों में किताबें मिलने और प्रवेश होने में काफी समय बीत जाता है, विशेषकर सरकारी किताबों के इन्तजार में। यदि किताबों के नाम और प्रकाशक बता दिए होते तो अभिभावक खरीद भी सकते थे। शिक्षा विभाग ना तो किताबें बांटता है और न बच्चों को खरीदने का अवसर देता है।
गाँव के स्कूलों में लाखों शिक्षक हर साल रिटायर होते हैं और बड़ी संख्या में पहले से ही पद खाली हैं, उन्हें भरने के लिए चयन आयोग का इन्तजार है लेकिन कब गठित होगा आयोग, कुछ पता नहीं। चयन आयोग की प्रतीक्षा में शिक्षक भर्ती का जो तरीका चल रहा था वह भी रोक दिया गया है। खानापूर्ति के लिए शिक्षामित्रों का चयन किया गया था, वह भी वर्षों से लंबित है। उनकी नियुक्ति बिना शैक्षिक आर्हता पूरी किए, बिना विज्ञापन या कम्पटीशन हुई थी और बाद में उन्हें नियमित अध्यापक बनाने का प्रयास हुआ। अपनी मांगों के लिए अध्यापकों और शिक्षामित्रों में हड़ताल करने की होड़ है।
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ग्रामीण स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता की हालत दयनीय है। पराधीन भारत में मैकाले को पता था कि उसें क्लर्क पैदा करने हैं यानी सही अंग्रेजी और हिन्दी लिखने वाले बाबू बनाने हैं। आज शिक्षा विभाग को पता नहीं कि क्लर्क भी तैयार हो पाएंगे अथवा नहीं। अच्छी लिखावट और शुद्ध लेख तो अध्यापकों का ही नहीं है तो बच्चों का कैसे होगा।
साल के 365 दिनों में से कितने दिन पढ़ाई होगी इसका हिसाब नहीं लगाते। महापुरुषों के जन्मदिन और मरण दिनों पर अवकाश होता है लेकिन कौन महापुरुष है यह पक्का नहीं। कभी कांशीराम के जन्म और मृत्यु दोनों दिन अवकाश होगा तो कभी एक भी नहीं। अचानक परशुराम और हजरत अली के जन्मदिनों पर अवकाश होने लगते हैं और नागपंचमी की छुट्टी बन्द हो जाती है और फिर शुरू होती है। पहले सब मिलाकर 30 छुट्टियां होती थी तो अब 54 कर दी गईं। पढ़ाई के लिए साल के आधे दिन भी नहीं मिलते।
कभी तो आदेश निकलता है कक्षा 5 और 8 की बोर्ड परीक्षा होगी तो कभी परीक्षा ही नहीं होगी। पहले कहा किसी को फेल नहीं किया जाएगा अब कहा फेल कर सकते हैं। पहले कहा अध्यापिकाएं बच्चों को घरों से लाएंगी, उन्हें नहलाएंगी और छुट्टी के बाद घर पहुंचाएंगी। मिड-डे मील कभी स्कूल में बनेगा तो कभी एजेंसी उपलब्ध कराएगी, कभी दूध या खीर या मेवा देने की बात होती है तो कहीं-कहीं नमक रोटी बटता है। सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर विश्व बैंक या अन्यत्र से मिले पैसे को खर्च कैसे करें, यह चिन्ता रहती है।
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एक ही उपाय है प्राइमरी शिक्षा का पंचायत स्तर तक विकेन्द्रीकरण और प्रधानों को प्राथमिक शिक्षा की वैधानिक जिम्मेदारी। इसके लिए प्रधानों को शिक्षित होना अनिवार्य करना पड़ेगा। दूसरा उपाय है सरकार स्वीकार करे वह उच्च कोटि की प्राथमिक शिक्षा सब को नहीं दे सकती। सरकार अपने सिर पर शिक्षा की जिम्मेदारी न लेकर प्राइवेट हाथों में इसे सौंप दे, आज भी अभिभावक अपने बच्चे प्राइवेट स्कूलों में ही भेजना चाहते हैं।