गांधीवादी अस्त्रों से पैने हैं न्यायिक और प्रजातांत्रिक अस्त्र

Dr SB MisraDr SB Misra   16 Oct 2018 7:33 AM GMT

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गांधीवादी अस्त्रों से पैने हैं न्यायिक और प्रजातांत्रिक अस्त्र

कुछ समय पहले निश्छल व्यक्तित्व और समर्पित भावों के धनी स्वामी सानन्द ने गंगा की धारा को अविरल और निर्मल बनाने की मांग को लेकर 111 दिन का अनशन किया और अपनी प्राणाहुति दे दी। गांधीवादी अस्त्र का प्रयोग करते हुए प्राणाहुति देने वालों में श्रीरामुलू का नाम प्रमुख है जिन्होंने 1952 में नेहरू सरकार को घुटनों पर ला दिया था मद्रास प्रेसिडेंसी से तेलगू भाषी आंध्र प्रदेश को अलग करने के लिए। श्रीरामुलू के मरने के बाद इतना आक्रोश था तेलगू भाषी लोगों में कि नेहरू जी को आंध्र प्रदेश के निर्माण की घोषणा करनी पड़ी थी। स्वामी सानन्द के मरने के बाद का सन्नाटा बताता है कि अब गांधीवादी अस्त्र कालातीत हो चुके हैं।

स्वामी सानन्द ने गंगा की धारा को अविरल और निर्मल बनाने की मांग को लेकर 111 दिन का अनशन किया और अपनी प्राणाहुति दे दी।

स्वामी सानन्द की गंगा सम्बन्धी मांगें मोदी सरकार से नहीं हो सकतीं क्योंकि इस सरकार के पास इतने बडे काम करने का समय नहीं बचा। यदि यह भगीरथ मांग अलौकिक शक्तियों से थी तो सरकार को अधिकार नहीं था सानन्द जी को उठाकर अस्पताल ले जाती और उनके देहावसान के बाद अन्तिम दर्शन तक से लोगों को वंचित करती। यदि गंगा के लिए चार साल में यथोचित काम नहीं हुआ तो विपक्षी दलों को इसे मुद्दा बनाना चाहिए था। उन्होंने गंगा की अविरलता को बाधित होने को मुद्दा नहीं बनाया क्योंकि टिहरी बांध और हरिद्वार जैसे बड़े विद्युत संयंत्रों का निर्माण उन्हीं की सरकारों ने किया था।

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देश की नदियों पर नेहरू और बाद की सरकारों ने भाखड़ा-नंगल, नागार्जुन, बाणसागर और टिहरी जैसे बड़े बांध बनाए हैं जिनसे प्रवाह बाधित हुआ है और जिनका लगातार पर्यावरणविदों द्वारा विरोध हुआ है। प्रवाह को कम से कम बाधित किया जाय इसका प्रयास होना ही चाहिए जिसके लिए बड़े बांध न बनाने का संकल्प सरकार को लेना होगा। अनेक विदेशी सरकारों ने अपनी आबादी के लिए नदियों पर छोटे बांध बनाकर पीने का पानी, सिंचाई और पनबिजली की व्यवस्था की है, हमारी सरकारों को भी करना चाहिए था लेकिन उनकी सोच बड़े बांधों के पक्ष में थी। फिर भी हमें गांधीवादी अस्त्रों का प्रयोग गांधी जी के बताए मार्ग पर चलकर ही करना चाहिए जिसमें मार्ग का उतना ही महत्व है जितना मंजिल का।

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जब गांधी जी ने सत्य और अहिसा पर आधारित सत्याग्रह का अचूक अस्त्र खोजा तो लड़ाई थी ऐसी सत्ता से जिसके राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था और भारत उसका गुलाम था। गांधी जी ने इस अस्त्र का प्रयोग आत्मशुद्धि के लिए किया न कि किसी मांग को मनवाने के लिए। बाद के दिनों में इसका बेजा प्रयोग होता रहा है। हालत यह है कि मजदूर नेताओं द्वारा वेतन बढ़ाने के लिए, कभी पुल बनवाने के लिए तो कभी सड़क बनवाने के लिए अनिश्चित कालीन या आमरण अनशन किया जाता है। इनका उद्देश्य सरकार को ब्लैकमेल करना होता है अपनी आत्मशुद्धि नहीं।

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गंगा की निर्मलता को दूर करने के लिए बड़े शहरों का कचरा चाहें औद्योगिक हो या सीवर अथवा अन्य को अनशन द्वारा नहीं दूर किया जा सकता। पूंजीपतियों ने लाइसेंस लेकर ये सभी काम किए हैं जिन्हें सरकारी और अदालती संरक्षण मिलेगा। शहरों की जनता ही कचरे को गंगा में जाने से रोक सकती है। निस्वार्थ काम करने वाले सन्त महात्मा भी कल कारखानों तथा बूचड़खानों पर धरना नहीं देते। सरकारें वोट की खातिर कड़े कदम नहीं उठा सकती।

जब गांधी जी ने अनशन और सत्याग्रह का प्रयोग किया तो कोई विकल्प भी नहीं थे। न तो प्रजातंत्र था, न स्वतंत्र न्यायपालिका और न सशक्त मीडिया। आज ये सब हैं इसलिए गांधीवादी अस्त्र कालातीत हो चुके हैं। गांधीवादी अस्त्रों को प्रभावी बनाने के लिए भी जनशक्ति चाहिए जैसे अन्ना हजारे के साथ थी। अब उनका अनशन भी प्रभावी नहीं होगा। आज न्यायपालिका अथवा जन आन्दोलन का सहारा लेना अधिक प्रभावी होगा। आजकल धरना, घेराव, आन्दोलन और रैलियों के माध्यम से अपनी बात कहने की परम्परा है। स्वामी सानन्द को भी पता होगा कि आज आत्मशुद्धि, आत्मदाह, आत्माहुति, आमरण अनशन आदि की भाषा समझने वाले लोग नहीं बचे हैं। बहुमूल्य जीवन बचाकर अन्तिम सांस तक संघर्ष जारी रखना और संघर्ष बीज छोड़ जाना ही श्रेयस्कर है। हम निश्छल और निस्वार्थ आत्माओं को नमन भर कर सकते हैं।

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