'सब तो लीडर हैं यहां फॉलोवर कोई नहीं'

सत्तर के दशक में इंदिरा हटाओ के नाम पर और आपातकाल से त्रस्त होकर लोक नायक जयप्रकाश नारायण के निस्वार्थ नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर पर जनता पार्टी के रूप में कांगेस का पहली बार विकल्प मिला था

Dr SB MisraDr SB Misra   10 May 2019 5:58 AM GMT

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सब तो लीडर हैं यहां फॉलोवर कोई नहीं

महागठबंधन बनाने का खूब प्रयास चला लेकिन थेाड़ी सी प्रांतीय गुटबन्दी के आगे नहीं बढ़ पाया। विपक्ष के लिए 2014 से भी बदतर हालत बन चुकी है। उत्तर प्रदेश मायावती को प्रधानमंत्री का दावेदार स्वीकार करके अखिलेश यादव ने राहुल गांधी को नेता मानने से इनकार कर दिया है। कांग्रेस की समझ में नहीं आता कि जो विपक्षी बड़े प्रान्तों का शासन चला चुके हैं वे अनुभवविहीन का नेतृत्व भला कैसे स्वीकार करेंगे ।

मोदी हटाओ मुहिम को बल देने के लिए कांग्रेस पार्टी को फालोवर बनना होगा जैसे उसने तमिलनाडु में रामचन्द्रन के साथ पहले और कर्नाटक में कुमारस्वामी के साथ अब किया है। क्या उनका अहंकार ऐसा करने देगा? बिहार में कांग्रेस पाटी फालोवर की भूमिका के लिए तैयार दिखती है बशर्ते उसके नेता को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिल जाए। लेकिन यूपी और बिहार में कांग्रेस का सपना साकार होता नहीं दिखता । मध्यप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात में पारम्परिक रूप से सीधा मुकाबला होता रहा है इसलिए वहां गठबंधन होना या न होना प्रांसंगिक नहीं है।

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प्रतीकात्मक तस्वीर साभार: इंटरनेट

कांग्रेस का व्यवहार कभी भी भरोसे का नहीं रहा है चाहे सत्तर के दशक में चौधरी चरन सिंह के साथ या अस्सी के दशक में चन्द्रशेखर के साथ। पुराने लोगों को इतिहास पता है इसलिए हिचक तो रहेगी। मायावती और मुलायम सिंह का गठबंधन अनुभव सुखद नहीं रहा था और एनडीए में जो लोग हैं उनके अपने स्वार्थ या मजबूरियां हैं। कई बार क्षेत्रीय दल बने ही इसलिए थे कि उन्हें लगता था कि केन्द्र से उन्हें न्याय नहीं मिल रहा था।

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सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि शरद पवार, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, चन्द्रबाबू नायडू, कुमार स्वामी और फारूख अब्दुल्ला जैसे स्वनामधन्य नेता क्या राहुल गांधी अथवा मायावती का नेतृत्व स्वीकार करेंगे। यदि अहंकार त्यागकर ये लोग ऐसा कर सकें अथवा राहुल गांधी पीएम की कुर्सी का मोह छोड़कर मायावती को अपना नेता मान लें तो एक सीमा तक बात बन सकती है। लेकिन नेताओं का अहंकार जो 70 साल में नहीं मिटा अब क्या मिटेगा।

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महागठबंधन के प्रयास पहले भी हुए हैं। पहली बार 1967 में संयुक्त विधायक दल के रूप में प्रान्तीय स्तर पर और 1972 में इन्दिरा गांधी के खिलाफ ''ग्रैड अलाएंस'' के नाम से असफल प्रयोग हुआ था। सत्तर के दशक में इंदिरा हटाओ के नाम पर और आपातकाल से त्रस्त होकर लोक नायक जयप्रकाश नारायण के निस्वार्थ नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर पर जनता पार्टी के रूप में कांगेस का पहली बार विकल्प मिला था। यह ऐसा प्रयोग था जिससे देश में दो दलीय स्वस्थ प्रजातंत्र की स्थापना हो सकती थीं लेकिन नेताओं के स्वास्थ्य और अहंकार के कारण यह प्रयोग भी फेल हो गया।

लोक नायक जयप्रकाश नारायण साभार: इंटरनेट

तब के विपक्ष को विश्वास था कि जनता इंदिरा गांधी के रुपया अवमूल्यन, महंगाई, आपातकाल और तमाम ज्यादतियों को माफ नहीं करेगी। लेकिन जनता ने 1980 में सबकुछ भुलाकर स्वार्थी, घमंडी नेताओं को उनकी औकात बता दी। आज की जनता मोदी के हजार गुनाहों को भुलाकर देशहित में उन्हें सर्वाधिकार सौंपने को तत्पर दिखती है।

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मोदी के होते हुए से अपेक्षा करना कि वह अंधी बाजी खेले और बिना नेता वाले गठबंधन को वोट करे तो तो नादानी होगी। यदि जनता सही निर्णय लेने में चूक गई तो कहना कठिन है क्या होगा। मैं नहीं जानता कि यह जनता का प्यार है या विपक्षियों का तिरस्कार जो सारा देश मोदी-मोदी चीख रहा है। यह चीख पुकार सार्थक भी हो सकती है यदि मोदी देश में राष्ट्रपति प्रणाली लाकर अखिल भारतीय चुनाव कराएं अमेरिका और फ्रांस की तरह। इससे राजनैतिक अस्थिरता और खींचतान समाप्त हो सकती है और स्वस्थ प्रजातंत्र आ सकता है। लेकिन इसके लिए संविधान में बड़े परिवर्तन करने होंगे। मोदी को विशाल बहुमत चाहिए होगा। दूसरा विकल्प है सभी विपक्षी दल अपने झंडे डंडे फेंक कर किसी अनुभवी और प्रमाणिक नेता के पीछे खड़े हो जाएं। देश का भला होगा।

    

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