संशय के बीच संभावनाओं का नव वर्ष : एक पशुचिकित्सक की नज़र से

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संशय के बीच संभावनाओं का नव वर्ष : एक पशुचिकित्सक की नज़र सेपशु चिकित्सकों पर विशेष

“पशुचिकित्सक” जब भी ये शब्द आपको सुनाई देता है तो आप क्या सोचते हैं ? आपको ये जरूर लगता है की ये जानवरों के डॉक्टर है, लेकिन आपके मन में किस तरह के डॉक्टरों की तस्वीर उभरती होगी ? ये आपके पशुओं और पशु उत्पादों के प्रति संवेदना से प्रेरित होगा।

मेरे पिछले 15 वर्षों के भारत के लगभग सभी राज्यों और 11 देशों के भ्रमण के दौरान तथा लगभग 35 देशों के पशु चिकित्सकों से चर्चा करने पर ये पाया कि पशुचिकित्सक की परिकल्पना अलग-अलग होती है, अलग-अलग समाज में। जहाँ एक तरफ खासतौर पे विदेशों में पशुचिकित्सा को सबसे उत्तम व्यवसाय में से एक माना जाता है वही कुछ जगह ऐसे भी है जहाँ सिर्फ नौकरी का जरिया है। मेरे मन मे हमेशा ये सवाल उठता हैं कि ऐसा अलग-अलग सोच क्यों है इस पशुचिकित्सा के क्षेत्र में? मेरी समझ में निम्नलिखित 5 मुख्य बिंदु है इस असमानता को समझने के लिए -

  • पशु एवम पशुउत्पादो के प्रति सामाजिक जागरूकता
  • कैरियर चुनने में युवा मस्तिष्क पे सामाजिक दबाव
  • पशुचिकित्सक बनने के दौरान भविष्य की रूपरेखा
  • तुलनात्मक विवेचना और उसका प्रभाव
  • संकीर्ण और खुले विचारों में द्वंद

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1- पशु एवम पशु उत्पादों के प्रति सामाजिक जागरूकता

जिस समाज में पशुओं एवम पशु उत्पादों के प्रति ज्यादा जागरूकता है, वहाँ पशुचिकित्सा की बहुत अच्छी छवि होती है। जहाँ पालतू पशुओं के प्रति प्रेम एवं पशु उत्पादों जैसे की दूध, अंडा एवं मांस के उत्पादों की उत्तम गुडवत्ता का ध्यान रखा जाता है वहां हमेशा ही पशु चिकित्सक का बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान होता है। जागरूक समाज हमेशा ही सर्वोत्तम सुविधाओं को चाहता है और पशुओं को बीमारी से बचाव के बारे में ज्यादा ध्यान देता है और सदैव झोलाछाप-अनिधिकृत-स्वांघोसित इलाज करने वालो से दूर रहता है। जागरूक किसान एवं समाज हमेशा ही पशुचिकित्सक को ढूंढता है, चाहे सरकारी हॉस्पिटल या प्राइवेट क्लिनिक में।

सारे विकसित देश एवं भारत के पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिल नाडु, केरल जैसे राज्य इस बात का उदाहरण है।

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2- कैरियर चुनने में युवा मस्तिष्क पे सामाजिक दबाव

ज्यादातर ये देखा गया है की मेडिकल में रूचि रखने वाले छात्र 12वीं की पढ़ाई के बाद प्रतिस्पर्धा में लग जाते है बहुत काम ही छात्र वेटरनरी (पशुचिकित्सा) की पढ़ाई के लिए तयारी करते है। इसवजह से ज्यादातर पशुचिकित्सा में ऐसे छात्र आते है जो प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाते है। ऐसा सिर्फ भारत में ही है और वो भी ज्यादातर उत्तर एवं पूर्वी भारत के राज्यों में ज्यादा देखा गया है. इन क्षेत्रों में पशु चिकित्सा को सिर्फ नौकरी के एक अभिप्राय के रूप में देखा जाता है। और फलस्वरूप जब छात्र को पशुचिकित्सा की पढ़ाई करनी होती है वो सरकारी नौकरी को पाने की तरीकों में व्यस्त हो जाता है। कुछ राज्यों में तो समाज ही बहुत कुंठित प्रतिक्रिया देता है पशुचिकित्सा में दाखिला लेते छात्रों को, जिससे की उनका मनोबल कमजोर होता है। इसके विपरीत यूरोप एवं अमेरिका में तो पशुचिकित्सक की पढ़ाई के लिए आपको पशुओं के प्रति लगाव साबित करना एक अहम् प्रक्रिया होती है।

जिन क्षेत्रों, राज्यों एवं देशों में पशुचिकित्सा में दाखिला लेने वाले छात्रों में मानसपटल पे सामाजिक दबाव नहीं होता और इस विषय को मन से अपनाते है तो वो निपुण होते है और आत्मविश्वाश से समाज में अपनी प्रतिष्ठित जगह बनाते है।

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3- पशुचिकित्सक बनने के दौरान भविष्य की रूपरेखा

इस स्नातक विषय में आरम्भ और अंत में ज्यादातर छात्र असमंजस में ही रहते है क्यूंकि भविष्य के लिए मार्गनिर्देशन तो उन्हें कॉलेज के वरिष्ठ छात्र, अध्यापक, कॉलेज और घर के आसपास के समाज की जागरूकता, पशुपालन के क्षेत्र में सफल उद्द्यमी एवं व्यावसायिक परिस्तिथियों से ही प्राप्त होता है। जहा पे ये परिस्थिया अनुकूल होती है वहाँ का छात्र किसी न किसी क्षेत्र में निपुण होता है जैसे की क्लिनिक, पशु पोषण, व्यावसायिक पशुपालन (डेरी, पोल्ट्री), मूल्यसंवर्धित पशुउत्पादन इत्यादि।

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उदाहरण के लिए दक्षिण एवं पश्चिम भारत के राज्यों के वेटरनरी कॉलेज में ज्यादा पोल्ट्री में निपुण पशुचिकित्सक आते है वही उत्तर एवं पश्चिम भारत के राज्यों से ज्यादा क्लिनिक एवं डेरी के निपुण पशुचिकित्सक आते है। कुछ राज्यों में जहा अनुकूल परिस्थिया नहीं होती वहाँ भी निपुण पशुचिकित्सक आते है लेकिन वो ज्यादातर दिशाहीन होके अपनी कैशल का सम्पूर्ण उपयोग नहीं कर पाते। अनुकूल परिस्थिया जहा कॉलेज के बाद और सीखने-समझने के अवसर देती है वही इन परिस्थियों का न होना पशुचिकित्सकों के मन में निराशा भर देता है। सचेत मानसिक स्तिथी, सफल उद्यमियों और मार्किट से सानिध्य पशुचिकित्सकों को सतत सीखने की संभावनए देते है।

4- तुलनात्मक विवेचना और उसका प्रभाव

भारत में हर वो युवा जो पशुचिकित्सा में पढ़ाई करता है हमेशा तुलना करता रहता है पशु चिकित्सा एवं मानव चिकित्सा में। यह तुलना कदापि ठीक नहीं है क्यूंकि दोनों ही क्षेत्रों के अपने अलग अलग आयाम है। पशुचिकित्सक के ऊपर ज्यादा जिम्मेदारी होती है मानव, पर्यावरण और पशु के स्वस्थ्य को ठीक रखने में। इसी वजह से सभी विकसित देशों में पशुचिकित्सकों का महत्वपूर्ण दर्जा दिया जाता है खाद्य-सुरक्षा और पोषण-सुरक्षा में।

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पशुचिकित्सा में सिर्फ एक पशु की चिकित्सा ही नहीं बल्कि स्वस्थ्य पशु, सुरक्षित पशुउत्पादों द्वारा मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण का अनुचित दोहन एवं संरक्षण निहित है। इसलिए सिर्फ एक पक्ष से तुलना करने पे ज्यादातर पशुचिकित्सक अपनी महत्ता एवं समाज में होने वाले प्रभाव को काम आंकते है। उदाहरण के लिए पशुचिकित्सक अपना योगदान भारत में लगभग 48% पांच वर्ष से कम के कुपोषित बच्चों, एनीमिया से ग्रसित 55% महिलाये एवं 24% पुरुषों के सुधार में देते है/ दे सकते है क्यूंकि ये लोग ज्यादातर ग्रामीण अंचलों में रहते है और कोई न कोई पशु चाहे घरेलु मुर्गी, बकरी, सुकर, गाय या भैस होती है।

पशुचिकित्सक का सिर्फ एक पशु के स्वास्थ्य पे ही नहीं बल्कि समाज में आम जनता के स्वास्थ्य एवं आर्थिक उत्थान के ऊपर भी बहुत प्रभाव पड़ता है।

5- संकीर्ण और खुले विचारों में द्वंद

पशुचिकित्सा के पांच साल के पाठ्यक्रम को आप देखेंगे तो आप पाएंगे की यह एक बहुत ज्यादा संभावनाओं से परिपूर्ण विषय है लेकिन कही न कही हमारे संकीर्ण विचारों की वजह से हम सिर्फ कुछ ही आयाम छू पाए है। भारत के विभिन्न राज्यों में आपको ये असमानता आसानी से दिख जाएगी कही प्राइवेट मल्टीस्पेसिलिटी क्लिनिक और पशुओं की सर्जरी के संसाधनों से उक्त उच्चस्तरीय सरकारी हॉस्पिटल और कहीं सिर्फ बिना बिजली के निराशाजनक सरकारी हॉस्पिटल जहा संसाधन तो छोड़िये सिवाय पशुचिकित्सक के कोई नहीं होता। और तो और अनभिज्ञ समाज का इन विपरीत परिस्थियों में पशुचिकित्सकों की तुलना झोलाछाप- स्वघोषित क्वैक से करना और पशुचिकित्सकों की संख्या का जरुरत से कम होना खास तौर पे ग्रामीण-अंचल में, स्थिति को और गंभीर बना देती है।

इन परिस्थियों में विचारों का संकीर्ण होना स्वाभाविक है और एक तकरार की परिस्तिथि उत्पन्न हो जाती है। इन परिस्थियों के बारे में कुछ पशुचिकित्सकों से वार्तालाप करने से समझ में आया की लगभग ऐसे परिस्थिया छोटे-बड़े कई देशों में है जैसे की मंगोलिआ, ऑस्ट्रेलिया और पापुआ-न्यू-गिने। वहाँ पे सबसे पहले खुले विचारों से पशुधन, पशु-उत्पाद और उससे जुड़े सभी आयामों को समझ के छोटे बड़े सभी कार्यों की रुपरेखा को बनाया गया।

पशुचिकित्सकों की संख्या कही भी जरुरत के मुताबिक पूरी नहीं होती और पशुचिकित्सक के समय और ज्ञान को ध्यान में रख के देखने पे ये पाया गया की कई काम पशुचिकित्सक तो करने चाहिए और कुछ प्राइवेट को दे देना चाहिए लेकिन एक महत्वपूर्ण बात ये निकल के आई की प्राइवेट को दिए गए काम में प्रशिक्षित होना बहुत जरुरी है और एक ऐसा सिस्टम होना चाहिए जिसमे सभी के कार्यों की देखरेख हो सके और वो भी बिना किसी पूर्वाग्रह के।

ऑस्ट्रेलिया में पशुचिकित्सक और प्राइवेट सहायकों की कार्यकुशलता बहुत बढ़िया है जहा सहायक सिर्फ फील्ड में ही नहीं, लेबोरेटरी में और मूल्य संवर्धित पशु-उत्पादों के क्षेत्र ने बहुत बढ़िया काम कर रहे है। सरकार और इस क्षेत्र की कम्पनियाँ इस तारतम्य में पूरा सहयोग कर रही है। एक और बात जो निकल के आई की ज्यादातर पशुचिकित्सक इस बात पे ध्यान देते है की उनके क्षेत्र में कोई बीमारी ना आये और उसके लिए वो हमेशा बचाव के उपाय एवं संसाधनों में लगे रहते है।

सम्भावनाएं

तेजी से बदलते भारत में जहाँ पशुउत्पादों के मांग बढ़ रही है और साथ ही साथ ज़ूनोटिक बीमारी (पशुओं से मानव में होने वाली बीमारी) भी तेजी से पाँव पसर रही रही है। पशुपालक एवं व्यावसायिक उत्पादक इस मांग को पूरा करने के लिए पर्यावरण और पशुकल्याण से समझौता कर रहे है। पशुपालन एक जीविकोपार्जन एवं पोषण सुरक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण साधन के रूप में उभरा है। सामाजिक बदलाव में पालतू पशुओं को भी परिवार में एक खास दर्जा मिल रहा है खास तौर पे बच्चे एवं बुजुर्ग और इस वजह से समाज में इन पशुओं के अच्छे इलाज की अत्यंत आवश्यकता है। इस परिस्थियों पे पशुचिकित्सकों के लिए अपार सम्भावनाये एवं नैतिक जिम्मेदारी भी बन जाती है की आने वाले समय में वो समाज को कैसे सुरक्षित, पर्याप्त और स्थायी तौर पे पशु उत्पाद दे पाते है और वो भी पशु कल्याण को ध्यान में रखते हुए।

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पिछले दशक में महत्वूर्ण बदलाव हुए है न सिर्फ भारत के कुछ राज्यों में बल्कि कई विकासशील देशों में। पशुचिकित्सक अब और ज्यादा से ज्यादा अपने कौशल को बढ़ा रहे है प्रमुखतः पालतू पशुओं, पोल्ट्री और डेरी के क्षेत्र में। इस तरह के पशुचिकित्सक न सिर्फ बड़े शहरों में अपनी मल्टीस्पेशलिटी क्लिनिक खोल रहे है वही पशुपालक के साथ मिल के उनके व्यवसाय को बढ़ा रहे है। पहले ऐसा मानना था की पशुचिकित्सक सिर्फ शहरों में काम करते है लेकिन मेरे अनुभवों के अनुसार संवेदनशील समाज में पशुचिकित्सक गाँव एवं जंगलों में भी जाके अपना कार्य बखूबी से कर रहे है।

सरकारी और प्राइवेट पशुचिकित्सक के परिधि से परे, मैंने ये अनुभव किया है की एक दूरंदेषी पशुचिकित्सक के पास संभावाओं की कमी नहीं है क्यूंकि कई सरकारी पशुचिकित्सकों को मैंने पिछड़े इलाकों में सरकारी कार्यक्षेत्र के आगे जाके सेवा करते देखा है और वही प्राइवेट पशुचिकित्सक नए प्रयोग कर रहे है। ऐसा नहीं है की सरकारी क्षेत्र में संसाधन की हमेशा कमी होती है और प्राइवेट हमेशा संसाधनों से परिपूर्ण। चाहिए तो सिर्फ नया सीखने और कुछ कर दिखने का जज्बा। विषय-विशेष में पशुचिकित्सकों का एक ग्रुप बना के उसमे चर्चा करना और सतत सीखने की सम्भावना को और बढ़ता है। इस क्षेत्र में सोशल मीडिया की की तकनिकी काफी मदद कर रही है। व्हाट्सप्प, फेसबुक और टेलीग्राम पे कई ग्रुप सक्रीय है कुछ नया सीखने और ज्यादा से ज्यादा कार्य करने के लिए। वैसे एक सच्चाई ये भी है की कई ग्रुप बनते तो है तकनिकी ज्ञान के आदानप्रदान के लिए लेकिन कुछ ही दिनों में राजनितिक या समसामयिक मुद्दों में उलझ के रह जाते है। लेकिन इस भटकाव के बावजूद भी मेरी नजर में ये बदलाव महत्वपूर्ण है और नए साल के लिए हम पशुचिकित्सकों को कुछ सवाल पूछने चाहिए।

  • हम कैसे अपने क्षेत्र में पशुओं की बीमारी को पिछले साल की अपेक्षा कम/रोक सकते है?
  • हम कैसे अपने आसपास पे किसान एवं पशु-पशुउत्पादों के उद्यमी की आमदनी को पिछले साल की अपेक्षा बड़ा सकते है?
  • इस नए साल में मुझे क्या नया सीखना है अपने आसपास के पशुपालकों की सेवा के लिए?
  • हम कैसे समाज में पशुपालन एवं पशुचिकित्सकों के प्रति संवेदनशीलता और जागरूकता बड़ा सकते है?

मैं खुश हूँ की मुझे पिछले साल सफल पशुचिकित्सकों (सरकारी एवं प्राइवेट) से मिलने का मौका मिला है और उनसे ये सीखने का की चाहे कोई साथ दे या न दे, चाहे कितनी भी परेशानी हो अगर एक पशुचित्किसक ठान ले तो वो समाज में अभूतपूर्व बदलाव ला सकता है और हाँ एक बात और, कमियों का रोना रोके कुछ नहीं होता क्यूंकि मैंने सबसे दुर्गम इलाकों से मजबूत इरादों वाले पशुचिकित्सकों से मुलाकात की है और ये समझा है की समस्या हर जगह होती है, बस नजरिया महत्वपूर्ण है और ये सिर्फ आपके ऊपर निर्भर करता है की आप समाधान ढूंढने के लये ईमानदार प्रयास करते है या सिर्फ हाथ पे हर धरे परेशानी की चर्चा करते है।

एक अच्छे बदलाव की उम्मीद में नए वर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाएं। (यह लेखक के अपने स्वतंत विचार हैं)

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