किसानों की आत्महत्याओं से उठते कई सवाल

Arvind Kumar Singh | Aug 24, 2017, 18:53 IST
Indian Farmers
हाल में औरंगाबाद के कमिश्नर ने सरकार को एक रिपोर्ट दी जिसमें इस बात का खुलासा हुआ कि इस अंचल में रोज चार किसान सूखे की वजह से आत्महत्या कर रहे हैं। इस साल जनवरी से 15 अगस्त के दौरान मराठवाड़ा में 580 किसानों ने आत्महत्या कर ली। फिर से सूखे की आशंका इसकी वजह मानी गई। यहां के कई जिलों में किसानों की पहली बुआई ही नहीं दूसरी बुआई भी तबाह हो गई।

देश के कई हिस्से जहां बाढ़ से डूब उतरा रहे हैं वहीं मराठवाड़ा प्रकृति की दूसरी मार झेल रहा है। एक सूखा किसान को तबाह करने को काफी होता है औऱ यहां तो सूखे पर सूखा। किसान आर्थिक तौर पर बेहद कमजोर हो चुके हैं और कर्ज के ब्याज पर ब्याज चढ़ता जा रहा है।

मराठावाड़ा में 34.82 लाख से अधिक किसान हैं जिसमें दो एकड़ या उससे भी कम भूमि वाले छोटे किसानों की संख्या 14 लाख से अधिक है। इनकी स्थिति सबसे खराब है। महाराष्ट्र सरकार ने इस बीच में कुछ कदम उठाए हैं पर विपक्ष उससे संतुष्ट नही है। उसका कहना है कि मराठवाड़ा में किसान दो से तीन बार खेतों में बुआई कर चुके हैं और बीज खरीदने के लिए निजी लोगों से कर्ज लिया है। सरकार की तरफ से अब तक कोई राहत नहीं मिल रही।

63.93 लाख हेक्टेयर के दायरे में फैले मराठवाड़ा को गोदावरी, पूर्णा, मंजीरा और सिना जैसी नदियां जीवन देती हैं। इसके आठों जिलों में 76 तहसीलें और 8522 गांव हैं लेकिन सारा इलाका कृषि संकट से जूझ रहा है। यहां 2011 के बाद केवल 2013 में ही ठीक-ठाक बारिश हुई थी और बाकी सालों सूखा बना रहा।


मराठवाड़ा हो या विदर्भ ये मामूली इलाका नहीं है। मराठवाड़ा भारत की शान है और यहीं अजंता और एलोरा जैसी विश्व धरोहरें हैं। मुहम्मद तुगलक ने दिल्ली की जगह कुछ समय तक दौलताबाद को अपनी राजधानी बनाया था और मुगल सम्राट औरंगजेब के जीवन का आखिरी दौर यहीं बीता। मराठवाड़ा 1724 से 1948 तक निजाम की हुकूमत का हिस्सा रहा। कभी इसे सोने की चिड़िया कहा जाता था लेकिन आज यह जल संकट और कृषि संकट का प्रतीक बन गया है। मराठवाड़ा में संभागीय मुख्यालय औरंगाबाद है, जबकि इसके तहत जालना, परभणी, हिंगोली, नांदेड़, बीड, लातूर और उस्मानाबाद जिले आते हैं।

63.93 लाख हेक्टेयर के दायरे में फैले मराठवाड़ा को गोदावरी, पूर्णा, मंजीरा और सिना जैसी नदियां जीवन देती हैं। इसके आठों जिलों में 76 तहसीलें और 8522 गांव हैं लेकिन सारा इलाका कृषि संकट से जूझ रहा है। यहां 2011 के बाद केवल 2013 में ही ठीक-ठाक बारिश हुई थी और बाकी सालों सूखा बना रहा। 2015 की मराठवाड़ा की आपदा ने वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं सबको चकरा दिया था और जो जलस्त्रोत कभी सूखते नहीं थे वो भी सूख गए। लातूर के जल संकट ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था। प्रधानमंत्री के निर्देश के बाद यहां रेलगाड़ी से पानी पहुंचाने का क्रम चला और शहर बच पाया।

गांवों की स्थिति एक के बाद एक सूखे से हालत खराब होती जा रही है। खेती में अग्रणी लातूर देश की सबसे बड़ी दाल मंडी है और देश में अरहर के दाम यहीं से तय होते हैं। लेकिन यहां औऱ बाकी सभी इलाकों में सूखा और कृषि संकट से कर्ज में लदे तमाम किसान आत्महत्या को विवश हैं। ग्रामीण अर्थतंत्र चरमरा गया है। मराठवाड़ा में 2015 के सूखे के साल में 1133 किसानों ने आत्महत्या की थी। जब किसान ही बेहाल हैं तो खेतिहर मजदूरों, बटाई पर खेती करने वालों औऱ मछुआरों की दशा को समझना कठिन नहीं।

लेकिन असली सवाल यह है कि मराठवाड़ा आज ऐसी स्थिति में क्यों है। गन्ने की खेती और नकदी फसलों की बेइंतहा होड़ के साथ चीनी मिलों और कारखानों पर भी उंगली उठ रही है। औरंगाबाद, बीड, जालना और उस्मानाबाद पर जलवायु परिवर्तन का भी सीधा असर दिख रहा है। वैसे भी मराठवाड़ा में 18 फीसदी इलाके को ही सिंचाई सुविधा है और बाकी खेती भूजल से होती है। भूजल पीने के पानी के साथ खेती के भी काम आता है लेकिन वह किसकी कितनी जरूरतें पूरी कर सकता है और वह भी कब तब। हालांकि बीते सूखे के चलते सरकार और समाज दोनों जगे हैं और जल निकायों की सफाई और संरक्षण सरकार पर ध्यान गया है लेकिन प्रकृति से टक्कर कैसे ली जा सकती है।

विदर्भ में घाटे की खेती करते-करते और कर्ज में डूबते किसानों की दशा और जगहों से अलग है। कपास और सोयाबीन दोनों संकट में हैं। विदर्भ भी बारानी इलाका है और किसानों की बड़ी तादाद महज एक फसल के बूते अपने जीवन की गाड़ी खींचती है। ऊपर से लगातार मंहगे होते बीज और खाद-पानी के संकट के नाते उनकी समस्याएं बढ़ने लगी हैं।


लेकिन मराठवाड़ा के साथ विदर्भ के किसानों की दशा भी दयनीय है। कभी सूखा तो कभी मौसम की मार से किसानं की कमर टूट रही है। संसद के दोनों सदनों में कृषि संकट पर चालू सत्र और बीते सत्र दोनो में गंभीर चर्चाएं हुई हैं। सांसदों ने इस इलाके के किसानों की दयनीय दशा को लेकर सरकार का ध्यान खींचा। विदर्भ का कृषि संकट किसी से छिपा नही है। यहीं देश मों सबसे ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएं कीं।

विदर्भ में घाटे की खेती करते-करते और कर्ज में डूबते किसानों की दशा और जगहों से अलग है। कपास और सोयाबीन दोनों संकट में हैं। विदर्भ भी बारानी इलाका है और किसानों की बड़ी तादाद महज एक फसल के बूते अपने जीवन की गाड़ी खींचती है। ऊपर से लगातार मंहगे होते बीज और खाद-पानी के संकट के नाते उनकी समस्याएं बढ़ने लगी हैं। फिर भी नयी उम्मीद के साथ किसान बुवाई करता है कि शायद ये मौसम उसका दुख-दर्द कम कर दे लेकिन उलटा हो जाता है।

यह संकट कोई एक दो वर्षों का नहीं है, बल्कि दशकों की उपेक्षा औऱ अनदेखी की देन है। विदर्भ के कृषि संकट की तह में जाकर उसके निदान की तरफ ध्यान दिया होता तो ऐसी तस्वीर नहीं रहती। मराठवाड़ा की तरह विदर्भ भी एक जमाने तक अच्छी खेती-बाड़ी के लिए विख्यात रहा है। 1906 में ही देश के पांच कृषि कालेजों में से एक कालेज यहीं नागपुर में खुला था। इसका यहां फायदा भी पहुंचा। बाद में कृषि अनुसंधान तंत्र और मजबूत हुआ।

आखिर यह हालत कैसे हो गयी, इसकी तह में जाने की जरूरत किसी ने नहीं महसूस की। पहले भी किसान साल में एक ही फसल उगाते थे और सिंचाई सुविधा और कम थी, लेकिन खेती और बागवानी से उनका गुजारा चल जाता था। लेकिन 1990 के दशक के बाद नकदी खेती के जोर पकड़ने के बाद से परंपरागत खेती का रूप बदलने लगा। पहले कम पानी में परंपरागत फसलें काम भर की उपज दे देती थीं और सूखे की मार भी झेल लेती थीं। लेकिन बीटी कपास और सोयाबीन के साथ ऐसा नहीं है। इसमें भारी लागत आती है और एक फसल भी फेल हो जाये तो किसान टूट जाता है।

बीते दशकों में अगर यहां सिंचाई सुविधा का व्यापक विस्तार हुआ होता और कृषि विविधीकरण होता तो ऐसी बुरी दशा नहीं होती। लेकिन कमजोर कृषि विस्तार तंत्र के साथ तमाम खामियों ने किसानों को और कमजोर किया। इस नाते खेती वेंटिलेटर पर चल रही है। दोनों इलाकों में खेती को नयी जरूरतों के लिहाज से जो मदद चाहिए, बाजार और दूसरे मोर्चों पर जो सहायता चाहिए, उस तरफ ध्यान नहीं दिया जा सका। इसी नाते दो तिहाई किसान भीषण कर्ज में डूब गए और मौका मिलते ही खेती छोड़ने की फिराक में हैं। यहां के गांवों से काफी संख्या में लोग पलायन कर गए हैं।

विदर्भ के कृषि संकट के कई कारण और रूप हैं। कुछ देशी-विदेशी नीतियों की वजह से है तो कुछ राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन की संवेदनशीलता से जुड़े है। यहां के किसानों के पास जो साधन और सुविधाएं हैं उससे तो वे अमेरिका से दाम की प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। अमेरिका और चीन की सरकार भारी सब्सिडी देती है। लेकिन विदर्भ में बाजार एमएसपी पर खरीद तक के लिए किसानों को आंदोलन करना पड़ता है। कपास और सोयाबीन का दाम अमेरिका से तय होता है। कपास हो या सोयाबीन इनकी कीमतें गिरती हैं तो सबसे बड़ी मार विदर्भ जैसे इलाकों पर पड़ती है। ऊपर से सूखा और मौसम की मार किसानों पर बज्रपात जैसी होती है।

यह छिपा तथ्य नही है कि बारानी या वर्षा सिंचित इलाकों में खेती की लागत सिंचित इलाकों से कहीं अधिक आती है फिर भी उनको वाजिब दाम नहीं मिलता। एमएसपी पर खरीद का जो सरकारी तंत्र हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में है वैसा यहां नहीं है। महाराष्ट्र में ही जिस तरह की मजबूत शक्कर लॉबी है वैसी लॉबी गैर सिंचित इलाकों के किसानों की नहीं है। इस नाते वे पहले ही कमजोर हैं।

अगर राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो देश में कुल सिंचित इलाका 44.9 फीसदी है लेकिन यह विदर्भ में महज 11 फीसदी के आसपास बैठता है। अमरावती जैसे जिले ने देश को राष्ट्रपति दिया लेकिन यहां भी 85 फीसदी खेतों को सिंचाई सुविधा नहीं है। विदर्भ के कृषि संकट पर संसद और महाराष्ट्र विधानसभा में इस मसले पर तमाम चर्चाएं हुईं और कई समितियां बनीं। कई पैकेज घोषित हुए लेकिन हालात खास बदल नहीं पाई है।

खेती की लागत बढ़ना और वाजिब दाम न मिलना यहां भी गंभीर समस्या बनी हुई है। उचित बिजली आपूर्ति के साथ डेयरी, बागवानी और पशुपालन को बढावा देने के साथ प्रोसेसिंग सुविधाओं के विकास की दिशा में इस अंचल में भारी निवेश जरूरी हो गया है। इस नाते जरूरी है कि भारत सरकार औऱ महाराष्ट्र सरकार दोनों इस अंचल में कृषि संकट से निपटने के लिए ठोस रणनीति बनाए ताकि इस इलाके को फिर से जीवनदान मिल सके।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्यसभा टीवी से जुड़े हैं। गांव और किसान के मुद्दे पर लगातार लिखते रहते हैं।)

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