खेत खलिहान में मुद्दा : नीतियों का केंद्र बिंदु कब बनेंगे छोटे किसान ?

Arvind Kumar SinghArvind Kumar Singh   6 Sep 2017 11:35 AM GMT

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खेत खलिहान में मुद्दा :  नीतियों का केंद्र बिंदु कब बनेंगे छोटे किसान ?छोटे किसान देश पर बोझ नहीं बल्कि सबसे उत्पादक हैं

‘उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी, भीख निदान’ की सदियों पुरानी कहावत अब पलट गई है। खेती की जगह नौकरी चाकरी अब देहाती दुनिया के बड़े हिस्से का सबसे सम्मानित पेशा बन गया है। खेती की प्रतिष्ठा और हैसियत में लगातार गिरावट आ रही है। गांव से शहर जाने की होड़ लगी है और युवाओं का खेती से मोहभंग होता जा रहा है।

तमाम किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। ऐसी दशा में छोटे किसानों और कृषि श्रमिकों की पीड़ा की सहज कल्पना की जा सकती है। वैसे तो भारत सरकार और कई राज्य सरकारें उनके हक में तमाम दावे करती हैं लेकिन जमीनी हकीकत बेहद चिंताजनक दिखने लगी है। खेती से संबंधित योजनाओं की झड़ी के बीच में अधिकतर राज्यों में उनकी तस्वीर बदलती नहीं दिख रही है।

भारत को आजादी मिली तो कृषि का जीडीपी में योगदान 52 फीसदी तक था जो अब घट कर 17 फीसदी पर आ गया है। खेती और गांव-देहात की उपेक्षा से कई तरह के संकट खड़े हो रहे हैं। छोटे किसानों के पास पूंजी की कमी है, जबकि खेती की लागत बढ़ रही है।

भारत में 13.78 करोड़ कृषि भूमि धारकों में से लगभग 11.71 करोड़ छोटे और मझोले हैं, हालांकि वे ही हमारी खेती का भविष्य हैं और वर्तमान भी लेकिन आबादी बढ़ने के साथ ही कृषि जोतें छोटी और अनुत्पादक होती जा रही हैं और छोटे किसानों की टिकाऊ आजीविका पर प्रश्नचिन्ह लग रहा है। छोटे किसानों पर सीमित संसाधनों के नाते और मार पड़ती है। सरकारी योजनाओं से लेकर बैंकों में उनकी उपेक्षा होती है। उनकी हैसियत लायक ऐसी कम ही किस्में विकसित हो पाई हैं जो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को झेल सकने की क्षमता रखती हैं।

ये छोटे किसान हमारी खेती का प्राण हैं। इनकी बदौलत ही हम अनाज उत्पादन में नए नए कीर्तिमान बना रहे हैं। भारत आज दूध उत्पादन में नंबर एक पर है जबकि फल और सब्जी में दूसरे और अनाज में तीसरे नंबर पर है। इन सब में छोटे किसानों का अहम योगदान है लेकिन आज पूंजी का केंद्र महानगर बन गए हैं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। इन सारे पक्षों को ध्यान में रख कर नीति निर्माताओं को छोटे किसानों को सहारा देने के लिए ठोस रणनीतियां बनाने की जरूरत है क्योंकि इन पर ही हमारी खाद्य सुरक्षा टिकी है। ये हाशिए पर धकेले जा रहे हैं।

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छोटे किसान देश पर बोझ नहीं बल्कि सबसे उत्पादक हैं। वे अनाज य़ा फल-सब्जियां पैदा करने में ही नहीं आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्र में भी मददगार है। उनकी आजीविका सुरक्षा के साथ इस बात को प्रोत्साहित करने के लिए कदम उठाना जरूरी हो गया है कि वे आपस में मिल कर खेती करें और सामूहिकता को बढ़ावा देने वाली नीतियों पर जोर दिया जाए। इसकी मानसिकता तैयार करने में सरकारी स्तर पर समर्थन कहीं अधिक जरूरी है।

भारत को आजादी मिली तो कृषि का जीडीपी में योगदान 52 फीसदी तक था जो अब घट कर 17 फीसदी पर आ गया है। खेती और गांव-देहात की उपेक्षा से कई तरह के संकट खड़े हो रहे हैं। छोटे किसानों के पास पूंजी की कमी है, जबकि खेती की लागत बढ़ रही है। उनके पास मशीनरी और श्रम शक्ति का भी भारी अभाव है। योजनाएं उनके पास पहुंचने के पहले ही दम तोड़ देती है। इसी नाते बड़ी संख्या में छोटे किसान खेती छोड़ शहरों को पलायन कर रहे हैं।

खाद्य सुरक्षा की राह में आज कई बाधाएं हैं। भूमि और जल उत्पादकता को बेहतर बनाने के साथ खेती में सदाबहार क्रांति और स्थिरता लाने के लिए राष्ट्रीय अभियान चलाने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन की चुनौती अब सबको दिखने लगी है। भयानक बाढ़ें और सूखे पर सूखा देश के कई हिस्सों में छोटे किसानों की रीढ़ तोड़ रहा है। हिमालयी राज्यों में तो संकट और गंभीर दिखने लगा है लेकिन जलवायु परिवर्तन के असर को झेलने लायक प्रजातियों की कमी है और टिकाऊ खेती के लिए ठोस रणनीति का भी अभाव है। पूरे साल भर खटने के बाद छोटे किसान खेती से इतना भी धन नहीं जुटा पाते कि सम्मानजनक जीवन जी सकें और अपने बच्चों को ढंग की शिक्षा दे सकें।

यह बात किसी से छिपी नहीं रह गई है कि बड़ा किसान बेहाल है और छोटा किसान दयनीय दशा में जी रहा है। उनके पास संसाधनों का टोटा है। खेती को जो सब्सिडी दी भी जा रही है उसका केंद्र वे नहीं हैं। लालफीताशाही बड़े किसानों की मददगार है और उनकी कहीं सुनवाई नही होती।

वैसे सरकार और तमाम कृषि वैज्ञानिक खेती की मौजूदा तस्वीर से संतुष्ट नजर आते हैं। उनका दावा है कि कई चुनौतियों के बाद भी हमारी खेती पहले की तुलना में खेती पांच गुना अधिक मजबूत है। लेकिन इस तथ्य की अनदेखी नहीं हो सकती कि खेती अब किसानों का पसंदीदा पड़ाव नहीं। बढ़ती आबादी और प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव ने तस्वीर बदल दी है।

यह बात किसी से छिपी नहीं रह गई है कि बड़ा किसान बेहाल है और छोटा किसान दयनीय दशा में जी रहा है। उनके पास संसाधनों का टोटा है। खेती को जो सब्सिडी दी भी जा रही है उसका केंद्र वे नहीं हैं। लालफीताशाही बड़े किसानों की मददगार है और उनकी कहीं सुनवाई नही होती। आगे अगर देश को जरूरतों के लिहाज से अनाज उत्पादन बढ़ाना है तो छोटे किसानों को मदद करने के लिए ठोस रणनीतियां तैयार करनी होगी।

आज खेती में तकनीकों का जोर है लेकिन महंगी तकनीक छोटे किसानों की जेब इसके लायक नहीं। सिंचाई और कृषि उपकरणों की मदद के बिना खेती की लागत घटाई नहीं जा सकती है। इसके लिए सामुदायिक आधार तैयार करते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को आगे आने की जरूरत है। इसी तरह महिला किसानों को भी प्रोत्साहन देना होगा। वे हमारी खेती की रीढ़ हैं लेकिन उनके योगदान को हम नजरअंदाज करते आए हैं। महिलाओं की 65 फीसदी श्रमशक्ति खेती में लगी है, लेकिन उनके नाम पर 10 फीसदी जमीन भी नहीं है। कृषि नीतियां महिला किसानों की हितैषी नही है। उनको न तो सरकारें किसान मानती हैं, न बैंक उनको कर्जा देते हैं क्योकि वे जमीन का कागज नहीं दे पाती हैं।

हमारे 85 फीसदी छोटे किसानों की अधिकतर जोतें अलाभप्रद होती जा रही हैं। उनको समय पर न बीज-खाद मिल पाती है, न ही कर्ज। बारिश पर निर्भर इलाकों के छोटे किसानों की दशा और खराब है। गोदामों और कोल्ड स्टोरेज की कमी के साथ कृषि मंडियों की कमजोरियां भी उनकी राह में बाधक हैं। ज्यादातर प्रदेशों में छोटे किसान बिचौलियों के चंगुल में फंसे है। उनकी धनिया और होरी सी तस्वीर आज भी कायम है। साहूकारों से कर्ज लेकर खुद को बंधक बनाने की उनकी विवशता तमाम दावे के बाद भी कम नहीं हो रही है। उत्तर प्रदेश जैसे विशाल आबादी वाले राज्यों में तस्वीर चिंताजनक है।

आज तकनीक के साथ छोटे किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए भरोसेमंद रास्तों को तलाश जरूरी है। डेयरी, बागवानी और पशुपालन को बढावा देने के साथ प्रोसेसिंग सुविधाओं का विकास कर उनको मदद दी जा सकती है। छोटे किसानों को डेयरी और मजबूती दे सकता है। लेकिन इसमें उनको वाजिब मदद मिलनी चहिए। इससे युवाओं को खेती में रोकने में भी मदद मिल सकती है। इसी तरह कश्मीर, पूर्वोत्तर और पहाड़ी किसानों के हित में भी ठोस रणनीति बनानी होगी क्योंकि यहां छोटे किसानो का ही बहुमत है और आधारभूत ढांचे का भारी अभाव भी है। उत्पादों के वाजिब दाम मिलने में दिक्कतें करीब हर इलाके में है। इन सारे तथ्यों के आलोक में अगर नीति निर्माताओं ने ध्यान न दिया और जमीनी स्तर पर राज्यों में तस्वीर नहीं बदली तो भारतीय खेती का भविष्य संकट में पड़ सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्यसभा टीवी से जुड़े हैं। गांव और किसान के मुद्दे पर लगातार लिखते रहते हैं।)

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