जजों का विवाद सड़कों पर, शायद तिल का ताड़ था

Dr SB Misra | Jan 15, 2018, 18:20 IST
Supreme Court Judges
बार काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन मनन मिश्र ने मीडिया को बताया है कि उच्चतम न्यायालय के जजों का मामला घर की बात थी आपस में उन्होंने सुलझा लिया है। उन्हें कौन बताए यह घर की बात थी जब तक प्रेस वार्ता में बागी बयान और न्यायिक बेंचों के अलाटमेन्ट सम्बन्धी पत्र सामने नहीं आया था। जस्टिस लोया की मौत का मामला उठा जो सीबीआई में सोहराबुद्दीन एनकाउंटर संबंधी मामले के जज थे, भले ही बागी जजों ने खुलकर नहीं उठाया था। लोया परिवार को शिकायत नहीं है लेकिन कांग्रेस को है। लगता है अब लोकतंत्र पर खतरा नहीं है।

लोकतंत्र खतरे में है, बताया गया लेकिन इसकी भनक तक नहीं लगी थी जनता को। लोकतंत्र के स्तम्भों विधायिका, कार्यपालिका, पत्रकारिता और न्यायपालिका में से तीन में पारदर्शिता है, सब को पता रहता है वहां क्या हो रहा है। लेकिन अंग्रेजों के जमाने से ही न्यायपालिका में पूरी गोपनीयता रहती है फिर भी वह गरिमापूर्ण ढंग से काम करती रही है। जज अपने खुद के विवाद भी गरिमापूर्ण ढंग से ही निपटाते है, सड़कों पर नहीं जाते।

बात की शुरुआत करता हूं इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज माननीय जगमोहनलाल सिन्हा से। श्रीमती इन्दिरा गांधी 1971 में देश की प्रधानमंत्री थीं और आम चुनाव में राजनारायण ने उनके खिलाफ चुनाव लड़ा था। हार जाने पर राजनारायण ने चुनाव याचिका दायर की थी जिसे निपटाने में करीब पांच साल लगे। न्यायमूर्ति सिन्हा ने इन्दिरा गांधी का चुनाव अवैध पाया था। निर्णय सही था या गलत इसकी समीक्षा के लिए इन्दिरा जी ने अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया बल्कि देश भर में आपातकाल लगा दिया, इसे कहते हैं लोकतंत्र पर खतरा।

इन्दिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान एक प्रकरण आया था कि जिन्दा रहने का अधिकार मौलिक है या नहीं। उच्चतम न्यायालय में मुकदमा चला जिसकी सुनवाई जस्टिस हंसराज खन्ना सहित पांच जजों की बेंच ने की थी। न्यायाधीश खन्ना ने सरकार के खिलाफ निर्णय देते हुए जीने के अधिकार को मौलिक माना था जबकि बाकी चार जजों ने सरकारी व्याख्या को सही माना था। वरिष्ठतम होते हुए भी जस्टिस खन्ना को सुपरसीड करके जस्टिस बेग को उच्चतम न्यायालय का चीफ जस्टिस बना दिया गया। जस्टिस खन्ना ने कोई पत्रकार वार्ता नहीं की बल्कि अपना त्यागपत्र शालीनता से दे दिया, देश और दुनिया में उनकी प्रशंसा हुई थी।

जहां न्यायाधीशों ने अपनी गरिमा से कभी समझौता नहीं किया था वहीं सेना के अधिकारियों ने अनुशासन से बंधे रहना उचित माना। लेफ्टिनेन्ट जेनरल एस के सिन्हा को इन्दिरा गांधी के शासन में जब सुपरसीड कराया गया तो उन्होंने शालीनता से इसे स्वीकार किया और अपना त्यागपत्र सौंप दिया। कहते हैं वह स्वर्ण मन्दिर के अन्दर सेना भेजने के पक्ष में नहीं थे और उनकी जगह जेनरल वैद्य को सेनाध्यक्ष बनाया गया। उदाहरण और भी हैं जब जजों और सैनिक अधिकारियों ने बगावत करने के बजाय शालीनता से त्यागपत्र देकर घर जाना उचित समझा।

शायद अब समय बदल गया है और माननीय उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठ जजों ने पत्रकार वार्ता करके सुप्रीम कोर्ट के मख्य न्यायाधीश पर गम्भीर आरोप लगाए हैं। उन्होंने कहा है कि यदि उच्चतम न्यायालय का काम काज ऐसे ही चलता रहा तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। ऐसे सार्वजनिक बयानों से उच्चतम न्यायालय की विश्वसनीयता तार-तार हो गई है। यह महत्वपूर्ण है कि ये जज कौन सी बेंच में रहना चाहते थे और क्यों। आखिर कब और कैसे हालात इतने खराब हुए। जजों ने मुख्य न्यायाधीष को एक पत्र लिखने, पत्रकार वार्ता करने और कम्युनिस्ट नेता डी राजा से बात करने के अलावा और क्या उपाय किए हालात सुधारने के लिए। इतना ही नहीं, उन्होंने हालात सुधारने का फैसला जनता पर छोड़ दिया तो जनता का फैसला कौन करेगा।

जजों के असन्तोष का मुद्दा यह है कि किस बेंच में और किस प्रकरण के निस्तारण के लिए किसको जिम्मेदारी दी जाय। लोकतंत्र में विधायिका में सरकार बनाते समय कौन सा विभाग किसको दिया जाय यह खींचतान तो सुनी थी जिससे कार्यपालिका में प्रमुख स्थानों पर अपने आदमी बिठा सकें। लेकिन न्यायालय में वरिष्ठ जजों को पसन्दीदा बेंच चाहिए ऐसा नहीं सुना था। जब सभी जज बराबर हैं तो सभी निर्णय करने में सक्षम हैं। कहते हैं कि प्रकरण का निबटारा हो गया हो गया है तो देखना होगा हल कैसे निकला।

न्यायालय की दीवारों के अन्दर पिछले 70 साल से क्या हो रहा था इसका कुछ अता पता आम आदमी को नहीं लगा। विधायिका में कुछ पारदर्शिता आई है और उसकीह कार्यवाही टीवी पर दिखाई जाती है और पत्राजात उपलब्ध रहते हैं। कार्यपालिका में भी पारदर्शिता है सूचना के अधिकार के माध्यम से। पत्रकारिता की तो खुली दुनिया है। न्यायपालिका के पास एक अवसर है विश्वसनीयता बनाए रखने का, कार्यवाही सार्वजनिक और पारदर्शी बनाकर, मीडिया को देखने और दिखाने का अवसर देकर।

वरिष्ठ जजों की कुछ बेंचों और मामलों में विशेष रुचि की बात समझ से बाहर है। यदि कनिष्ठ जजों के फैसले गलत हुए तो भी पारदर्शिता ही समाधान है क्योंकि सभी निर्णय वरिष्ठ जजों के मन के हों यह सम्भव नहीं। यदि ऐसा होता तो सब निर्णय एकमत होते, कोई विभाजित निर्णय न होता। असन्तुष्ट जजों ने जनता की अदालत पर वाद का निर्णय छोड़ा है तो क्या जजों की नियुक्ति के मसले पर मतभेंद होगा तो जनता ही नियुक्ति पर अन्तिम मुहर लगाएगी?

न्याय प्रक्रिया की पारदर्शिता इसलिए भी जरूरी है कि पेशी दरशी गरीबों को दौड़़ाया जाता है, वकीलों पर फरियादी की पूरी निर्भरता है और यदि वकीलों की हड़ताल हा जाय तो पता रहे। जो जज न्यायपालिका की कार्यवाही पर उंगली उठा रहे हैं कल कार्यशैली जनता देखेगी और असलियत समझेगी। सरकार, जजों, वकीलों और जनता मे हिम्मत नहीं कि वे पूरी प्रक्रिया पारदर्शी बना सकें और गुलामी के जमाने की गोपनीयता की परम्परा समाप्त कर सकें?



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