स्वामी विवेकानंद और मैं

Dr SB MisraDr SB Misra   12 Jan 2019 5:30 AM GMT

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स्वामी विवेकानंद और मैंस्वामी विवेकानंद 

गाँव कनेक्शन के प्रधान सम्पादक डॉ. एसबी मिश्र 1993 में स्वामी विवेकानंद के भारत भ्रमण की 100वीं वर्षगांठ से जुड़े संस्मरण बता रहे हैं।

वर्ष 1993 में स्वामी विवेकानन्द के शिकागो भाषण की शताब्दी मनाई गई थी। विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी के प्रमुख कार्यकर्ताओं ने देशभर का उस मार्ग से भ्रमण किया था जिस पर स्वामी विवेकानन्द एक परिव्राजक के रूप में घूमे थे। नैनीताल जहां मैं विश्वविद्यालय में प्राध्यापक था, इन यात्रियों का महत्वपूर्ण पड़ाव था। इस पड़ाव के कार्यक्रमों का आयोजन और व्यवस्था का मैं संयोजक था। इस अवसर पर स्वामी जी के विषय में पढऩे और उन्हें जानने का लाभ मिला।

जनवरी माह की 12 तारीख को कलकत्ता में जन्मे और रामकृष्ण परमहंस के शिष्य नरेन्द्र जो बाद में विवेकानन्द कहलाए, उन्होंने दुनिया में भारत का नाम ऊंचा किया था। रामकृष्ण परमहंस के न रहने के बाद युवा सन्यासियों ने बड़ानगर के एक भूत बंगले में रहना आरम्भ किया था और उनके मार्गदर्शन की जिम्मेदारी स्वामी विवेकानन्द पर आ गई थी। एक शाम आग के चारों ओर बैठे सन्यासियों को बोध हुआ कि सभी आत्माओं में एक ही स्वरूप है, वे आत्माएं मिलकर एक विराट दिव्य आत्मा या परमात्मा के रूप मे विद्यमान है। यह असाधारण दिन ईसामसीह का जन्मदिन 25 दिसम्बर था और वे लोग भी असाधारण लोग थे।

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परिव्राजक सन्यासी के रूप में वाराणसी में नरेन्द्र को एक विचित्र अनुभव हुआ जब बन्दरों ने उन्हें दौड़ा लिया और एक सन्यासी ने पुकार कर कहा, 'मुकाबला करो'। नरेन्द्र इस घटना को कभी नहीं भूले। विषम परिस्थितियों से भागो नहीं उनका मुकाबला करो।

बड़ानगर आश्रम वापस आकर उन्हें यह खटकता रहता था कि वेदान्त का ज्ञान क्या पुस्तकों में ही सड़ता रहेगा। उन्होंने अपने सन्यासी बंधुओं से यह इच्छा प्रकट की कि वे गरीब और पिछड़े लोगों के बीच जाकर वेदान्त का ज्ञान बांटना चाहते हैं, व्यावहारिक वेदान्त। एक बार फिर वाराणसी गए जहां से वह अयोध्या, लखनऊ और आगरा गए। लखनऊ और आगरा में वह इस्लाम धर्म के योगदान से बहुत प्रभावित हुए। आगरा से वह वृन्दावन गए जहां कृष्ण के जीवन से जुड़ी अनेक घटनाओं का स्मरण किया। नरेन्द्र के युवा मस्तिष्क को शिव का विश्व कल्याण, राम की मर्यादा, कृष्ण का योग दर्शन और इस्लाम धर्म की एकता ने प्रभावित किया।

आगरा से नंगे पांव, भूखे, दंड और कमंडल लिए हुए जब वह वृन्दावन जा रहे थे, रास्ते में एक फटेहाल किसान को हुक्के का आनन्द लेते हुए देखा। उन्होंने इच्छा प्रकट की परन्तु वह गरीब संकोच में पड़ गया और उसने सन्यासी को हुक्का नहीं दिया, क्योंकि वह अछूत था। नरेन्द्र आगे बढ़ गए और सोचते रहे कि जीवनभर आत्मा की एकता का पाठ पढ़ता रहा और अब मैं अछूत का हुक्का नहीं पी सकता। वह लौटे, बच्चों की तरह आग्रहपूर्वक हुक्का मांगा और हुक्का पीकर आगे बढ़ चले।

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भ्रमण के अनुभव से उनके विचार और भी मजबूत हुए कि समय के साथ हिन्दू धर्म में बहुत विकार आ गए हैं। वेदों, उपनिषदों और पुराणों का ज्ञान जो पुस्तकों तक सीमित था उसे आम आदमी तक पहुंचाने की जरूरत उन्होंने महसूस की। उन्हें इस्लाम धर्म मानने वालों में बराबरी की भावना हमेशा प्रभावित करती थी। वे इस भावना को प्रजातंत्र का प्रतीक मानते थे।

बड़ानगर आश्रम वापस आने के कुछ ही दिनों बाद नरेन्द्र फिर बेचैन हो उठे कुछ करने के लिए। वाराणसी जाते हुए वह इलाहाबाद और गाजीपुर गए जहां पवहारी बाबा से भेंट की। पवहारी बाबा के विषय में कहा जाता है, एक बार एक कुत्ता उनकी रोटी लेकर भागा तो वह उसके पीछे यह कहते हुए दौड़े कि 'ठहरो प्रभु मक्खन तो लगा दूं। वे अक्सर अपनी रोटियां भूखे लोगों को दे देते थे। नरेन्द्र नाथ पवहारी बाबा से मिलकर प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरु बनाना चाहा परन्तु बाद में विचार बदल दिया।

1890 में नरेन्द्र फिर से बड़ी यात्रा पर निकल पड़े। इस बार अखण्डानन्द के साथ, गंगा किनारे और उनका पहला पड़ाव था भागलपुर। वहां से दोनों वाराणसी गए और कुछ स्थानों का भ्रमण करते हुए दोनों सन्यासी नैनीताल पहुंचे। वहां से पैदल, बिना एक भी पैसा लिए अल्मोड़ा के लिए निकले। अल्मोड़ा से थोड़ा पहले एक पीपल के पेड़ के नीचे रुके और दोनों ने ध्यान किया। मैंने वह पीपल का पेड़ देखा है।

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पीपल के पेड़ पर रुकना है या इसका कोई महत्व है इसकी जानकारी न मुझे थी और न शायद अल्मोड़ा के संयोजक डा. बोरा को, जो अब तक अगवानी के लिए आ गए थे। यह वही पीपल का पेड़ था जहां पर दोनों युवा संन्यासी नरेन्द्र और अखंडानन्द भूखे-प्यासे अचेत हो गए थे और एक मुसलमान नें उन्हें पानी पिलाया था। उस मुस्लिम परिवार के वंशज अभी भी हैं और घटना बताने में गर्व का अनुभव करते हैं।

सौ वर्ष बाद विवेकानन्द और अखण्डानन्द के उसी रास्ते पर बस से चलते हुए 40 लोग, जिनमें 25 तो स्वामी जी के अनन्य भक्त थे, पीपल के पेड़ के नीचे बैठे। मैंने सोचा था यहां से डा. बोरा जी व्यवस्था संभालेंगे और उन्होंने सोचा मैं पीपल के बाद उनको भार सौंपूगा। परिणाम यह हुआ कि भोजन व्यवस्था हुई ही नहीं। मुझे बहुत बुरा लगा और शर्मिन्दगी भी परन्तु पास में पैसा होते हुए भी कर क्या सकता था। नदी के दूसरे तट पर चाय आदि की दुकानें थीं तो चाय पानी कराया और क्षमा मांगी। परन्तु दूर कन्याकुमारी से आए अतिथियों ने कुछ संजीदगी के साथ कहा, जिस स्थान पर स्वामी जी भूख प्यास से अचेत थे वहां हमें भोजन न मिलना संयोगमात्र है ।

स्वामी जी बीमार हो गए थे और उन्हें मेरठ लाया गया था जहां कुछ दिन रुक कर नरेन्द्र फिर यात्रा पर निकलने के लिए बेचैन हो उठे। दिल्ली में उन्होंने मन्दिर, मस्जिद और मकबरों का दर्शन किया और इन्द्रप्रस्थ में सभ्यताओं की परतों का अनुभव किया। उन्होंने हिन्दू धर्म की अमर आत्मा का अनुभव किया। स्वामी जी दिल्ली से राजपूताना की तरफ बढ़े। उन्हें कंगालों के साथ रहने, खाने और सोने में उतना ही सहज भाव रहता था जितना राजा महाराजाओं से बात करने में ।

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जब स्वामी जी अलवर पहुंचे तो महाराजा ने मूर्ति पूजा पर व्यंग्य किया कि पत्थर की निर्जीव मूर्तियां इनमें श्रद्धा क्यों। स्वामी जी ने उनके मंत्री से महाराजा की फोटो उतारने को कहा और बोले इस पर थूको। चारों तरफ सन्नाटा छा गया, सभी आश्चर्य में पड़ गए तब स्वामी जी ने कहा यह चित्र निर्जीव है फिर भी इसका सम्मान है। महाराजा ने क्षमा मांगी।

बाद में स्वामी जी माउन्ट आबू गए जहां उनकी भेंट खेत्री के महाराजा से हुई। स्वामी जी को अमेरिका भेजने में बड़ा योगदान रहा था। गुजरात में जूनागढ़ के नवाब के प्रधानमंत्री शंकर पांडुरंग ने स्वामी जी को राय दी कि वह पश्चिमी देशों में जाकर हिन्दू धर्म के विषय में ज्ञान बांटें, यहां आप को लोग नहीं समझेंगे। हुआ भी यही उन्हें लोगों ने अधिक ठीक से समझा जब वह अमेरिका और यूरोप से वापस स्वदेश आए। स्वामी जी भारत के आध्यात्म, पश्चिम के भौतिक विज्ञान का सामंजस्य चाहते थे।

त्रिवेन्द्रम में विश्वविद्यालय के विद्वानों के साथ स्वामी जी ने चर्चा की और कहा कि पश्चिमी मनोविज्ञान सुपरकाशसनेस को नहीं समझता। स्वामी जी समान अधिकार से व्याख्या करते थे चाहे स्पेन्सर या शंकराचार्य हों, शेक्सपियर या कालिदास हों, डार्विन या पतंजलि हों, यहूदी इतिहास या फिर आर्य सभ्यता का विकास हो। स्वामी जी ने 14 सितम्बर 1893 को शिकागो में विश्व धर्म संसद में बोलना शुरू किया ''ब्रदर्स एंड सिस्टर्स ऑफ अमेरिका'' तो सभी लोग अभिभूत होकर खड़े हो गए। अगले भाषणों में उन्होंने अमेरिका और यूरोप को अपने विचारों से झकझोर दिया। विदेश से लौटने के बाद भारतवासियों ने उनके स्वागत में पलक पॉवड़े बिछा दिए।

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जब स्वामी जी से पूछा गया कि क्या आपका पश्चिमी देशों का अभियान सफल रहा तो उनका उत्तर साफ था जहां तहां कुछ बीज बोकर आया हूं आगे चलकर किसी के काम आएंगे। वे व्यावहारिक वेदान्त के पक्ष में थे पुजारी बनकर ज्ञान की साधना उनका ध्येय नहीं था। उनका जोर था आत्माओं की एकता पर। सही अर्थों में अछूतोद्धार की नींव स्वामी जी ने डाली थी जब उनसे किसी ने पूछा था आप का भगवान कैसा है और उन्होंने कहा था कि मेरा परमात्मा मेरा शिव, अछूतों में है, पारिया में है, दबे कुचलों में है। स्वामी जी का आग्रह इस बात पर था कि जो आत्मा, सन्यासी में है वही अछूत में, बनिया में, क्षत्रिय में अथवा एक ब्राह्मण में है। उनका जोर था आत्मा की आजादी पर। स्वतंत्रता संग्राम में उनके विचारों का बड़ा योगदान है।

एक दिन एक युवक ने उनसे कहा स्वामीजी मैं मूर्तियों की पूजा कर चुका हूं और कमरा बन्द करके एकान्त में ध्यान भी करता हूं परन्तु शान्ति नहीं मिलती, आप कोई उपाय बताइए। स्वामीजी ने कहा पहले अपने कमरे के दरवाजे खोल दो और बाहर देखो। दीन-दुखी, बेसहारा लोग दिखाई देंगे, उनकी सेवा में पूरी क्षमता से लग जाओ, शान्ति मिलेगी।

एक बार एक कालेज प्रोफेसर ने स्वामी जी से प्रश्न किया कि स्वामी जी आप सेवा के काम में लगने को कहते हैं परन्तु यह तो माया है। वेदान्त का मत है कि आत्मा की मुक्तिका मार्ग ही उत्तम है। स्वामी जी ने कहा वेदान्त का मत है आत्मा निर्लिप्त और मुक्तहै तब उसकी मुक्तिके यत्न भी माया हैं। प्रोफेसर के पास कोई उत्तर नहीं था तब स्वामी जी ने बताया कि प्रत्येक समय में परिस्थिति के अनुसार भक्ति, ज्ञान और कर्म पर आग्रह होता है, वर्तमान समय में कर्म का मार्ग ही श्रेष्ठ है। बिना स्वार्थ के गरीबों, बीमारों और बेसहारा लोगों की सेवा ही श्रेष्ठ कर्म है। उनका कहना था वह मोक्ष की कामना नहीं करते। वह चाहते हैं बार-बार जन्म लें, और बेसहारा लोगों की सेवा करें।

अल्मोड़ा में उनके स्वास्थ्य में सुधार हो गया और वह पंजाब और कश्मीर के लिए चल दिए। बरेली में छात्रों को व्यावहारिक वेदान्त के प्रचार प्रसार में जुट जाने को कहा। अमृतसर, अम्बाला और धर्मशाला में कुछ समय बिताकर स्वामी जी कश्मीर चले गए। कश्मीर के महाराष्टï्र महाराजा से वेदान्त प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित करने की इच्छा प्रकट की। बातचीत के दौरान उन्होंने अपने मन की पीड़ा बताई कि किस प्रकार हिन्दू धर्म पर जाति व्यवस्था हावी हो गई है। छुआछूत की व्यवस्था अतीत में नहीं थी, उन्होंने कहा।

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कश्मीर से स्वामी जी देहरादून गए जहां वेदान्त पर नियमित कक्षाएं आरम्भ कर दीं। यहीं पर स्वामी जी के अनन्य भक्तमहाराजा खेत्री का आग्रह पूर्ण निमंत्रण मिला और वे दिल्ली, अलवर होते हुए खेत्री गए। कलकत्ता वापस जाने के पूर्व स्वामी जी जोधपुर, किशनगढ़, अजमेर, खंडवा और इन्दौर गए और उत्तर भारत का भ्रमण पूरा किया।

अपने व्याख्यानों में स्वामी जी ने अन्तर्जातीय विवाहों पर जोर दिया, ऐसी देशभक्ति पर जोर दिया जिसका आधार आध्यात्मिक हो। वेदान्तिक अध्ययन में पश्चिमी देशों के विज्ञान, उद्योग और टेक्नालोजी का समावेष करने की बात कही। विश्वविद्यालयों से आग्रह किया कि स्वाभिमानी देशभक्त पैदा करें न कि क्लर्क और सरकारी नौकर। उनका प्रसिद्ध संदेश था कि 'उठो, जागो और तब तक न रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।'

स्वामी जी के विदेशी शिष्यों में मारगरेट नोबल थी, जिन्हें भगिनी निवेदिता के नाम से जाना गया। स्वामी जी का उनसे कहना था भारत वर्तमान में जैसा है उसे प्यार करो अतीत के वैभवशाली भारत को नहीं। अल्मोड़ा में स्वामी जी ने प्रबुद्ध भारत नामक पत्रिका का प्रकाशन फिर से आरम्भ कराया। वह ऐसे लोगों को बिल्कुल पसन्द नहीं करते थे जो केवल अपनी मुक्ति चाहते हैं। एक बार एक शिष्य से जो हरदम ध्यान मग्न रहने की कामना करता था, स्वामी जी ने कहा तुम नर्क में जाओगे यदि केवल अपने मोक्ष की कामना करोगे। उनका कहना था कि अपने ऊपर विश्वास रखो।

स्वामी जी ने एक बार फिर पश्चिमी देशों में जाने का प्रस्ताव रखा जिसे सबने खुशी से स्वीकार किया क्योंकि सबको आशा थी कि जहाज की यात्रा में स्वामी जी का स्वास्थ्य सुधर जाएगा। स्वामी जी 20 जून 1899 को कलकत्ता से चले और मद्रास, कोलम्बो, अदन होते हुए 31 जुलाई को लंदन पहुंचे। इस बार, उन्होंने कहा मैं एक योद्धा की तरह नहीं बल्कि एक ब्राह्मïण की तरह जा रहा हूं वह काम देखने जिसे उन्होंने आरम्भ किया था। उनके साथ में भगिनी निवेदिता और स्वामी जी के आग्रह पर स्वामी तुर्यानन्द भी गए थे। यात्रा के दौरान स्वामी जी ने विविध विषयों पर चर्चा की जिसे भगिनी निवेदिता ने 'माइ मास्टर ऐज आइ सा हिम' के रूप में लिखा है।

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स्वामी जी लंदन से न्यूयार्क गए जहां पुराने परिचितों से मिले और अनेक व्याख्यान दिए। बाद में वह पश्चिमी अमेरिका की ओर चले गए। शिकागो में अनेक मित्रों से भेंट की और फिर लास एंजेलस गए जहां लगभग एक माह रहे और अनेक व्याख्यान दिए फिर न्यूयार्क के लिए वापस चल पड़े।

स्वामी जी न्यूयार्क से पेरिस चले आए। पिछले कुछ समय से स्वामी जी अपने को दुनिया की जिम्मेदारियों से अलग कर रहे थे। बेलूर मठ की सम्पत्ति को उन्होंने अपने नाम से हटाकर ट्रस्टियों के नाम कर दिया था।

अमेरिका की अपनी दूसरी यात्रा में स्वामी जी अमेरिका की चकाचौंध के पीछे छुपे हुए अहंकार को देख रहे थे। अपनी पहली यात्रा में उन्होंने अमेरिका में स्वाधीनता, स्वावलम्बन, बराबरी और समृद्धि को देखा था परन्तु उसके पीछे छुपे दूसरों पर हावी होने की अमेरिकी भावना का अनुभव नहीं किया था। अब स्वामी जी को लगने लगा था कि पृथ्वी पर उनका काम समाप्त हो गया है।

स्वामी जी ने फ्रांस में धार्मिक इतिहास पर आधारित सम्मेलन में हिस्सा लिया और जेसी बोस तथा अन्य अनेक विद्वानों से मिले। 24 अक्टूबर 1900 को स्वामी जी पूरब की ओर चल पड़े। रास्ते में वह ग्रीस, मिस्र, टर्की, आस्ट्रिया जैसे अनेक देशों का भ्रमण किया। परन्तु स्वामी जी के शिष्यों ने अनुभव किया कि स्वामी जी का मन बाहरी दुनिया से विरक्त हो रहा था। स्वामी जी 4 जुलाई 1902 को इस संसार विदा हो गए।

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