किसान का मर्ज़ खैरात के पेनकिलर से नहीं जाएगा

अफसोस कि सरकार लोगों को बैसाखी पर जिन्दा रखना चाहती है, अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने देगी... सरकार ने गाँव-गाँव तक बैंक पहुंचाकर आसानी से कर्ज़ा उपलब्ध करा दिया, लेकिन ये नहीं बताया कि ये कर्ज़ चुकाओगे कैसे ?

Update: 2018-06-16 10:20 GMT
किसान प्रोजेक्ट :  साठ के दशक में जब देश भुखमरी के कगार पर पहुंच गया तो सरकार को किसान की याद आई और बौनी प्रजाति का मैक्सिकन गेहूं किसान को देकर कहा, यूरिया डालते जाओ और पैदावार बढ़ाते रहो। यह दर्दनिवारक गोली थी, जिसे किसान ने औषधि समझा और यूरिया का भरपूर प्रयोग करता रहा। ये प्रजातियां उसी अनुपात में जमीन से फॉस्फोरस और पोटाश खींचती रहीं तो एनपीके खाद आई लेकिन सूक्ष्म तत्वों की कमी होने लगी तो अलग से जस्ता, कैल्शियम, तांबा, बोरान जैसे तत्व जमीन में घटने लगे तो उनकी आपूर्ति के लिए कारखाने लगे।
बौनी प्रजातियों को चाहिए था अधिक पानी, जो पृथ्वी के अन्दर संचित जल भंडार को खाली करने लगा। जल दोहन के लिए विविध संयंत्र बनाने के कारखाने बने। इन्दिरा गांधी ने ''गरीबी हटाओ'' का नारा दिया तो किसान ने समझा यही रास्ता है अमीर बनने का। सरकार ने गाँव-गाँव तक बैंक पहुंचाकर आसानी से कर्ज़ा उपलब्ध करा दिया, लेकिन ये नहीं बताया कि ये कर्ज़ चुकाओगे कैसे ?
बौनी प्रजातियों को चाहिए था अधिक पानी, जो पृथ्वी के अन्दर संचित जल भंडार को खाली करने लगा। जल दोहन के लिए विविध संयंत्र बनाने के कारखाने बने। इन्दिरा गांधी ने ''गरीबी हटाओ'' का नारा दिया तो किसान ने समझा यही रास्ता है अमीर बनने का। सरकार ने गाँव-गाँव तक बैंक पहुंचाकर आसानी से कर्ज़ा उपलब्ध करा दिया, लेकिन ये नहीं बताया कि ये कर्ज़ चुकाओगे कैसे ?
अब इसके 50 साल बाद जब नरेन्द्र मोदी कहते हैं, किसान की आमदनी दोगुनी कर देंगे तो किसान सोचता है इस बार वह मालामाल हो जाएगा। इस प्रकार के वादे पूर तो होते नहीं लेकिन दर्दनिवारक खैरात का झुनझुना थमाकर वचन पूर्ति की इतिश्री हो जाती है। कहने को किसान अन्नदाता तो रहता है लेकिन अपने लिए सरकार के सामने खैरात लेने को कटोरा लेकर खड़ा रहता है। कभी कर्जमाफी, तो कभी लगान, पानी, बिजली आदि की खैरात के लिए।
खरीफ की फसल का समय आ गया और बीज, खाद, मजदूरी में महंगाई के कारण धान की फसल पैदा करने में लगभग 15000 रुपया प्रति एकड़ का खर्चा आएगा। किसान कर्ज़ा लेगा और कर्ज़ा माफी की आस लगाएगा। उधर, मनरेगा की मजदूरी सीधे बैंक में जाने लगी है इसलिए ग्राम प्रधानों की रुचि मनरेगा से हट रही है और पुराना पैसा मिला नहीं। बैंको के चक्कर लगाते रहे तो खरीफ़ की बुवाई का समय निकल जाएगा इसलिए छुटभैये साहूकारों से कर्जा लेना होगा। जो पैसा सरकार से मिलना है जैसे मनरेगा की बकाया मजदूरी, गन्ने और, गेहूं का बकाया या मुआवजा जो सरकार से मिलना है उसका भुगतान महीनों के बजाय हफ्तों में किया जा सकता था तो खरीफ़ की बुवाई आसानी से सम्भव हो सकती थी।
शादी ब्याह में बहुत से किसानों का तमाम खर्चा हो गया और बच्चों की फीस तथा किताबों की व्यवस्था करनी है। किसान अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ाना चाहता है, अच्छे कपड़े पहनाना और अच्छा भोजन खिलाना चाहता है, परन्तु उसके पास नियमित और भरोसे की आमदनी नहीं है। गरीब किसान के पास पूंजी नहीं है इसलिए उसके खेत तब बोए जाएंगे जब पैसे की व्यवस्था हो सकेगी। खेत न बो पाया तो किसान भुखमरी की हालत में पहुंच जाएगा।


गरीब किसान के पास पूंजी नहीं है इसलिए उसके खेत तब बोए जाएंगे जब पैसे की व्यवस्था हो सकेगी। खेत न बो पाया तो किसान भुखमरी की हालत में पहुंच जाएगा।
खाद्य सुरक्षा योजना के अंतर्गत सरकार ने वादा किया है कि गरीब से गरीब परिवारों को 35 किलो अन्न प्रति परिवार मिलेगा और प्राथमिकता श्रेणी के परिवारों को 5 किलोग्राम प्रति व्यक्ति मिलेगा। इन श्रेणियों का गांवों में प्रतिशत 75 और शहरों में 50 होगा। इनको चावल 3 रुपए, गेहूं 2 रुपए और मोटे अनाज एक रुपया प्रति किलो के हिसाब से मिलेंगे। लेकिन सरकार गांव वालों को भिखारी की तरह खैरात की रोटी क्यों देना चाहती है, भोजन गारंटी के बजाय रोजगार गारन्टी क्यों नहीं कर सकती। किसानों और मजदूरों को अनाज की खैरात ना देकर उन्हें वह ताकत दी जानी चाहिए, जिससे वे अनाज खरीद सकें। अफसोस कि सरकार लोगों को बैसाखी पर जिन्दा रखना चाहती है, अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने देगी।
किसानों को आर्थिक संकट से निकालने का एक ही उपाय है कि गांवों में स्थायी रोजगार के अवसर मुहैया कराए जाएं। ऐसे उद्योग लगाए जाएं जहां किसानों द्वारा उगाई गई चीजों का कच्चे माल की तरह प्रयोग हो और किसानों को उन उद्योगों में खेती से बचे समय में काम मिले। उनका भला ना तो मनरेगा से होगा और ना ही मिड-डे मील या खाद्य सुरक्षा से। उन्हें चाहिए आर्थिक स्वावलम्बन और स्वाभिमान का जीवन, वोट के लालच में उन्हें खैरात बांटकर पालतू बनाने का प्रयास सरकारें न करें। डॉ. एसबी मिश्र
गांव कनेक्शन के संपादक, भूगर्भ वैज्ञानिक डॉ. एसबी मिश्र के लेख पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें... 

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