इशारे से बाल्टी आ जाती है ऊपर, सिंचाई की अनूठी टेड़ा पद्धति

टेड़ा से पानी खींचने में ताकत नहीं लगती, इशारे से बाल्टी ऊपर आ जाती है। स्कूली बच्चे भी यहां नहाने आते हैं। स्त्री-पुरुष नहाते हैं, कपड़े धोते हैं, बर्तन मांजते हैं और मवेशियों को पानी पिलाते हैं।

Update: 2018-06-22 08:13 GMT

पिछले दिनों मेरा छत्तीसगढ़ में जशपुर जिले के एक गांव चराईखेड़ा जाना हुआ। वह उरांव आदिवासियों का गांव है। उनकी सरल जीवनशैली और मिट्टी के हवादार घरों के अलावा मुझे जिस चीज ने सबसे ज्यादा आकर्षित किया वह है उनकी सिंचाई की टेड़ा पद्धति। यहां कुएं उथले हैं और उनमें साल भर लबालब पानी रहता है। कुओं से पानी निकालना आसान है, इसके लिए यहां टेड़ा का इस्तेमाल किया जाता है। टेड़ा और कुछ नहीं बांस की लकड़ी है जिसके एक सिरे पर पत्थर बांध दिया जाता है और दूसरे सिरे पर बाल्टी। पत्थर के वजन के कारण पानी खींचने में ज्यादा ताकत नहीं लगती। बिल्कुल सड़क के बैरियर या रेलवे गेट की तरह।

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टेड़ा से पानी खींचने में ताकत नहीं लगती, इशारे से बाल्टी ऊपर आ जाती है। स्कूली बच्चे भी यहां नहाने आते हैं। स्त्री-पुरुष नहाते हैं, कपड़े धोते हैं, बर्तन मांजते हैं और मवेशियों को पानी पिलाते हैं। यहां से घरेलू काम के लिए लड़कियां पानी ले जाती हैं। इस गांव में 15-20 कुएं हैं और उनके आसपास हरे-भरे पेड़ लगे हैं। कुएं से लगे पास की बाड़ी में हरी सब्जियां लगी हैं। इससे उनकी सिंचाई होती है, उसके लिए अलग से पानी देने की जरूरत नहीं पड़ती। जो पानी नहाने-धोने के उपयोग में लाया जाता है उससे ही सब्जियों को पानी मिल जाता है। यहां के जोहन लकड़ा बताते हैं कि हम बाड़ियों में टमाटर, गोभी, भटा, मूली, मटर, आलू, हरी धनिया, मेंथी, प्याज लहसुन आदि सब्जियां उगाते हैं, खुद खाते हैं और पड़ोसियों को खिलाते हैं। अगर सब्जियां ज्यादा हो जाती हैं तो बेचते भी हैं।

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साभार इंटरनेट

यहां ग्रामीण बाड़ी में कटहल, मुनगा, नींबू और अमरूद जैसे पेड़ भी लगाते हैं। उनमें पानी कुएं से ही लाकर डालते हैं। शादी-विवाह और तीज-त्यौहारों के समय जब मेहमानों का आना-जाना लगा रहता है तब उन्हें पानी की दिक्कत नहीं होती। वे कहते हैं कि अगर इसमें थोड़ी और मेहनत की जाए तो 3-4 एकड़ खेत में सिंचाई की जा सकती है। यहां की खेती श्रम आधारित है। लोग खेतों में मेहनत करते हैं। बारिश के पहले एक दंपति अपने 3 किलोमीटर खेत में कांवर से कंधे पर ढोकर गोबर खाद डाल रहा था। वे खेतों में अनाज उगाने के लिए मेहनत और अच्छी तैयारी करते हैं। छत्तीसगढ़ के परंपरागत खेती में अध्ययनरत डॉ. सुरेशा साहू कहते हैं कि यह कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं। अगर हम पानी को जितनी जरूरत है उतना ही निकालेंगे तो पानी खत्म नहीं होगा। कई सालों तक बना रहेगा। अन्यथा पानी का संकट स्थाई हो जाएगा। वे बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में मरार और सोनकर समुदाय टेड़ा से अपनी सब्जियों को सींचते थे। ये समुदाय सब्जी-भाजी का ही धंधा करते थे। लेकिन 10-15 सालों में काफी बदलाव आया है। अब लोग डीजल पंप, समर्सिबल पंप और ट्यूबवेल से सिंचाई करने लगे हैं। कुएं सूख गए हैं। भूजल स्तर नीचे खिसकता जा रहा है।

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प्रतीकात्मक तस्वीर।

वे एक उदाहरण देकर कहते हैं कि हमारे नहाने में 15-20 लीटर पानी लगता है लेकिन हम मोटर पंप से अगर नहाते हैं तो 5000 लीटर पानी बह जाता है। पानी के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए श्रम आधारित तकनीक बहुत उपयोगी है। हमने रासायनिक खेती की ऐसी राह पकड़ी है जिसमें श्रम आधारित काम की जगह सभी काम मशीनों व भारी पूंजी की लागत से होता है जबकि मानवश्रम बहुतायत में है। साहित्यकार और शिक्षाविद् डॉ. कश्मीर उप्पल कहते हैं कि आज पूरी दुनिया में ऊर्जा का संकट है। कोयला, डीजल और पेटोल की सीमा है। इनके भंडार सीमित हैं। ग्लोबल वार्मिंग एक और समस्या है। हमारे वन कट रहे हैं, नदी, नाले, कुएं सूख रहे हैं। हरी घास और दूब के मैदान दिखाई नहीं देते। पानी रिचार्ज नहीं होता। पुर्ननवा नहीं होता। इसलिए हमें परंपरागत जलस्त्रोत व पानी की किफायत के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। जैव विविधता पर अध्ययन करने वाले बाबूलाल दाहिया बताते हैं कि बुंदेलखंड में भी सिंचाई की यही पद्धति थी। इसे यहां ढेकली कहते थे। सब्जी-भाजी का धंधा करने वाला काछी समुदाय ढेकली से ही अपनी सब्जियों को पानी देते थे। लेकिन पानी के बेजा दोहन से कुएं सूख गए हैं। हमें ऐसी परंपरागत श्रम आधारित पद्धतियों के बारे में सोचना होगा जिससे हमारी जरूरत भी पूरी हो जाए और पर्यावरण को भी नुकसान न पहुंचे।

लेखक: बाबा मायाराम

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