भारत में सीमांत किसानों के ख़त्म होने के ज़िम्मेदार हम हैं। देश के लाखों सीमांत किसानों के लिए खेती आर्थिक रूप से अव्यवहारिक हो गई है, जबकि कुल खेती में 85 प्रतिशत की भागीदारी इन्हीं किसानों की है। मौसम, फसलों का चुनाव और नीतिगत माहौल की अनिश्चितता इसकी सबसे बड़ी वजहें हैं। सीमांत किसानों को हालात के हिसाब से कई तरह के फैसले लेने पड़ते हैं, और ग़लत समय पर लिया गया सिर्फ एक निर्णय बड़ा नुकसान करा सकता है। इन अनिश्चितताओं के बीच, गाँव कनेक्शन जैसे मंच ये उम्मीद जगाते हैं कि सबकुछ ख़त्म नहीं हुआ है, अब भी खेती से जुड़े लोगों, ख़ासतौर पर छोटे और सीमांत किसानों के लिए संभावनाएं बाकी हैं।
हरीशचंद्र सापकाल महाराष्ट्र के लातूर ज़िले के कई सीमांत किसानों में से एक हैं। हरीशचंद्र ने 1.2 एकड़ ज़मीन पर गन्ने की फसल लगाई है। एक ग़लत फ़ैसले ने उनकी वर्षों की जमापूंजी लूट ली। पास की शुगर मिल से अच्छे मुनाफ़े की उम्मीद हुई, तो उन्होंने सोयाबीन और अरहर के बदले गन्ना उगाने में पिछले तीन साल में चार लाख रुपए खर्च कर डाले, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कम बारिश की वजह से पूरी फसल खराब हो गई।
गांव कनेक्शन- ग्रामीण भारत की आवाज़, खेती-किसानी और मजदूरों की आवाज़। आप की आवाज को, गांव की आवाज़ को सरकारों और नीति निर्माताओं तक पहुंचाने की हमारी कोशिश जारी है... https://t.co/pPJprU797B #5YrsOfGaonConnection #GAON #Photos #journalism #India #Rural pic.twitter.com/nBzNcxxgU9
— GaonConnection (@GaonConnection) December 2, 2017
सामान्य से पचास फीसदी से भी कम बारिश की वजह से करीब 45,000 हेक्टेयर क्षेत्र के 5000 से ज़्यादा किसानों के यही हालात हैं। हरीशचंद्र यरमे (तालुका- जलकोट, ज़िला-लातूर,महाराष्ट्र) के 40 एकड़ के खेत में कभी 3000 मौसम्बी के पेड़ थे, पर अब हालत ये है कि पानी के लिए वह अपने खेतों में 63 बोरवेल खोद चुके हैं (इनमें से कुछ तो 800 से 1000 फीट तक गहरे हैं) , लेकिन पानी अब भी नदारद है और फसलें खराब हो चुकी हैं। ऐसी कहानियां अपवाद नहीं हैं, यहां तक कि अपेक्षाकृत कम जोखिम वाली फसलें भी बिगड़ रही हैं, जिसके परिणाम ख़तरनाक हैं।
यह भी पढ़ें : वरुण गांधी का चुनाव आयोग पर हमला, कहा- बिना दांत का शेर है चुनाव आयोग
विफलता का बढ़ता जोखिम और खेती की लागत में बढ़ोतरी से किसानों को दोहरी मार पड़ी है। साल 2004 से 2013 के बीच अरहर के बीजों की कीमत तीन गुना और कपास के बीजों की कीमत पांच गुना बढ़ गई है। यहां तक कि धान (6 रुपए/किलो से बढ़कर 31 रुपए/किलो), सोयाबीन (20 रुपए/किलो से 40रुपए/किलो) और गन्ने (89 रुपए/किलो से बढ़कर 230 रुपए/किलो) की लागत में भी काफी बढ़ोतरी हुई है। सरकार द्वारा निर्धारित बीज बोने के बाद भी, किसान तकलीफ़ में ही हैं।
One of the biggest problem is the problem of the Election Commission which is really a toothless tiger: BJP MP Varun Gandhi (13.10.17) pic.twitter.com/f7D8YjNnUp
— ANI (@ANI) October 14, 2017
पुणे ज़िले के पारगाँव के रहने वाले वसंत पिम्पाले के खेतों में टमाटर की उपज घटकर 10 टन से भी कम रह गई, जबकि उम्मीद60 से 70 टन/एकड़ उत्पादन की थी। सरकार द्वारा निर्धारित बीज इस्तेमाल करने के बाद आस-पास के इलाकों में भी टमाटर पेड़ों पर ही सड़ गए। इन सबके बीच किसानों द्वारा परिवार की विरासत के तौर पर अपने बेटों को बीज देने के दिन बहुत पीछे छूट गए हैं।
यह भी पढ़ें : गोरखपुर में बच्चों की मौत से आहत वरुण गांधी सुल्तानपुर में बनवाएंगे बाल चिकित्सा केंद्र, दिए पांच करोड़
कीटनाशकों की मदद से पौधों की सुरक्षा की दरें आसमान तक जा पहुचीं हैं। 2004-05 से 2012-13 के बीच अरहर के कीटनाशकों की कीमत 5 गुना और सोयाबीन के लिए कीटनाशकों की कीमत करीब चौदह गुना बढ़ गई है। इस दौरान खेतों में काम करने वाले मज़दूरों का खर्च भी अच्छा-खासा बढ़ा है। पहले जहां छह से नौ रुपए/घंटे की दर से मज़दूर मिल जाते थे, अब उनकी मजदूरी 20 रुपए/प्रति घंटे है। इसी अवधि में गेंहूं के खेत में मशीन लेबर का खर्च 1721 रुपए/हेक्टेयर से बढ़कर 4695 रुपए/हेक्टेयर हो गया है। इस लिहाज़ से पिछले एक दशक में खेती की लागत बेतहाशा बढ़ी है। साल 2004 से 2013 के बीच एक हेक्टेयर ज़मीन पर धान और गेहूं की खेती की लागत 20,607 और 12,850 रुपए से बढ़कर 47,644.5 और 38,578 रुपए हो चुकी है। अकेले सुल्तानपुर ज़िले में खेती की लागत पिछले पांच सालों में 33 प्रतिशत बढ़ी है।
Spoke to the DM & Chief Medical Superintendent. Have pledged Rs 5cr from my MPLAD funds to build a new state-of-the-art paediatrics wing in
— Varun Gandhi (@varungandhi80) August 14, 2017
लागत बढ़ने और फसलें खराब होने के खतरों के बीच, होना ये चाहिए कि या तो बाज़ार, या सरकारें ये सुनिश्चित करें कि किसानों को उनकी मेहनत का उचित मूल्य मिले। कृषि उत्पादों के लिए उपभोक्ता द्वारा चुकाए गए मूल्य और किसान को मिली कीमत में ज़मीन-आसमान का अंतर है। सन 1972 में कोलकाता में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि उपभोक्ता द्वारा दी गई संतरे की कीमत का सिर्फ दो फीसदी ही किसान को मिलता है, बाकी का सारा पैसा मार्केटिंग चैनलों की जेब में चला जाता है। सकारात्मक इरादे के बावजूद, नियंत्रित मार्केटिंग व्यवस्था (मंडियों) ने भी नुकसान ही किया है। फसल तैयार हो जाने के बाद होने वाले नुकसान पर गौर कीजिए- भारत में करीब 15 से 50 प्रतिशत तक फल बाज़ार पहुंचने तक नष्ट हो जाते हैं (एफएक्यू, 1981. आरओवाई, 1989)। इन मंडियों तक जाने वाली सड़कें तो कच्ची होती ही हैं, साथ ही फलों की नीलामी भी खुले में होती, जिसकी वजह से यहां हमेशा भीड़ रहती है।
यह भी पढ़ें : वरुण गांधी ने बड़े उद्योग घरानों की कर्ज माफी पर खड़ा किया सवाल
कुछ परिस्थितियों में संगठित खेती करने से मदद मिल सकती है। पश्चिम बंगाल के बर्धवान ज़िले के किसान अमलेन्दु गुहा आलू उगाते हैं। उन्हें अहसास हुआ कि आढ़तिया कमीशन, ढुलाई का खर्च, बाज़ारों की फीस, देय और गैरकानूनी रिश्वत देने के बजाए, सीधे कंपनियों को आलू बेचने में ज़्यादा मुनाफा है। अमलेंदु ने अब एक ट्रैक्टर और हार्वेस्टर खरीद लिया है, जिससे उनकी आमदनी बढ़ी है, और अब उन्होंने अपना घर भी दुरुस्त करवा लिया।
4.2 lakh civil service aspirants from rural India have suffered for over 10 yrs for not having as privileged an education as their English-speaking counterparts.I signed their petition for a compensatory prelims exam so they are given a fair chance.I urge other MPs to do the same pic.twitter.com/F1OivHjrcl
— Varun Gandhi (@varungandhi80) November 30, 2017
आज़ादी से पहले, हमारे ज़्यादातर किसान गरीब थे। पहले ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश राज ने उनकी हर बीघा खेत से जमकर वसूली की और अब किसान अफसरों द्वारा उपेक्षित हैं, अमीरों द्वारा दरकिनार किए गए हैं और बिचौलियों द्वारा उत्पीड़ित हैं, लेकिन मीडिया बस दूर से देखता है। इस बीच महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और यहां तक कि दिल्ली में भी किसान संगठित होकर कर्ज़ माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग को लेकर प्रदर्शन करने लगे हैं। कृषि क्षेत्र में गिरावट की वजह किसानों की अक्षमता नहीं बल्कि सरकारी नीतियों की उदासीनता है।
हमारे नीतिगत माहौल ने उन्हें इस दुखद स्थिति में पहुंचाया है। साल 1991 के बाद कृषि क्षेत्र में औसतन एक प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि औद्योगिक क्षेत्र में आठ प्रतिशत की। नीति निर्माताओं को जब सीमांत किसानों की हालत में सुधार और शहरों में निवेश को प्रोत्साहन देने का विकल्प दिया गया, तो उन्होंने अक्सर दूसरे विकल्प को चुना, चाहे वो हाइवे बनाने के लिए ज़मीन का अधिग्रहण हो (जिसे ज़्यादातर शहर के निवासी ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं), या कर्ज़ माफी और कल्याणकारी सब्सिडी में से चुनाव हो, हमने आमतौर पर आर्थिक मूल्यों को इंसान की परिस्थितियों पर तवज्जो दी है। ऐसी परिस्थितियों में कोई किसान क्यों चाहेगा कि वह इस ‘महान व्यवसाय’ की विरासत को आगे बढ़ाए? शायद वक्त आ गया है कि हम अपनी राष्ट्रीय नीतियों का फिर से मूल्यांकन करें और किसानों और समाज के बीच सहयोग बढ़ाने को प्रोत्साहन दें।
(गाँव कनेक्शन के पांच साल पूरे होने पर शुभकामनाओं सहित ये लेख भेजा है।)