जोधपुर की महिलाओं का अद्वितीय 'रतजगा' है ‛धींगा गवर'

'धींगा गवर' गौरी पूजन का एक अद्वितीय त्योहार है जो मारवाड़ के जोधपुर में महिलाओं द्वारा विशेष प्रकार से मनाया जाता है, इसे ‛बड़ी गवर' भी कहते हैं

Update: 2019-04-10 07:47 GMT

जोधपुर। सामाजिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भारतीय पर्वों में संस्कृति और संस्कारों को अक्षुण बनाए रखने के लिए उन्हें अनुष्ठानों की तरह परम्पराओं के रूप में मातृशक्ति को सौंप दिया जाता है, ताकि वह सरलता से भावी पीढ़ी को हस्तान्तरित हो सकें। गतियात्मक निरन्तरता के लिये परिवर्तनों को स्वीकार करने की लोच हमारे सनातन पर्वों की विशेषता है, यही कारण है कि हमारी परम्पराएं आज भी अक्षुण हैं।

'धींगा गवर' गौरी पूजन का एक अद्वितीय त्योहार है जो मारवाड़ के जोधपुर में महिलाओं द्वारा विशेष प्रकार से मनाया जाता है। इसे ‛बड़ी गवर' भी कहते हैं। पुराने जमाने में कुलीन परिवारों में विधवा विवाह की अनुमति नहीं होती थी। वैधव्य जीवन में पूजा करने और पर्वों में भाग लेने का भी प्रावधान नहीं होता था। इस स्थिति से परित्राण हेतु विशेष पूजा विधि को मान्य किया गया।


अगर कोई विधि की विडम्बना से बाल विधवा या युवा विधवा हो जाती है तो उसके मन में गौरी पूजन की आकांक्षा रह ही जाती है। चैत्र मास में मौसम से उत्पन्न शारीरिक उत्कण्ठाओं को तृप्त करने हेतु धर्मानुसार सामाजिक एवं शारीरिक मनोविज्ञान को जानने वाले विद्वान पूर्वजों ने वैदिक परम्पराओं को पौराणिक प्रसंगों के अनुरूप 'धींगा गवर पूजन पद्धति' को प्रारम्भ किया, ताकि वैधव्य जीवन व्यतीत करने वाली महिलाओं में कुण्ठाएं और हीन भावना न आए तथा पूजा के समान अवसर भी मिल सकें। अतः यह एक अद्वितीय परम्परा है।

पौराणिक प्रसंगों में भारतीय स्वस्थ गृहस्थ जीवन को सही दिशा देने हेतु शिव-पार्वती की कथाएं दुर्गम परिस्थितियों से परित्राण हेतु लोकानुरंजन से जुड़कर पूजा पद्धति और पर्व बन जाती हैं। इस पूजा के साथ जो प्रसंग जुड़ा हुआ है, उसमें कथा है कि,"एक बार शिवजी ने विचित्र वेशभूषा धारण कर पार्वतीजी से ठिठोली की। उसी तरह पार्वतीजी ने भी सुन्दर वन कन्या की वेशभूषा धारणकर शिवजी से ठिठोली की और विचित्र वेशभूषा में एक दूसरे को पहचाने जाने पर प्रसन्नता का अनुभव किया।


भारतीय संस्कृति में लोकानुरंजन से जुड़े पर्व इन्हीं आधारों पर दाम्पत्य सशक्तिकरण के पर्व हैं। धींगा गवर का धींगाणा (रतजगा) भी दाम्पत्य सशक्तिकरण का ही एक पर्व है।

यह पर्व एक पखवाड़े तक तृतीया से तृतीया तक अर्थात् 16 दिन की पूजा के रूप में हाथ पर 16 धागों का 'डोरा' बांध मनाया जाता है। 16वें दिन रतजगे को महिलाएं तरह-तरह की विचित्र वेशभूषाएं धारण कर हाथ में छड़ी लिये अलग-अलग मौहल्लों में जहां-जहां धींगा गवर की प्रतिमाएं विराजमान होती हैं, पूजा-अर्चना-दर्शन के पश्चात् पारम्परिक गीत गाती नृत्य करती हैं।

कौनसी तीजणी कौनसी वेशभूषा धारण करेगी, इसे गुप्त रखा जाता है। विशेषकर पति को पता नहीं चलने देतीं और कई बार पति महोदय वास्तव में पहचान तक नहीं कर पाते। यह ठिठोली मित्रों द्वारा वर्ष पर्यन्त चलती है। इस पर्व की अद्वितीय विचित्रता को कौतूहलवश कुछ लोगों ने इसे 'बैंतमार गवर' कहना प्रारम्भ कर दिया। हालांकि इनके लिए उनके मन में पूर्ण श्रद्धा है और वे बड़ी श्रद्धा के साथ पर्व को मनाते हैं।


पुराने जमाने में यह छड़ी 'मेट्रीमोनियल मीडिया' का काम करती थी, जिस युवक की सगाई तय हो जाती, उसको उसकी भाभी या सम्बन्धी जो इस सम्बन्ध को अन्जाम देती हैं, वह युवकों को छड़ी की मीठी मार से यह संकेत देती थीं कि आपकी सगाई पक्की हो चली है और शादी शीघ्र ही होगी।

ठीक इसी तरह से समधन (सग्गी) भी अपने समधी (सग्गे) से इस तरह की ठिठोली करती है। इसी धींगाणे (रत्तजगे) की मस्ती को 'धींगा मस्ती' कहा जाता है। यह पूजा अर्चना के साथ-साथ दाम्पत्य सशक्तिकरण और आपसी सम्बन्धों को भी प्रगाढ़ बनाये रखने वाला तथा शाश्वत सांस्कृतिक परम्पराओं को अक्षुण बनाये रखने वाला लोकानुरंजनात्मक एवं अद्वितीय प्रकार का पर्व है, जो मारवाड़ जोधपुर की अपनी एक अलग पहचान लिए हुए है।



इस पर्व को देखने के लिये जहां पूरा शहर उमड़ पड़ता है, वहीं इन दिनों इलेक्ट्रोनिक मीडिया, प्रिण्ट मीडिया इस पर्व को प्रंशसनीय कवरेज दे रहे हैं और इसके कारण विदेशी पर्यटक भी इसे देखने और आनन्द लेने के लिये आने लगे हैं।

सभी आयोजकों द्वारा इस दिन इन परम्पराओं को भावी पीढी तक पहुंचाने का अथक प्रयास चल रहा है। अस्तु! ऐसा ही हो। समस्त विकास क्रमों के साथ हमारी संस्कृति और संस्कार हमारी विशेष पहचान बने रहें। ऐसी शुभाकांक्षा कर सकते हैं हम लोग।

( लेखक कृषि एवं पर्यावरण पत्रकार हैं )

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